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“बिहार में बराबरी की बात करना हम महिलाओं के लिए स्वप्न ही लगता है”

women sitting in a group

हम जब भी गुज़रे दस साल की तरफ पलटकर देखते हैं, तो बिहार की पृष्ठभूमि पर महिलाओं की स्थिति चिंताजनक नज़र आती है। कन्या भ्रूण हत्या, मातृत्व मृत्यु से लेकर बच्चियों के एनिमिक होने तक का रेशियो डराने वाला है।

दूसरी तरफ महिला साक्षरता और उच्च शिक्षा में महिलाओं की उपस्थिति दूसरे राज्यों की तुलना में बहुत कम थी। महिला सुरक्षा के नाम पर कुछ भी नही था। बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसे प्रतिबंधित कुप्रथा का वर्चस्व था, तो दूसरी तरफ छेड़खानी, बलत्कार, एसिड अटैक जैसे घृणित अपराध तेज़ी से महिलाओं को अपना शिकार बना रहे थे।

नीतीश सरकार आने के बाद

2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बनते हैं। जिस समय जितन राम मांझी सीएम हुए और राष्ट्रपति शासन लागू हुआ, उस दौर को छोड़ दें तो तब से लेकर अभी तक मुख्यमंत्री वही हैं। मुख्यमंत्री रहते हुए पहले टर्म में उन्होंने भारी संख्या में पंचायत स्तर पर शिक्षकों की बहाली की जिनमें ज़्यादातर महिला शिक्षिकाओं की बहाली हुई। फिर एएनएम, आशा कार्यकर्ता और जीवीका दीदी से लेकर महिला सिपाही और दरोगा तक की बहाली हुई। अभी बिहार सरकार की नौकरियों में 35% महिला आरक्षण है।

स्कूल दूर होने की वजह से या यातायात के साधन नहीं होने के कारण पंचायत स्तर पर पढ़ने के बाद बच्चियां हाई स्कूल तक नहीं पहुंच पाती थीं। साईकिल योजना के तहत बच्चियां आत्मनिर्भर बनीं और पहले की तुलना में स्कूल ड्रॉपआउट कम हुए। स्कूलों से बच्चियों को जोड़ने के लिए पोषाक से लेकर मिड डे मील और किताब तक मुहैया कराए गए।

बिहार में महिलाओं की सक्रियता राजनीति में नग्नय थी, जो थी भी वह पति, पिता या पुत्र की जगह चुनावी मौसम में मैदान में उतार दी जाती थीं। ऐसे में महिलाओं को राजनीति से जोड़ना एक चुनौती जैसा था। 2007 में पंचायत स्तर पर पचास प्रतिशत महिला आरक्षण बिल पास होने के बाद बिहार इस देश का वह पहला राज्य हुआ जहां भारी संख्या में महिलाएं पंचायत स्तर पर नेत्री बनकर उभरीं।

हालांकि उस वक्त भी ज़्यादातर महिलाएं पति या पुत्र की जगह आरक्षित सीट पर चुनाव लड़ रही थीं लेकिन आगे चलकर यह महिलाओं की राजनीति में प्रबल दावेदारी बनाने में सहायक हुआ।

एक दौर था जब नीतीश को महिलाओं के कारण सच्चा नेता कहा जाने लगा

इस तरह से पहले टर्म के अंत के साथ चारों तरफ महिलाएं मुखर होकर नीतीश कुमार की प्रशंसक और वोटर बन गईं। बिहार जैसे राज्य में, जहां अधिकतर महिलाएं वोट किसको देंगी यह भी घर में पति या पिता तय करते थे या सीधा यह कहा जाए कि बिहार की राजनीति की बागडोर हमेशा से पितृसत्ता का गुलाम रही है।

ऐसे में एक ही परिवार से पुरुष दूसरे पार्टी को वोट करते थे, तो महिलाएं बढ़-चढ़कर जदयू को वोट करती थीं, क्योंकि उनको लगता था कि यह मुख्यमंत्री उनको नौकरी देकर सशक्त कर रहा है। आगे चलकर शराबबंदी, बाल विवाह और दहेज प्रथा पर प्रतिबंध को लेकर जिस तरह के जन-अभियानों को नीतीश कुमार ने चलाया, वह समाज में आधी आबादी के सच्चे नेता माने जाने लगे।

लेकिन दूसरी तरफ मुज़फ्फरपुर बालिका गृह कांड, नवरूणा, सृजन घोटाला को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार की बदनामी हुई। उस समय मंजू वर्मा से इस्तीफा लेकर मामले को सम्भाला गया लेकिन अब भी बिहार में महिलाओं को लेकर सरकार और उसकी तंत्र का रवैया बहुत ही उदासीन हैं। साईकिल तो मिल गई बच्चियों को लेकिन जिन सड़कों से वे स्कूल पहुंचेंगी, वे सुरक्षित नहीं रहीं।

बिहार में लगातार बलात्कार और गैंग रेप करके वीडियो वायरल करने की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। प्रेम में नकार दिए जाने पर बीते सालों में कई बच्चियों को एसिड अटैक हुए। महिला कामगारों की संख्या पुरुषों के लगभग बराबर है लेकिन कार्यस्थल पर अधिकांश जगह महिलाओं के लिए टॉयलेट्स तक नहीं हैं।

ऐसी परिस्थितियों में बिहार का चुनाव है, जहां मुद्दों की जब बात होती है तो महिला सुरक्षा की बात बिल्कुल ही गौण है। मतलब कोई भी राजनीतिक दल के लिए यह महत्वपूर्ण मसला है ही नहीं!

महिलाओं को टिकट देकर क्या साबित करना चाहते हैं नीतीश कुमार?

एक तरफ नीतीश कुमार अपनी पार्टी से 22 नेत्रियों को टिकट देकर यह साबित करते हैं कि वो आधी अबादी को लेकर बहुत संजीदा हैं। वहीं दूसरी ओर उनकी पार्टी मंजू वर्मा, जिनका नाम मुज़फ्फरपुर बालिका गृह कांड से जुड़ा था, उनको टिकट देकर यह साबित करती है कि महिला सुरक्षा के मुद्दे कल भी बेबुनियाद थे और आज भी बेबुनियाद हैं।

दूसरी तरफ बिहार में सबसे बड़ा विपक्षी दल राजद से बलात्कार के आरोपी राज बल्लभ यादव की पत्नी चुनाव में टिकट पा लेती हैं, जिससे यह स्पष्ट है कि बिहार में पहले भी दबंग या दागी जब चुनाव नहीं लड़ पाते थे, तो अपनी जगह पत्नी को चुनावी मैदान में उतार देते थे। 

आज भी बड़ी-बड़ी सोशल इंजीनियरिंग की बात करने वाले कद्दावर नेताओं के लिए महिला सुरक्षा या उनकी भावना मायने नहीं रखती है। इसलिए ऐसे घृणित अपराध में लिप्त नेता की जगह उनकी पत्नी को टिकट बांटा जा रहा है।

फिर भी शराबबंदी, पंचायत स्तर पर महिलाओं को मिला आरक्षण धीरे-धीरे महिलाओं को मुख्यधारा से जोड़ते हुए उन्हें सशक्त कर रहा है। फिर भी बराबरी की बात करना और एक मनुष्य की तरह स्वतंत्र जीवन जीना हम महिलाओं के लिए स्वप्न ही लगता है अभी।

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