संसार की आदिवासी सभ्यताएं कमाल की हैं। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले आदिवासी आज भी दुनिया के छल, कपट से दूर हैं। बाज़ारवाद के तमाम छलावे से भरे हथकंडों के बावजूद आज भी उनका निश्छल भाव कायम है। मैं तो खुद को खुशकिस्मत समझता हूं कि मैंने झारखंड के एक अरण्य इलाके में जन्म लिया और दादा-दादी की कहानियां सुन कर बड़ा हुआ, जिनकी मिठास आज भी ज़हन में बरकरार है।
मैं आज भी उस पीड़ा को अंदर तक महसूस करने की कोशिश करता हूं, जिसने दशकों से झारखंड को रुलाया है। झारखंड की आदिवासी संस्कृति की अलग ही रवानी है। झारखंड की सभ्यता, संस्कृति, सामाजिक परिवेश और भाषा की अपनी एक अलग पहचान है, जिसके बारे में लिखते-लिखते शब्द कम पड़ जाएंगे।
मातृ सत्तात्मक रहा है आदिवासी समाज
कहते हैं कि एक तस्वीर हज़ारों शब्द बयां करने का माद्दा रखती है। मुझे भी लगा कि यह तस्वीर भी वही भाव बयां कर रही है। हालांकि रांची की सड़कों के लिए यह कोई नई तस्वीर नहीं है। ऐसी तस्वीरें आपको आम तौर पर दिख जाएंगी।
वैसे देखा जाए तो झारखंडी जीवन मातृ-सत्तात्मक रहा है। झारखंड सहित दुनिया के तमाम मुल्कों की आदिवासी महिलाएं अपनी उन्मुक्तता और धैर्य की पराकाष्ठा के लिए जानी जाती हैं।
इस समाज का जीवन इतना उन्मुक्त है जैसे किसी पक्षी के लिए विस्तृत आकाश
आज भी आदिवासियों की संस्कृति के कारण उनके जीवन में लय है, झरनों का गान है, नदियों का स्पंदन है। वहां आज भी पहाड़ गाते हैं, हवाएं गुनगुनाती है, पक्षी लोरीयां सुनाते हैं। दुनिया के संतुलन को बनाए रखने में दुनिया के तमाम हिस्सों में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोगों का अनमोल योगदान है लेकिन आज बढ़ते बाज़ारवाद ने इनकी संस्कृति पर भी असर डाला है। इसके बावजूद उनका नैसर्गिक जीवन आज भी बरकरार है।
मुनव्वर राना भी इस मां को देख सदके जाते। मुनव्वर साहब ने शायद कभी आदिवासी प्रदेशों की ओर रुख नहीं किया वरना मां पर लिखे उनके शेर भी इन मांओं की तस्वीरें देख ऐसे सदके जाते जैसे तपते मरुस्थल में प्यासे कंठ को दो घूंट पानी मिल जाए।
व्यवस्था के आगे बेबस आदिवासी महिलाएं
आज ग्रामीण गलियारों से निकल कर अपनी नैसर्गिकता छोड़ आदिवासी महिलाएं भी शहरी पुरुषों के साथ कदम ताल कर रही हैं। अगर सूबे के ग्रामीण अंचलों में शिक्षा का स्तर कालांतर से थोड़ा भी ऊंचा होता और सूबे में बनने वाली सरकारों ने उनके हित में चलाई जा रही योजनाओं में थोड़ी भी पारदर्शिता रखी होती, तो यह समुदाय भी अमेरिका के नीग्रो समाज की तरह झारखंडी डाकुओं की छाती पर चढ़ कर मूंग दल रहा होता, जिन्होंने उन्हें जी भर कर लूटा है।
झारखंड की आदिवासी महिलाएं बेबसी की मारी है। झारखंड के अधिकांश रेस्तरों, सरकारी एवं गैर सरकारी अस्पतालों, होटलों में पोंछा लगाती और प्लेट साफ करती महिलाएं आपको सहज ही दिख जाएंगी। भवन निर्माण के दौरान अपनी पीठ पर बच्चों को बांध कर काम करती बेबस महिलाएं, हाटों में या सड़क किनारे हड़िया बेचती औरतें भी आपको सहज ही दिख जाएंगी।
स्टेशन पर दो मुट्ठी दातुन और सखुआ के पत्ते बेचती आदिवासी महिलाओं की निरीहता तो आपको अंदर तक दहला देगी। सुबह-सुबह डोरंडा और हरमू रोड के किनारे सैकड़ों की झुंड में काम की तलाश में बैठी महिलाएं तो मानो ऐसी लगती हैं जैसे हमारे सभ्य समाज की बेदिली पर मुफलिसी की टीस लिए मंद-मंद मुस्कुरा रही हो।
राज्य निर्माण के दशकों बाद भी इनकी गुरबत नहीं मिट पाई है। ऐसे में यह सवाल तो उठना लाज़मी है कि आखिर राज्य सरकार की सारी योजनाएं ज़मीन पर गायब क्यों हैं। आखिर क्यों आदिवासी मांएं अपने बच्चों को पालने में चैन से सुलाकर काम पर नहीं जा सकती? इस समुदाय ने इतना कुछ दिया है हमें। हमने तो अपनी हसरतों की दुनिया सजा ली लेकिन इनके हिस्से में बस हमारी संगदिली ही आई।
मखमली बिस्तर पर मानो कोई फरिश्ता सोया हो
साईकल से जाती एक महिला को मैंने ओवरटेक करके रोका और उससे पूछा कि वह ऐसे बच्चे को ले कर कहां जा रही है, दुर्घटना हो सकती है। वह महिला पहले चौंकी, फिर मुस्कुराई और बोली कि उसे काम पर जाने में देर हो रही है।
मैं उससे बहुत कुछ पूछना चाहता था। तभी मेरी नज़र उसके कंधे पर सोए किसी फरिश्ते की तरह दिख रहे उसके बच्चे पर पड़ी। दोपहर की तेज़ धूप के बावजूद वह बच्चा अपनी मां की गोद में ऐसे चिपक कर सोया था, जैसे मानो वह दुनिया के सबसे सुरक्षित मखमली बिस्तर पर सो रहा हो।
ऐसा लग रहा था जैसे वह फरिश्ता भी शायद मां की तरह इस ज़ालिम दुनिया में जीना सीख चुका है। फिर कब वह महिला तेज़ पैडल मारती हुई मेरी नज़रों से ओझल हो गई, मुझे पता भी नहीं चला।