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उच्च शिक्षा में आखिर क्यों कम है SC-ST स्टूडेंट्स का नामांकन दर?

देश में जिस समय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विकास के लिए ब्रिटिश शासन के बाद देश के संविधान का निर्माण हुआ था, तब विकास से संबंधित कई तरह के नियम व कानून बने थे। सच कहूं तो “इंसानियत का दस्तावेज़” बना था।

जिसके हर नियम और कानून में समानता और एकता थी, जो शायद पूर्ण रूप से लागू होता तो हमारे देश में आज असमानता की आग ना लगी होती। आग की लपटें इतनी ऊंची हैं जिसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश में आज ना तो समानता है और ना ही एकता।

इंसानियत तो कब का दम तोड़ चुकी है, देश जल रहा है। देश का भविष्य ठोकरें खा रहा है, वहीं सियासत अपने स्वार्थ के नशे में चूर हो रखी है। दलितों या अल्पसंख्यक समुदाय के लोग आज कल यही महसूस कर रहे हैं कि हम जाति से ऊपर क्यों नहीं उठ पा रहे हैं? जाति की वजह से-

●शिक्षा के क्षेत्र में भेदभाव
● सामाजिक भेदभाव
● सम्मान के लिए लड़ाई और
●रोज़गार के क्षेत्र में भेदभाव।

अनुसूचित जाति और जनजाति के उद्धार के लिए संवैधानिक पृष्ठभूमि

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-46 के अंतर्गत राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के विशिष्टतया अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधित हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से उसकी संरक्षा करेगा।

क्या इन बातों में से कोई भी ऐसा शब्द है, जो आज कहीं पर लागू किया जा रहा हो? कहीं से भी आज के समय में यह बात सार्थक नज़र नहीं आती है। आज बात के विषय की ओर ध्यान दें तो केवल दलितों के विषय में बात करते हैं। संविधान जितना इनके पक्ष में था, समाज उतना ही इनके विपक्ष में।

समाज और दलित समुदाय

समाज में जातिवाद का असर पूरी तरह से फैल चुका है। शिक्षा के क्षेत्र में अगर देखा जाए तो अक्सर हमारे कानों में यह बात ज़रूर पड़ती है। एससी या एसटी हो? जवाब में अगर हां सुनने को मिल जाए तो तो ऐसा लगता है जैसे पूछने वाले को ज़ोर का तड़का लगा हो। बहरहाल! फिर जवाब आता है।

ओह! रिज़र्वेशन से तो अच्छे कॉलेज में एडमिशन मिल जाएगा। यहां हम 90% लाकर भी धक्के खा रहे हैं और रिज़र्वेशन वालों को 50% में ही निबटा दिया जाता है।

आखिर यह कुंठा और फ्रस्ट्रेशन किस लिए?

जनरल कैटेगरी के बच्चों से अगर बात करो तो उनकी त्यौरियां चढ़ जाती हैं। ऐसा लगता है उनसे उनका अधिकार छीन लिया गया है। वे विवश महसूस करते हैं। यह अवधारणा पहले मैट्रिक की पढ़ाई से पहले कभी नहीं देखी गई थी मगर जब से सीबीएसई ने परीक्षा की फीस बढ़ाई है, तब से छोटी कक्षा के बच्चों में भी यही भेदभाव देखने को मिल रहे हैं।

तमन्ना कुमारी, जो दसवीं कक्षा में हैं और जनरल कैटेगरी से आती हैं। (मेरी तरफ से जनरल कैटेगरी बटी नही है, सरकार ने जो दायरा बनाया है उसकी जनरल कैटेगरी) उनका कहना है, “हमसे तो 1800 रुपये लिए और इन एससी और एसटी वालों से 1500 रुपये, मुझे तो बहुत बुरा लगा।” इनके लिए नफरत और संशय मात्र 300 रुपयों के लिए था।

शिक्षा और दलित विद्यार्थी

लोगों का कहना है कि रिज़र्वेशन खत्म होना चाहिए और सबको एक समान माना जाना चाहिए। समानता की बात करने वाले इस बात में पीछे क्यों हट जाते हैं? तो ऐसे सवालों के जवाब देने के लिए कुछ पुख्ता वजह मेरे पास हैं।

दो बच्चों के लिए सर्वें करते हैं। एक बच्चा बहुत ही अच्छे घर-परिवार से ब्राह्मणवादी विचारधारा का एक जीता-जागता सुबूत और एक बच्चा है जिसके माता-पिता को हरिजन कहकर बुलाया जाता है। अच्छी तनख्वाह तो छोड़ो, इनको नौकरी भी ऐसी दी जाती है, जिनसे समाज ‘घिन’ करता है। उनके कामों को देखकर लोग ‘छी’ करते हैं। ऐसे में माता-पिता सोचते हैं कि हम अच्छी तरह पढ़ाई नहीं कर पाएं, चलो बच्चे तो पढ़ लें।

इसके बाद जब उनको विद्यालय में पढ़ाया जाता है, तो वहां भी उनके साथ भेदभाव शुरू। लोगों ने काम को बांटकर वर्ण और जातियां बना डालीं। मतलब जो पिछड़ा हुआ निम्नवर्गीय, शोषित वर्ग है उसको और पीछे की ओर धकेलने के लिए हमारे समाज ने उनको “शुद्र” की उपाधि दे डाली। अब जब उनको आगे बढ़ाने के लिए हमारा संविधान अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाता है, तो वहां बात समझ आती है कि पिछड़े हुए समुदाय के लोगों को आगे बढ़ने का मौका क्यों दिया जाना चाहिए।

समाज पिछड़े हुए समाज को और भी पीछे छोड़ने पर उतारू है

एक सवाल सभी से कि क्या हमारे देश के हालात बदले हैं या नहीं? कुछ हठधर्मी लोग बोलते हैं ज़मीन-आसमान का फर्क आया है। हां! आया है बदलाव मगर शायद यह बदलाव सिर्फ महिलाओं, सैनिकों, पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद के इर्द-गिर्द ही है।

इन सबके लिए लोग जागरुक ज़रूए हुए हैं मगर बात जब दलित समुदाय की आती है, तो आज भी लोग चुप्पी साध लेते हैं। जिस समय संविधान बना, उस समय भारत में सिर्फ ब्राह्मण लोगों को शिक्षा का हक था। तो क्या आज सब बदल गया? नहीं! सब कुछ नहीं बदला है। आज भी दलित समुदाय के लिए शिक्षा हासिल करना बहुत टेढ़ी खीर साबित होती है।

पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप और दलित

रिज़र्वेशन के आधार पर दलित समुदाय को आज भी ज़्यादातर लोग अपनी कुंठा का शिकार बनाते हैं। ‘A’ ग्रेड की जॉब पर सिर्फ ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण को नौकरी दी जाती है। आज़ादी से पहले भी ऐसा था। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए काम का एक दायरा बांध दिया गया। इनके लिए जानवरों की खाल खींचना, सड़क पर साफ-सफाई, या नालियों को साफ करने तक ही सीमित रखा जाता है। समाज चाहता ही नहीं कि इस कॉमों को आगे बढ़ने दिया जाए।

जैसे-तैसे कर के इस समुदाय के स्टूडेंट्स दसवीं कक्षा पास कर लेते हैं। उसके बाद बच्चे स्कॉलरशिप पर ही डिपेंड रहते हैं। इनके माँ-बाप को तो आपने सड़कों पर छोड़ दिया। इनको कौन शिक्षित करे? इनके लिए झाड़ू या सड़क के किनारे लगा हुआ कूड़े का ढेर? आपके लिए व्हाइट कॉलर जॉब और लंबी सी कुर्सी साथ में एक बड़ा रूम? इसके बाद भी आप आरक्षण को गलत बताते हैं।

फिलहाल पंजाब में दलित समुदाय के लोगों ने भी पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप की धांधली सामने आने पर अपना गुस्सा व्यक्त किया है। सरकार द्वारा 303 करोड़ रुपयों का भुगतान किया जाना था। जब फंड हाथ में आया तो 248 करोड़ का ही हिसाब सामने आया। तो 39 करोड़ रुपये का कहां गबन किया गया?

हायर एजुकेशन और दलित समुदाय

आइए एक नज़र आंकड़ों की ओर डालते हैं। ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (AISHE) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले सात सालों में उच्च शिक्षा में एससी और एसटी स्टूडेंट्स का नामांकन दर 22.5 प्रतिशत (आवंटित कोटा) भी पूर्ण नहीं हुआ।

आंकड़ों से पता चलता है कि साल 2011 और 2018 के बीच अनुसूचित जाति के स्टूडेंट्स के लिए औसत नामांकन दर 13.45 प्रतिशत था। जबकि यह अनुसूचित जनजाति के स्टूडेंट्स के लिए 4.8 प्रतिशत था। वहीं, संवैधानिक रूप से अनिवार्य कोटा 15 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत था।

आंकड़े बता रहे हैं कि इस समय देश में दलित स्टूडेंट्स की कितनी विचारशील समस्या चल रही है। उसके बाद भी आप बोलते हैं कि आरक्षण खत्म हो। किसी छोटी सी चीज़ को भी निखारने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। यहां तो बात फिर भी सिस्टम की हो रही है।

1947 से लेकर 2020 तक के अखबार उठाकर देखिए आज भी इनके शोषण का वही हाल है जो ब्रिटिश शासन के अधीन था। एक बार पीछे मुड़कर देखते हैं और वक्त से पूछते हैं कि क्या बाबा साहब का भारत ऐसा ही था?


संदर्भ- द प्रिंस, इंडियन एक्सप्रेस

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