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भारत में पिछले 10 वर्षों में रेप के मामलों में 44 फीसदी बढ़ोतरी

साल 2020 में एक केस पर सुनवाई के दौरान मद्रास हाइकोर्ट ने एक टिप्पणी भारत की उस भूमि के लिए की, जहां औरत को देवी के रूप पूजा जाता है। उनकी टिप्पणी थी कि, “भारतभूमि अब दुष्कर्मियों की भूमि में बदल गई, जहां हर 15 मिनट में एक दुष्कर्म होता है।”

हाथरस गैंगरेप के बाद उत्तर प्रदेश और राजस्थान से आई बलात्कार की घटनाओं ने पूरे देश को एक बार फिर झकझोर दिया है। ये सभी घटनाएं महिला सुरक्षा के तमाम खोखले दावे और कानून व्यवस्था को कटघरे में लाकर खड़ा कर रही हैं।

कहां हैं महिला सशक्तिकरण की बातें करने वाले तमाम नेता?

हाथरस कांड में एक तरह से जहां पुलिस प्रशासन की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं, वहीं समाज के उत्थान और महिला सशक्तिकरण पर बड़े-बड़े बयान देने वाले नेता भी अपना मुंह खोलने से बच रहे हैं। लॉ एंड ऑर्डर को ताक पर रखकर तमाम कार्रवाई की जा रही है। इस मामले को गंभीरता से लेने के बजाय प्रशासन साफतौर पर पीड़ित परिवार को डराने-धमकाने का काम कर रहा है। हाथरस गैंगरेप कांड पर प्रशासन की कार्रवाई शुरू से ही संदिग्ध रही है। 

निर्भया, आसिफा, उन्नाव व हैदराबाद प्रकरण के बाद एक बार फिर देश उबल रहा है। भारत की हर गली, हर नुक्कड़ पर कैंडल मार्च निकालकर पीड़िता के लिए न्याय की मांग की जा रही है। लगातार बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं को सरकारें गंभीरता से नहीं ले रही हैं, इसलिए कड़े कानून होने के बावजूद भी ऐसी घटनाओं पर लगाम नहीं लग रही है। हर 15 मिनट में कहीं-ना-कहीं देश की बेटी की अस्मिता लूटी जा रही है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 2019 में हर दिन बलात्कार के 88 मामले दर्ज़ किए गए और सालभर में कुल 32,033। राजस्थान से सर्वाधिक 6,000 और उत्तर प्रदेश से 3,065 मामले दर्ज़ किए गए। वहीं, 2018 में बलात्कार के कुल 33,356 मामले दर्ज़ किए गए, जिनमें सर्वाधिक 5,433 मामले मध्यप्रदेश, राजस्थान में 4,335, उत्तर प्रदेश में 3,946 और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 1,215 मामले दर्ज़ किए गए। इन कुल मामलों में महज़ 23,581 अभियुक्तों को धारा 376 व 371 (1) के तहत सज़ा सुनाई गई।

सगे-सम्बन्धियों पर लगते हैं इल्ज़ाम

दुष्कर्म के अधिकांश मामलों में 11 फीसद रेप पीड़िता दलित समुदाय से ताल्लुक रखती हैं और साथ ही हर 10 में से 4 महिलाओं के साथ दुष्कर्म करने वाला व्यक्ति उसका रिश्तेदार, दोस्त या कोई जान-पहचान वाला ही होता है। 2012 के निर्भया कांड ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। जिसके बाद क्रिमिनल लॉ में संशोधन करते हुए बलात्कार और यौन हिंसा के मामले में कड़ी सज़ा का प्रावधान किया गया और बलात्कार की परिभाषा भी बदली गई। अफसोस, इसके बाद भी बलात्कार के मामलों में कोई कमी नहीं आई है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की मानें तो पिछले 10 वर्षों में महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों में 44 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। ये ऐसे आंकड़े हैं, जो सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज़ हैं। ऐसे मामलों में ज़्यादातर महिलाएं रिपोर्ट दर्ज़ कराने से झिझकती हैं। वे सामाजिक, पारिवारिक या अन्य किसी दबाव की वजह से अपने साथ हुए जघन्य अपराध के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज़ कराने में असफल होती हैं।

इन सबके परे अगर पीड़िता थाने तक पहुंच भी जाएं तो ऊपरी दबाव के चलते या उनके विशेष जाति से ताल्लुक रखने की वजह से पुलिस थाने में उनकी बात नहीं सुनी जाती, कई बार रिपोर्ट दर्ज़ हो जाने के बावजूद पीड़िता या उनके घर वालों द्वारा रिपोर्ट वापस ले ली जाती है। इसकी वजह से साफतौर पर आरोपित पक्ष द्वारा पैसे या जबरन दबाव डालकर बयान बदलवा दिए जाते हैं।

बलात्कार के खिलाफ बनाए गए नियम व कानून

भारत में रेप कल्चर एक महामारी की तरह फैल रहा है, जिसका ना तो कोई इलाज है और ना ही कोई दवा। गली-मोहल्ले, बाज़ार, स्कूल, दफ्तर वह हर जगह जहां महिलाएं, पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी नज़र आती हैं। वहीं, पितृसत्ता में विश्वास रखने वाला समाज उन्हें 10 कदम पीछे धकेल देता है। भारत में महिलाओं के खिलाफ क्रूर और हिंसात्मक बलात्कार की कुछ घटनाओं को देखते हुए समय-समय पर कानून में कई तरह के बदलाव किए गए हैं।

सबसे पहले साल 1860 में भारतीय दंड संहिता में धारा 375 जोड़ी गई, जिसके तहत भारत में बलात्कार को अपराध का दर्ज़ा दिया गया। इस धारा के अनुसार, “कोई पुरुष किसी महिला के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध या उसकी सहमति के बगैर उससे संभोग करता है, तो उसे बलात्कार कहा गया है। अगर महिला की सहमति डरा धमकाकर ली गई है, तो भी बलात्कार ही माना जाएगा।”

वहीं, इस धारा में यह भी कहा गया है कि अगर पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम है तो उसकी सहमति की कोई अहमियत नहीं होती यानि कि अपराधी अपने बचाव में यह नहीं कह सकता कि जो भी हुआ पीड़िता की सहमति से हुआ है। अगर पीड़िता शादीशुदा है, उसकी उम्र 15 साल से ऊपर है और ये कृत्य करने वाला उसका अपना पति है तो उस कृत्य को कानूनन बलात्कार नहीं माना जाएगा। इस अपराध की सज़ा धारा 376 में बताई गई है।

मथुरा बलात्कार केस पर एक नज़र

26 मार्च 1972, महाराष्ट्र के देसाईगंज पुलिस स्टेशन में कथित तौर पर मथुरा नाम की महिला के साथ पुलिस कर्मियों ने बलात्कार किया। इस केस में सेशन कोर्ट ने सभी पुलिसवालों को इस तर्ज़ पर बरी कर दिया कि पुलिस स्टेशन में जो कुछ भी हुआ वह बलात्कार नहीं था।

सेशन कोर्ट के इस फैसले को हाइकोर्ट में चुनौती दी गई, जहां सेशन कोर्ट के फैसले को ही सही ठहराया गया, जहां इस मामले में यह तर्क दिया गया कि हादसे के बाद मथुरा के शरीर पर चोट के कोई निशान नहीं मिले। यह अपने आप में साबित करता है कि पुलिस स्टेशन में जो भी हुआ, उसमें मथुरा को कोई आपत्ति नहीं थी, बल्कि उसकी भी सहमति थी।

दरअसल, वह फैसला साल 1978 में आया। इस फैसले का पूरे देश में विरोध हुआ और साल 1983 में सरकार ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 में धारा 114-A को डाला। इसके अनुसार, बलात्कार सम्बन्धित मामलों में पीड़िता के बयान को ही सही माना जाएगा।

अगर पीड़िता कह रही है कि उसने सहमति नहीं दी तो ये मान लिया जाएगा कि उसने सहमति नहीं दी। इसके अतिरिक्त, भारतीय दंड संहिता 1860 में धारा 228A को डाला गया। जिसके अनुसार पीड़िता की पहचान का खुलासा करना एक अपराध है। यही नहीं, एक और धारा को भी शामिल किया गया जिसके तहत पीड़िता से उसके चरित्र पर प्रश्न पूछने पर भी रोक लगा दी गई।

अरुणा शानबाग रेप केस पर एक नज़र

अरुणा शानबाग रेप केस, यह 1973 के साल में देश का सबसे चर्चित रेप केस था। इस केस में मुंबई के अस्पताल में काम करने वाली नर्स के साथ अस्पताल के ही एक सफाईकर्मी ने सोडोमी यानि की अप्राकृतिक सेक्स किया था लेकिन उस वक्त सोडोमी को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया था, जिसकी वजह से अभियुक्त पर लूट और हत्या का प्रयास के मामला दर्ज़ किया गया था।

उसे महज़ 7 साल की जेल की सज़ा सुनाई गई थी। रेप और हमले ने अरुणा शानबाग के दिमाग को गंभीर चोट पहुंचाई, जिससे अरुणा कॉमा में चली गईं। 42 साल तक कॉमा में रहने के बाद 2015 में अरुणा शानबाग का निधन हो गया।

1990 हेतल पारेख रेप केस पर एक नज़र

पश्चिम बंगाल के भवानीपुर में 5 मार्च 1990 को हेतल पारेख नाम की किशोरी से रेप और हत्या के मामले में 14 अगस्त 2004 को अलीपुर सेंट्रल जेल में आरोपी धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई मगर 2015 में कोलकाता के इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिट्यूट के दो प्रोफेसर्स ने इस केस को दोबारा स्टडी किया, जिसमें कई ऐसे तथ्य सामने आए जिसका एक एंगल माता-पिता द्वारा हत्या किए जाने का भी आ रहा था। इस मामले में पहली बार बलात्कार के किसी आरोपी को फांसी की सज़ा दी गई थी।

1992 भंवरी देवी रेप केस पर एक नज़र

22 सितंबर 1992 को राजस्थान के भटेरी गांव में, गांव के 3 लोगों ने पति के साथ काम कर रही महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया। भंवरी देवी एक दलित सामाजिक कार्यकर्ता थीं और उन्होंने 9 माह की एक गुर्जर बच्ची का बाल विवाह होने से रोका था जिसके क्षुब्ध होकर गुर्जर समाज के 5 लोगों ने खेत पर काम रहे भंवरी देवी के पति को पीटना शुरू किया जिसका बीच-बचाव करने गई भंवरी का तीन लोगों ने बलात्कार किया।

इस केस की सुनवाई के दौरान 5 बार राजस्थान हाइकोर्ट के जज बदले गए। रेपकांड के बाद ही 1997 में विशाखा गाइडलाइंस आईं। जिसके तहत वर्कप्लेस पर महिलाओं के साथ हो रही छेड़छाड़ को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिशा-निर्देश बनाएं।

यह नियम हर वर्कप्लेस पर लागू होता है कि ड्यूटी के दौरान महिलाओं से किसी भी तरह के शारीरिक छेड़छाड़, ज़बरदस्ती या रिक्वेस्ट कर सेक्स संबध बनाने के लिए कहना, अश्लील इशारा करना या महिला सहकर्मी को पॉर्न दिखाना। इस गाइडलाइंस के अंदर आता है। अगर कोई भी ऐसी हरकत करता है तो आईपीसी की संबंधित धाराओं के तहत उस पर केस दर्ज हो सकता है।

निर्भया गैंगरेप पर एक नज़र

16 दिसबंर 2012 को दिल्ली में एक चलती बस में 6 लोगों ने मिलकर 23 वर्षीय लड़की के साथ बर्बरता से गैंगरेप किया। अपनी दोस्त को बचाने की कोशिश कर रहे लड़के के साथ मारपीट की। आरोपियों ने रेप के बाद पीड़िता और उसके दोस्त को सड़क किनारे फेंक दिया।

इस घटना के 13 दिनों बाद इलाज के दौरान पीड़िता ने दम तोड़ दिया। इस गैंगरेप की पूरे दुनियाभर में निंदा हुई, पूरे देश में इसके खिलाफ प्रदर्शन किए गए। दिल्ली में प्रदर्शन इतना उग्र हो गया था कि पुलिस को आंदोलनकारियों पर लाठी चार्ज करना पड़ी। साथ ही दिल्ली में मेट्रो सेवा बंद करनी पड़ी थी। संसद से लेकर सड़क तक इस घटना के विरोध में आवाज़ उठाई गई थी।

इस घटना के बाद जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में वर्मा कमीशन का गठन किया गया। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी समेत देश-विदेश से करीब 80 हज़ार सुझाव कमेटी को मिले। जिसके बाद 29 दिनों में कमेटी ने 630 पन्ने की रिपोर्ट सरकार को सौंपी। 3 फरवरी 2013 को क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऑफ ऑर्डिनेंस आया जिसके तहत आईपीसी की धारा 181 और 182 में बदलाव किए गए।

महिला सुरक्षा संबंधी कानूनों को और सख्त कर दिया गया। निर्भया कांड से पूर्व सेक्सुअल पेनिट्रेशन को ही रेप माना जाता था परंतु इसके बाद से देश में रेप की परिभाषा ही बल दी गई। गलत तरीके से छेड़छाड़ या यौन शोषण के किसी भी तरीके को रेप की कैटेगरी में रखा गया। सभी प्रकार के कुकृत्यों के लिए सज़ा निर्धारित की गई।

निर्भया कांड के बाद ही देश में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के लिए पॉस्को एक्ट, फास्ट ट्रैक कोर्ट अस्तित्व में आए। तो वहीं जुवेनाइल जस्टिस बिल भी संसद में पास कराया गया। जिसके तहत 16 या उससे अधिक उम्र के बालक को जघन्य अपराध करने पर व्यस्क मानकर मुकदमा चलाने का प्रावधान किया गया।

इन सभी कानूनों के तहत ही आशा राम से लेकर पूर्व विधायक कुलदीप सेंगर को सज़ा सुनाई जा चुकी हअ परंतु बलात्कार के मामलों में कोई कमी नहीं आई है। बलात्कार का मतलब केवल शारीरिक शोषण नहीं है, बल्कि यह एक महिला का मानसिक और सामाजिक शोषण भी है।

समाज के एक हिस्से के लिए बलात्कार जैसे अपराध भी केवल एक बहस का विषय मात्र हैं परंतु जिस महिला के साथ बलात्कार होता है वह कोई हिंदू, मुस्लिम, दलित या सवर्ण नहीं बल्कि एक महिला होती है। जिसके शरीर के साथ-साथ उसकी सामाजिक पहचान भी अपना वजूद खो देती है।

हालांकि देश में कई संस्थाएं हैं जो रेप सर्वाइवर्स के लिए काम कर रही हैं। जहां उनकी काउंसिलिंग करते हिए खोया आत्मविश्वास जगाने का काम करती हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या औरत की देवी के रूप में पूजा करने वाले समाज में देवी स्वरूप औरत का बलात्कार स्वीकार्य है?


संदर्भ- Reuters, NCRB 1, NCRB 2, NCRB 3

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