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काँग्रेस अपने सीनियर नेताओं को बीजेपी की तरह मार्गदर्शक मंडल में भेजने से क्यों कतराती है?

ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोड़ने के साथ ही यह सवाल उठना लाज़मी है आखिर क्यों देश की सबसे पुरानी पार्टी और जिसका नेतृत्व राहुल गाँधी जैसे युवा के हाथ में है, उसी पार्टी के युवा उनसे दूर होते जा रहे हैं?

आखिर क्या कारण है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा पिछले कुछ सालों में जगतमोहन रेड्डी और हेमंत विश्वा शर्मा, जो पूर्वोत्तर के एक कद्दावर नेता थे, पार्टी छोड़नी पड़ी?

वही पार्टी ने राजस्थान और मध्यप्रदेश में जिन युवा चेहरों के नाम पर चुनाव लड़ा, उन्हें चुनाव जीतने के बाद नज़रअंदाज़ किया गया, क्या कारण है कि पिछले कुछ सालों में पार्टी के कई कद्दावर नेताओं ने पार्टी को अलविदा कहा?

काँग्रेस का खोखला होता वजूद

जिस काँग्रेस पार्टी का आज़ादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा, जो नेहरू-गाँधी की पार्टी कही जाती है, जिसकी अध्यक्षा कभी इंदिरा गाँधी जैसी मज़बूत महिला नेता रही हो, आज वही काँग्रेस नेतृत्व विहीन होकर भारतीय राजनीति के हाशिये पर जा रही है।

क्या कारण है कि आज काँग्रेस अपने उन नेताओं को खो रही है, जो कभी पार्टी के कद्दावर नेताओं में गिने जाते थे और जिनकी पार्टी छोड़ने की उम्मीद राजनीतिक पंडितों ने भी नहीं की थी। काँग्रेस, जिसने देश को 8 प्रधानमंत्री दिए और लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली पार्टी, पिछले 10 महीनों में अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष भी नहीं चुन पा रही है।

इसके कारण राज्यों में काँग्रेस संगठन की स्थिति गुटबाज़ी से जूझ रही है, जिससे पार्टी के ही नेता, विधायक और सांसद अपनी ही पार्टी और पार्टी के नेताओं के खिलाफ बोल रहे हैं। काँग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी अपने सारे फैसले पार्टी के सीनियर लीडर्स की सलाह पर ही ले रही हैं, जिससे पार्टी में युवा नेताओं और योग्य उम्मीदवार की अपेक्षा गुटबाज़ी को महत्व दिया जा रहा है।

इससे पार्टी संगठन के महत्वपूर्ण पदों की नियुक्ति में भी गुटबाज़ी देखने को मिलती है, जिसे ना सोनिया गाँधी और ना ही राहुल गाँधी रोक पाते हैं और यही गुटबाज़ी तथा शीर्ष नेतृत्व की कमज़ोरी पार्टी की राज्यों में हार का प्रमुख कारण है।

जब राहुल गाँधी पार्टी के अध्यक्ष थे, तब भी सिंधिया और सचिन पायलट, जो कि मीडिया और जनता के सीएम फेस होने के साथ भी राहुल गाँधी की पसंद भी थे फिर भी सोनिया गाँधी और उनके करीबियों की दखलंदाज़ी से दोनों की जगह कमलनाथ और अशोक गहलोत को मध्यप्रदेश और राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाया गया।

रणनीति में बदलाव लाने की ज़रूरत

वहीं, इन सीनियर लीडर्स को महत्वपूर्ण पद दिए जाने के पीछे काँग्रेस का तर्क है कि इनके पास अनुभव है और ये राज्य की राजनीतिक परिस्थितियों में किसी भी स्थिति में पार्टी के अंदर संतुलन बनाए रखेंगे और युवा नेताओं के पास भविष्य में अनेक मौके है मगर पार्टी में इसके विपरीत युवा नेतृत्व की उपेक्षा पार्टी के लिए नुकसानदेह रही और पार्टी का युवा वर्ग लगातार उससे दूर होता चला गया।

अगर हम इन सब से अलग काँग्रेस और बीजेपी में युवा, सीनियर लीडर्स या मुख्यमंत्रियों की तुलना करें, तो दोनों पार्टियों की रणनीति बिल्कुल अलग है। जहां काँग्रेस सीनियर लीडर और अनुभव को मौका देने में भरोसा रखती है, तो बीजेपी हमेशा कुछ नया करने और परम्परागत राजनीति से हटकर कुछ अलग करने में भरोसा रखते हैं। 

अनुभवी नेता बनाम युवा नेता

बीजेपी ने पार्टी में 75 उम्र से अधिक उम्र के नेताओं को धीरे-धीरे चुनावों से दूर किया फिर चाहे वो पार्टी के संस्थापक सदस्य आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता ही क्यों ना हैं। वहीं, अगर हम 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद हुए राज्य विधानसभा चुनावों में मिली जीत पर ही देखें तो महाराष्ट्र में जीत के बाद पहली बार इतनी अधिक सीटें मिलने के बाद भी नितिन गडकरी जैसे सीनियर नेता की बजाय एक गैर मराठी युवा नेता देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया।

इसी तरह हरियाणा में पहली बार पूर्ण बहुमत आने पर भी गैरजाट मनोहर लाल खट्टर, झारखंड में एक गैर आदिवासी रघुवर दास को बनाया और इन सबसे बड़ा जोखिम मोदी-शाह ने उत्तरप्रदेश में कई सीनियर और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार नेताओं की बजाय एक कट्टर हिंदूवादी युवा नेता योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया और लगभग हर राज्य में इन मुख्यमंत्रियों ने एक अच्छी सरकार दी।

वहीं, हम लोकसभा चुनाव में भी देखें तो पार्टी ने दक्षिण बैंगलोर सीट पर काँग्रेस के दिग्गज नेता के सामने तेजस्वी सूर्या जैसे एक सबसे कम उम्र के युवा नेता को उतारा। जबकि पहले यह सीट भाजपा के दिग्गज नेता अनन्त कुमार के पास थी और उनके निधन के बाद इस सीट पर उनकी पत्नी टिकट का दावा कर रही थीं।

इस तरह भाजपा ने अपने युवा नेतृत्व और कार्यकर्ताओं को यह विश्वास दिलाया कि वे भी पार्टी में आगे बढ़ सकते हैं और महत्त्वपूर्ण पदों पर पहुंच सकते हैं। इसका फायदा भी भाजपा को मिला। अधिक से अधिक युवा वर्ग 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी से जुड़े। इससे उन्हें चुनावों में पार्टी को बूथ स्तर से सोशल मीडिया तक मज़बूती मिली।

इसके विपरीत काँग्रेस ने लोकसभा चुनावों में टिकट वितरण से लेकर राज्यों में मुख्यमंत्री तक सीनियरिटी और गुटबाज़ी को महत्व दिया, जिसका ही परिणाम है कि आज पार्टी और राहुल गाँधी के सबसे भरोसेमंद युवा साथी ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता पार्टी को अलविदा कह रहे हैं।

काँग्रेस को अपनी रणनीति में बदलाव की शीध्र आवश्यकता है

काँग्रेस को अपनी पार्टी की स्थिति को हाशिये पर जाने से रोकने और उसे मज़बूत बनाने के लिए सबसे पहले तो अपने राष्ट्रीय नेतृत्व को मज़बूत करना होगा और राहुल गाँधी को अपनी ज़िम्मेदारी लेनी होगी।

वहीं, पार्टी दिग्विजय सिंह, सिद्धारमैया और मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे नेताओं को मार्गदर्शन मंडल में लेकर सचिन पायलट, मिलिंद देबड़ा, कुलदीप बिश्नोई, दीपेंद्र हुंडा जैसे युवा नेताओं को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी देकर युवा नेतृत्व को आगे किया करे तभी पार्टी चुनावों के साथ-साथ संगठन और अपने कार्यकर्ताओं के जोश के साथ अच्छा प्रदर्शन कर पाएगी ।

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