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गृह विज्ञान और कला जैसे विषयों को हमने महिलाओं वाले सब्जेक्ट का नाम कियों दे दिया है?

महिला, युवती या लड़की जैसे ही ये नाम हम सुनते हैं, हमारे मन में जो पहली तस्वीर उभरकर आती है, वो यह कि ये घरेलू कार्यों को करने के लिए बनी हैं। अधिकांशतः ये धारणां सिर्फ पुरुषों में ही नहीं, बल्कि महिलाओं में भी होती है।

बहुत सारी महिलाएं या उनके अभिभावक अकसर महिलाओं के परम्परागत कार्य से हटकर कोई अन्य कार्य करने की बात करने के नाम पर ना-नुकुर ही करते हैं। वे कहते रहते हैं कि यह सब बेटों के काम हैं। अगर कोई लड़की बाइक चलाए या फिर बल्ला लेकर मैदान में भांजे तो पुरुषवादी सोच के ठेकेदार टिप्पणियां करने से बाज़ नहीं आते हैं।

शिक्षा में महिलाओं के लिए विषय क्यों निर्धारित किए गए?

ऐसे क्षेत्र, जिसे हम पुरुषवादी मानते हैं, उसे कुछ देर के लिए छोड़ देते हैं। उदाहरण शिक्षा, जी आपको पढ़ाई के क्षेत्र लिए चलते हैं, जहां आश्चर्यजनक रूप से आप पाएंगे कि कुछ विषय अघोषित रूप से महिलाओं के लिए तो कुछ विषय पुरुषों के लिए होना मान लिया गया है।

मसलन गृह विज्ञान, हिंदी, कला जैसे विषयों को अधिकांशतः महिलाओं को चुनते देखा जाता है। जबकि गणित, विज्ञान जैसे विषयों को इसलिए उनसे दूर कर दिया जाता है, क्योंकि पूर्वाग्रह से ऐसा मान लिया गया है कि उनकी क्षमता इन विषयों को पढ़ने के स्तर की नहीं होती है।

भले ही आजतक कोई वैज्ञानिक शोध से ना सिद्ध कर पाया हो कि महिलाओं का बौद्धिक स्तर पुरुषों से कम होता है फिर भी उन्हें पूर्वाग्रह से ग्रसित एक ढांचे में ढाल दिया गया है। यही हाल कमोबेश हर क्षेत्र में है। यद्यपि पहले की तुलना में स्थिति में सुधार हुआ है लेकिन यह सुधार नगण्य के बराबर ही है।

हाल ही में मिले दो महिलाओं को नोबेल पुरस्कार बहुत सारी महिलाओं के लिए आत्मजागृति का बड़ा कारण बन सकता है। यद्यपि नोबेल के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं है। अभी तक इस क्षेत्र में इनकी भागीदारी 3.29 प्रतिशत ही है। फिर भी मैरी क्यूरी के 1903 में नोबेल जीतने के बाद से महिलाओं ने विज्ञान के क्षेत्र में लंबा सफर तय किया है। इस बार दो महिला वैज्ञानिक इमैनुएल शारपेंतिए और जेनिफर डाउड़ना को रसायन विज्ञान में नोबेल का पुरस्कार मिला, जो इस क्षेत्र में एक और मील के पत्थर का जुड़ना जैसा ही है।

भारत में महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष लाने के प्रयास

भारत में विभिन्न तरीकों से महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष लाने के बहुत सारे प्रयास किए जाने से कुछ लोगों की सोच का दायरा बदला है। यहां महिलाएं यान उड़ाने से लेकर अब सेना में भी सेवा देने के लिए तैयार हैं। इस समय नारी शक्ति और सम्मान के पर्व नवरात्रि के अवसर पर उत्तर प्रदेश में चल रहे ‘मिशन शक्ति कार्यक्रम’ के माध्यम से भी उन्हें जागरुक करने के साथ आत्मबल पैदा करने के प्रयास हो रहे हैं।

इस कार्यक्रम के तहत अलग-अलग दिनों पर उन्हें अलग-अलग विषयों, मसलन घरेलू हिंसा से बचने, लैंगिक समानता, स्वास्थ्य एवं स्त्री के सशक्तिकरण के लिए बने कानूनों आदि के विषय में बताया जा रहा है। ये सब कार्यक्रम हो सकता है उन्हें जागरूक कर जाएं लेकिन वास्तविक रूप से स्त्री सशक्तिकरण तभी होगा जब हम अपनी सोच को बदलेंगे।

आज भी हमारा समाज पुरुष की सर्वोच्चता स्वीकार करता है। इसको मैं एक उदाहरण से बताना चाहूंगा। अगर हम कमरे के अंदर दरवाज़ा बंद कर के बैठें और बाहर से कोई दरवाज़ा खटखटाए तो हम लगभग हर बार यही कहेंगे, “देखो दरवाज़े पर कौन खड़ा है?”

हम कभी यह नहीं कहते, “देखो दरवाज़े पर कौन खड़ी है?” वास्तव में यही “खड़ा है और खड़ी है” का अंतर हमारे पूर्वाग्रह को सूचित करता है। इस पूर्वग्रसित सोच से मुक्त होना महिला सशक्तिकरण की दिशा में बड़ा कदम होगा। इस रूढ़िवादी सोच से मुक्त हुए बिना महिला और पुरुष समानता की बात करना बेमानी सा प्रतीत होता है।

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