Site icon Youth Ki Awaaz

बिहार चुनाव: “सत्ता में कोई भी आए, हमेशा से धोखा मेहनतकश आवाम को ही मिला है”

चुनावी जनसभा

चुनावी जनसभा

बिहार विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। कई दल और गठबंधन अपने-अपने लुभावने वादे, घोषणा पत्र आदि लेकर जनता के सामने उोस्थिति दर्ज़ कर रहे हैं।

कहीं जरूरी तो कहीं बे-मानी वायदे किए जा रहे हैं। सपने दिखाए जा रहे हैं, वह भी ऐसे जो कभी भी पूरे नहीं हो सकते। विकास देश, पाकिस्तान, चीन, धर्म, जाति, व्यक्ति विशेष, क्षेत्र, लिंग, विश्व गुरु, आदि-आदि के नाम से आपका वोट मांगेंगे।

भाजपा की तरफ से हुई थी अमित शाह की ‘वर्चुअल रैली’

उसमें लाखों-करोड़ों खर्च हुए, जबकि प्रवासी मज़दूरों, खासकर जो बिहार लौट चुके हैं और दयनीय स्थिति में हैं, उनके लिए कोई भी मदद सरकार की तरफ से सामने नहीं आया है। नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली भी होने वाली है।

चुनाव शुरू होने से पहले बड़े पोस्टर के द्वारा मतदाताओं को यह बताया गया है कि करोड़ों विस्थापित मजदूर जो 16 राज्यों से लॉकडाउन के दौरान बिहार सुरक्षित वापस लाए गए उसमें भाजपा का सबसे बड़ा हाथ रहा है।

इस बीच 60 से अधिक हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल हो रहा है। चुनाव आयोग ने सभी उम्मीदवारों के खर्च करने की आधिकारिक खर्च सीमा 10% बढ़ा दी है क्योंकि वह बेचारे कोरोना वायरस के सताए हुए हैं।

यह भी जानकारी बेमानी नहीं होगा कि बिहार में करीब 60 सरकारी अस्पताल हैं, जिनमें से एक में भी बिस्तर या चौकी नहीं है रोगियों के लिए। न ही उनके पास कोई एम्बुलेंस है। मरने के बाद परिवार भागता रहता है लाश को घर या शमशान घाट ले जाने के लिए। वैसे एम्बुलेंस का व्यापार पूरे भारत में दलालों और व्यापारियों के हाथ में है और उनका यह व्यापार फलफूल भी रहा है।

हवा में चुनाव है और ज़मीन पर भुखमरी है, मीडिया मस्त है जनता पस्त है

सत्ता में कोई भी आये, हमेशा से धोखा मेहनतकश आवाम को ही मिला है। चुनाव के दौरान निम्नतम स्तर की भाषा, व्यवहार, नारा का प्रयोग जारी है। यहां तक कि आपराधिक काम तक होते हैं, जो इस बार दिल्ली के चुनाव में दिखे थे। अरबों-खरबों रुपये पानी की तरह “निवेश” किए जाते हैं।

चुनाव खत्म होते ही, अगर कोई एक पार्टी बहुमत में न हो तो “कानून बनाने वालों” की खरीद फरोख्त तो आलू-प्याज़ या मछली की खरीद फरोख्त से भी भद्दे स्तर पर जा पहुंचती है। यह बात हमने पिछले महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में भी दिखी।

बहरहाल यानी हमारे वोट का मतलब सत्ता है, जिसे पैसे के लालची, धोखेबाज़, मौकापरस्त और बड़े पूंजीपतियों के “मैनेजर” एमएलए, एमपी शून्य कर देते हैं। यदि चुनाव सही ढंग और निष्पक्ष हो तब भी जनता के “प्रतिनिधि”, वास्तव में बड़े पूंजीपतियों के लिए काम करते हैं।

एक नजर भारत के आर्थिक स्थिति पर डालें,  कोरोना वायरस महामारी और फिर बिना किसी योजना के और देर से लॉकडाउन जनता के ऊपर थोप दिया गया। करोड़ों मज़दूर, खास कर प्रवासी मज़दूर बिना घर, पानी और भोजन के सड़क पर आ गए।

लाखों मज़दूर हज़ारों किलोमीटर चल कर घर पहुंचने की कोशिश की, सैकड़ों मर भी गए। शोर और विरोध के बाद कुछ विशेष ट्रेन चलायी गइं। वहां भी, पानी तक नहीं दिया गया और मज़दूरों और बच्चों को शौचालय का पानी पीना पड़ा। 40 ट्रेन तो रास्ता ही भूल गईं।

ऊपर से पुलिस का अत्याचार हर जगह दिखाई देता। इतनी बेरहमी से तो शायद विदेशी पुलिस, अंग्रेज़ों के ज़माने में भी नहीं पिटती थी। याद ही होगा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और सरकार ने प्रवासी मज़दूरों को वापस लेने से इनकार कर दिया था।

जब कोई चारा नहीं बचा तो उन्हें संगरोध किया, जहाँ बद इन्तज़ामी हर जगह दिखाई देती थी। सामाजिक दूरी का मजाक ही बना दिया गया। टेस्टिंग और इलाज की तो बात ही नहीं करें। डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मचारियों के पास भी ढंग के सामान नहीं हैं।

बेरोजगारी करीब 30% तक पहुंच चुकी है, जो स्वतंत्रता के बाद सबसे अधिक है। जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) 3.4% तक गिर चूका है, जो कि अगर पिछले पैमाने से गणना करें तो आधा ही रह जायेगा, जो 1.7% होगा। ध्यान रखें, इस गणना में अनौपचारिक क्षेत्र शामिल नहीं हैं। जिसमें जीडीपी का हिस्सा 25-40% तक होता है।

अगर इसे जोड़ा जाए तो जीडीपी 0% या इससे भी नीचे चली जायेगी। यानी हम आर्थिक मंदी में हैं। पिछली आर्थिक तिमाही गणना में यह 24% तक गिर गई थी और केन्द्रीय वित्त मंत्री ने इसे भगवान का काम बताया।

भारत आर्थिक रूप से विश्व में काफी पिछड़ गया है

प्रति व्यक्ति आय में बांग्लादेश से भी पीछे हो चूका है भारत। वहीं बिहार और भी गर्त में जा चूका है, दक्षिणी सूडान के बराबर जा चूका है।बस सिर्फ अफगानिस्तान जैसे कुछ देशों से आगे है। यहां उद्योग खत्म हो चूका है और पिछले कई दशकों में कुछ भी नया नहीं बना है। 12 करोड़ से अधिक की आबादी में आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। ऐसी बरबादी तो दुश्मन ही कर सकता है।

भारत में आर्थिक अवसाद की काफी संभावना है। जो विश्व में 1928-32 में थी। एक सर्वेक्षण और अनुमान के आधार पर विश्व बैंक ने दावा किया है कि भारत की अर्थ व्यवस्था 10% तक और संकुचित हो सकती है।

औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र को नोट बंदी और जीएसटी लागू होने के बाद ज़बरदस्त झटका लगा था और इसमें तकरीबन 3 करोड़ मज़दूर बेरोज़गार हो गए थे। जो अब 22 करोड़ से ज़्यादा हो गया है। जिन्हें पुनः स्थापित करने की कोई चर्चा नहीं है। 20 लाख करोड़ की कहानी को दोहराने की ज़रूरत नहीं है इसकी बंदर बांट की बात पाठकों को पता होगी।

देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, कानूनी स्थिति बहुत ही खराब है

इस सब में मेहनतकश स्त्रियां, चाहे किसी भी धर्म या जाति से हों, घर में या फिर घर से बाहर काम करने वाली हों, उनकी हालत बदतर हैं। पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता कानून NRC, CAA, NPR और बढ़ती आर्थिक कठिनाइयों के खिलाफ ज़बरदस्त आंदोलन चल रहे थे। जिसमें महिलाएं आगे बढ़ कर भाग ले रही थीं। शाहीन बाग की तर्ज़ पर देश भर में 500 से अधिक केंद्र सक्रिय थे और एक विशाल जन सवग्या आंदोलन का रूप ले चूका था।

अब यह आंदोलन स्थगित किए गए हैं। ट्रेड यूनियन और वामपंथी दलों द्वारा आंदोलन, सीमित संख्या में ही सही, जन आक्रोश को संगठित करने की कोशिश कर रहे हैं। बिहार इसमें अग्रणी है। 1975-77 आंदोलन में तो बिहार अग्रणी था।

दूसरी तरफ मेहनतकश और प्रताड़ित जनता की आवाज़ को कोई भी सुनने को तैयार नहीं है। चाहे वह सरकार हो या मीडिया या न्यायालय हो। पुलिस और राज्य प्रायोजित हिंसा भी बढ़ रही है। विरोध के स्वर को पाकिस्तान समर्थक या फिर देशद्रोही कह कर दबाया जा रहा है।

कोरोना वायरस का ज़िम्मा तब्लीगी जमात पर थोप दिया गया। विरोधियों के खिलाफ “राष्ट्रीय सुरक्षा कानून” तो ऐसे लगाया जा रहा है, जैसे चोर-सिपाही का खेल चल हो और पकड़े जाने पर “जेल” में डाल दिया जाता है। बहरहाल यहां की जेल वास्तविक है, जहां हर मानवीय सुविधाएं और संवेदनाएं समाप्त हो जाती हैं। जिसमें 2 साल तक बिना किसी सुनवाई के अन्दर रहना पड़ सकता है।

कोर्ट भी ज़मानत देने के नाम पर आनाकानी कर रही हैं।  जबकि आरएसएस के सदस्यों पर, खुले आम गुंडागर्दी करने और भड़काऊ भाषण देने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। यदि हुआ भी तो ज़मानत शीघ्र ही मिल जाता है। एफ़आईआर तक को खारिज कर दिया जाता है। यह हम किस देश में रह रहे हैं? कैसा प्रजातंत्र है यह?

यह तो स्पष्ट है कि चुनाव के द्वारा हम इस तानाशाही या संघवाद का खात्मा नहीं कर सकते हैं। इसका इलाज सिर्फ और सिर्फ जन क्रांति ही है। क्या हम जन क्रांति के आगमन का इंतज़ार करें या फिर, जो भी संभावनाएं बनती हों, हम उसका उपयोग करें और शामिल हों?

यह सब हमें सोचना होगा खासकर प्रगतिशील, धर्म निरपेक्ष, फासीवाद विरोधी और क्रांतिकारी शक्तियों को लेकर। चुनाव एक अवसर है, हमारे लिए एकता और संघर्ष को आगे बढ़ाने का। अत: प्रतिरोध को तीव्र करने के लिए बिहार चुनाव भी एक अवसर है। 

बिहार के मज़दूर वर्ग और छोटे, मंझोले और गरीब किसानों के साथ काम करने का। क्या हम उस बिहार की तर्ज़ पर काम कर सकते हैं जो हमें 1975-77 के आंदोलन में दिखा था। हमने तब कांग्रेस और आपात काल को ध्वस्त कर दिया था। हालांकि कोई भी मूलभूत परिवर्तन करने में समर्थ नहीं हुए।

बिहार प्रदेश में, आंदोलन और परिवर्तन करने का इतिहास रहा है। यहां के विद्यार्थी, युवक और युवतियां, मज़दूर और किसान, मेहनतकश औरतें आधुनिक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से शिक्षित हैं।

पिछली कई विधान सभा के चुनाव में हमने संघवाद को हराया है। हमारी तैयारी अभी से शुरू हो चुकी है, अधिक से अधिक संख्या में जुड़कर इस मुहिम को तेज़ करें और सांप्रदायिक, तानाशाही ताकतों को ध्वस्त करें। अल्पसंख्यक और महिला विरोधी, विज्ञान विरोधी, जनता विरोधी ताकतों को ध्वस्त करें। बिहार में भाजपा, जेडीयु की सरकार को खारिज करें। यह अवसर है बिहार वासियों के लिए, फासीवाद को ध्वस्त करें और मार्ग दर्शन का काम करें पूरे देश के लिए।

एनआरसी, सीएए, एनपीआर को खारिज करो, विस्थापित मजदूरों को 100% रोज़गार मुहैया करो। अंध विश्वास फैलाना बंद करो। महिला सुरक्षा कानून पर अमल करो। जाति पर आधारित समीकरण खारिज करो।

Exit mobile version