तीस की बेटी
अभिशाप होती है
परिवार और समाज में,
पिता के ख़्वाब में
डर के रूप में रहती है मौजूद
तीस की बेटी।
तीस की बेटी
पिता के लिए कब
टीस बन जाती है
जान नहीं पाते पिता।
टीस को दबाए
छुपाते रहते है उम्र बेटी की
मगर
हर कोई खोज ही लेता है
उम्र तीस की बेटी की।
पढ़ी-लिखी बेटी का
तीस की उम्र में
अविवाहित रहना
उसकी पढ़ाई-लिखाई,
योग्यता को
साबित कर देता है बेकार।
बेटी की ज़िंदगी,
शादी-ब्याह और बच्चे में जीता है
समाज।
पिता, घर, परिवार,
थोड़ा-सा खुद के और
बेटी के सपनों के बीच उलझे रहे।
इस बीच हो गई,
तीस की बेटी।
‘बेटी तीस की हो गई’
रिश्तेदारों, समाज, खुद घर के बीच के उठते
प्रश्नों का नहीं है जवाब,
इसलिए आँख बचा कर निकलते हैं
सबसे पिता, समझते है लोग इसे
उनकी शर्म।
अब
पिता ने छोड़ दिया निकलना घर से,
छोड़ दिया जाना गाँव,
सवालों के अंबार से
खुद को बचाते, छुपते पिता
हो गए नितांत एकांकी,
रातों में खुद से बातें करते,
कभी अकेले घूमते
पाये जाने लगे पिता।
हर ओर चर्चा
‘तीस की बेटी ?’
अब तक
रह रही है घर पिता के!
सब कुछ सुनकर भी
अनसुना करते,
भीतर-भीतर रिसते
चले जाते हैं पिता।
खुद से करते हुए बातें।
तीस की बेटी !
बेटी जिसके लिए
स्वभिमान है उसके पिता,
पिता और खुद के
सपनों में,
चुनाव करने में असमर्थ हो चली;
बिटिया, उम्र का तीसवां पड़ाव,
एक ओर सपनों को जीने के लिए लालायित करता है
तो दूसरी ओर
पिता के सर पर
बोझ बना दिए जाने से,
उन्हें मुक्त करने का,
भावबोध करता है उसे परेशान।
सोचती है, बेटी
काश ! उसका अपना घर,
अपना कमरा होता,
जहां ना होता अनिश्चताओं का बाज़ार;
जहां उसकी उम्र का
तीसवां पड़ाव,
उसके लिए बोझ नहीं
जीवन में नए अनुभवों के स्वागत का होता।
‘मगर यह सब ख्वाब!’
निःश्वास!
तीस की बेटी
समाज की आबो-हवा से रूबरू,
पिता की अनिश्चत चिंताएं;
नहीं कर सकती शांत;
बन गई टीस पिता की।
तीस की बेटी !