मेरे दोस्त तुम्हारा हर झूठा दावा
चलो मान लेता हूं, तुम्हारी तसल्ली के लिए
देश बदलेगा, डिजिटल होगा
गरीबी हटेगी, रोज़गार मिलेगा
एक बात बिलकुल बदल ना पाओगे तुम
दिमाग में घर कर बैठे जाति के कीड़े को
कैसे बाहर निकाल पाओगे तुम?
किराए का घर ढूंढने गया था शहर में
मैंने घर देखा, पसंद किया
किराए की रकम तय हुई
महिला घर देने को राजी हुई
फिर उसने पूछ ली मेरी जाति
जो उसके दिमाग में घर कर बैठी थी
ये नफरत उसके दिमाग कि
कैसे बाहर निकाल पाओगे तुम?
घर तो नहीं मिला, मेरे खाते में
एक और नया अनुभव जुड़ा
जिस घर की दीवारों पर
दिखती है किसी धर्म से जुड़ी कोई निशानी
मै वहां इन्सानियत कि उम्मीद नहीं रखता
इस टूटी हुई उम्मीद को, क्या फिर से जगा पाओगे तुम?