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लुप्त हो रहे हैं त्रिपुरा के आदिवासी बच्चों द्वारा खेले गए ये 4 मज़ेदार खेल

पूर्वोत्तर भारत के त्रिपुरा में कई आदिवासी जनजातियां रहती हैं। ये विभिन्न आदिवासी जनजातियां अपने रहन-सहन, पारंपरिक खेल और रीति-रिवाज़ों का पालन करते हैं लेकिन ऐसे कई सारे बच्चे हैं, जो आज इन रीति-रिवाज़ों को भूल चुके हैं।

फोन और कम्प्यूटर की दुनिया में बच्चे अपने पुराने खेल भी भूल चुके हैं। ऐसे खेल, जो आज के समय में लुप्त हो रहे हैं, उनके बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए मैंने मेरे गाँव में लोगों से बात की।

बांस के साथ बल लगाना

बांस के साथ बल लगाते बच्चे। फोटो साभार- खुमिता

त्रिपुरा के सब समुदाय यह खेल खेलते हैं। मुझे यह खेल दिखाने के लिए इस खेल में शामिल हैं सीता देव वर्मा और पवन देव वर्मा।

इस खेल में दोनों बच्चे मैदान में बैठकर एक बांस के टुकड़े को खींचते हैं। जो भी बच्चा बल लगाकर उसे अपनी तरफ पहले खींच लेता है, वह ये खेल जीत जाता है।

बांस को धक्का देकर बल लगाना

बांस को धक्का देकर बल लगाते बच्चे।

इस खेल को कई सारे बच्चे मिलकर खेल सकते हैं। इस खेल में दो टीमें बनाई जाती हैं और एक बांस का लंबा टुकड़ा लिया जाता है। दोनों टीम बांस के एक-एक सिरे पर खड़े होकर अपने बल से बांस को धक्का देते हैं।

इस खेल का नियम यह है कि खिलाड़ी/खिलाड़ियों को अपनी जगह से धक्का देकर हटाना है। जो टीम पहले अपनी जगह से हिल जाती है, वह हार जाती है।

मुर्गा और मुर्गी की लड़ाई

मुर्गा और मुर्गी की लड़ाई।

इस खेल में दो प्रतिद्वंद्वी होते हैं, जो मुर्गा और मुर्गी की लड़ाई की नकल करते हैं। दोनों खिलाड़ी खड़े होकर अपने बाएं हाथ से बाईं टांग को पकड़ लेते हैं। फिर दाएं पैर पर उछल-उछलकर अपने प्रतिद्वंद्वी को कंधे से धक्का देकर गिराने की कोशिश करते हैं।

जो भी पहले अपना संतुलन खो देता है और गिर जाता है, उसकी हार होती है। इस खेल को 10 लोग मिलकर भी खेल सकते हैं।

लोगों के ऊपर से छलांग लगाकर खेलना

लोगों के ऊपर से छलांग लगाकर खेलना।

यह खेल गाँव में प्रतियोगिता के तौर पर खेला जाता है। इसके नियम बहुत आसान हैं। इसमें दो बच्चे ज़मीन पर बैठकर अपने पैरों से एक बाधा तैयार करते हैं। खिलाड़ियों का लक्ष्य कूदकर बाधा पार करना होता है। जैसे-जैसे खेल बढ़ता जाता है, बच्चे अपनी टांग और हाथ से बाधा ऊंचा करते जाते हैं। जो खिलाड़ी सबसे ऊंची बाधा पार कर पाता है, वह विजेता घोषित होता है।

प्रकृति से मिल-जुलकर, खुले आसमान के नीचे खेले जाने वाले खेल बार बार नहीं आते और ये लुप्त होते जा रहे हैं। ऐसे खेल खेलने का मज़ा ही कुछ और है। हमें इन खेलों को बचाकर रखना चाहिए और इनके बारे में अगली पीढ़ी को भी सिखाना चाहिए।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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