हाथरस गैंगरेप ने मीडिया से लेकर इस समाज का असल ब्राह्मणवादी चेहरा सबके सामने रख दिया है। हाथरस में हुए रेप ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। सड़क से लेकर सत्ता के गलियारों तक इसकी गूंज सुनाई दे रही है लेकिन ये गूंज गैंगरेप के 14 दिन बाद सुनाई क्यों दी?
14 सितम्बर को 19 साल की दलित लड़की से कथित ऊंची जाति के लड़कों ने गैंगरेप किया। वह अपनी ज़ुबान ना खोल पाए इसलिए उसकी ज़ुबान भी काट दी गई। इसके अलावा उसकी रीढ़ की हड्डी भी तोड़ी गई। आरोपियों की पहचान लड़की ने इशारों में की और बताया कि गाँव के ही रहने वाले संदीप, लवकुश, रामू और रवि ने उसके साथ हिंसा की है।
ये बातें पुलिस की रिपोर्ट में सामने आई हैं। इस पूरे मामले में पुलिस पर भी लापरवाही का आरोप लगा है। परिवार के परिजनों का यह भी कहना है कि पुलिस ने जल्दबाज़ी में सर्वाइवर की लाश को जला दिया और उन्हें घर भी नहीं ले जाने दिया गया। इसके अलावा उन्होंने कार्रवाई करने में देर की और मामला जब तूल पकड़ा तब वो एक्शन में आई। इससे लोग काफी गुस्से में हैं।
योगी सरकार अपराधियों पर लगाम लगाने में असफल है
सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक लोगों का गुस्सा देखा जा रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार में जिस तरह से महिलाओं पर होने वाली हिंसा और बलात्कार के मामले बढ़े हैं, उससे पता चलता कि किस तरह से सरकार अपराधियों पर लगाम लगाम लगाने में असफल रही है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, यूपी में प्रतिदिन 11 बलात्कार के मामले दर्ज़ होते हैं। इस केस में भी ऐसा ही देखा गया कि किस तरह से मीडिया चुप रहा और गुस्सा भी तब फूटा जब लोगों ने इस पर बात करनी शुरू की लेकिन इसके बावजूद मेनस्ट्रीम मीडिया इस पर सवाल करने से बच रही है। इसे जातिगत हिंसा बताने से कतरा रही है।
सवाल यह उठता है कि दलित महिला के साथ होने वाली हिंसा अलग कैसे है? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, भारत में हर दिन 4 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है। इसके अलावा उनके साथ की जाने वाली हिंसा के मामले भी देखने को मिलते है।
कम है जाति आधारित अपराध की सज़ा दर
समाज में जाति और लिंग असमानता को बनाए रखने के लिए कथित निम्न जाति की महिलाओं पर हिंसा को अक्सर वर्चस्व के साधन में रूप में इस्तेमाल किया जाता है लेकिन इन आंकड़ों से भी ज़्यादा भयानक यह है कि इस जाति आधारित अपराध की सज़ा की दर भी कम है।
एक शोध के अनुसार, दलित महिलाओं के बलात्कार की सज़ा की दर 2 प्रतिशत के बराबर है जबकि बलात्कार के मामलों की औसत सज़ा दर 25 प्रतिशत है।
इसका एक और कारण भी है कि दलित महिलाओं और उनके परिवारों के पास आर्थिक स्त्रोत नहीं होता है, जिससे वे कानूनी लड़ाई आसानी से लड़ सके। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से लड़कर ही हम महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को रोक सकते हैं।
हर नारीवादी आंदोलन के लिए इस व्यवस्था से लड़ना ज़रूरी होना चाहिए। यह व्यवस्था उच्च और निम्न दोनों जाति की महिलाओं पर अत्याचार करती है लेकिन यह दलित या हाशिए के समुदायों की महिलाओं के लिए बदतर है, क्योंकि उनके अधीनस्थ जाति और लिंग के आधार पर उनके साथ दोहरा भेदभाव किया जाता है।
ब्लैक लाइव्स मैटर से जुड़े आंदोलन पर भारत का हर व्यक्ति समर्थन कर रहा था लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जाति से जुड़ी हिंसा पर मौन धारण कर लिया जाता है? भारतीय समाज में जाति भेद के कारण क्रूर से भी क्रूर हिंसा को राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं बनाया जा रहा है?
जो प्रधानमंत्री वाल्मीकि समाज के पैर धोते हैं, वो जाति के विनाश की बात कब करेंगे? ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का मकसद ब्राह्मण समुदाय के खिलाफ कोई आंदोलन खड़ा करना नहीं है, बल्कि यह ब्राह्मण ग्रंथों में पितृसत्ता को इंगित करता है जो महिलाओं पर उनके लिंग और जाति के आधार पर हावी है। मीडिया से लेकर समाज का हर तबका इस व्यवस्था में जकड़ा हुआ है। जब तक हम इस व्यवस्था को ध्वस्त नहीं करेंगे तब तक कोई समानता नहीं होगी।