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क्या पत्रकारों का काम अफवाह फैलाना है?

“मोर न्यूज़ इज़ गुड न्यूज़” लेकिन यह कथनी अब बदल चुकी है। अब ज़्यादा के साथ-साथ खबरों का सनसनीखेज़ और भड़काऊ होना भी ज़रूरी हो गया है। सबके लिए नहीं लेकिन ज़्यादातर लोगों और न्यूज़ चैनल्स या खबर से जुड़ी दूसरी संस्थाओं के लिए।

मतलब, वह ज़माना और था जब ज़्यादा खबरें अच्छी मानी जाती थीं। आज भी मानी जाती होंगी लेकिन वैसी पत्रकारिता उंगलियों पर गिनी जा सकती है। युवाल नोआह हरारी अपनी किताब में लिखते हैं, “पत्रकारों का काम अफवाह फैलाना होता है।”

पहले तो इसे पढ़कर मैं चौंका फिर दोबारा पढ़ा। बात वही थी, आगे पढ़ा वहां लिखा था, “पत्रकारों को अफवाह फैलाना चाहिए ताकि सच्चाई बाहर आ सके।” आगे बढ़ने के बाद पता चला उन्होंने ये बातें आज के संदर्भ में नहीं, बल्कि आदिकाल या पुराने ज़माने के लिए कही थीं। तब वाकई पत्रकारिता हुआ करती होगी।

आज के संदर्भ में भी ये बातें सही हो सकती हैं मगर हमारी मानसिक योग्यता, सोचने-समझने की क्षमता अपने निचले स्तर पर है, जहां हम अपनी तार्किक शक्तियों का इस्तेमाल सिर्फ दंगे, दूसरों को गाली देने और नीचा दिखाने के लिए करते हैं।

यूं कहें कुतर्कों के इस दौर में तर्क चैन की नींद सो रहा है। अफवाह आज भी फैलाई जाती है लेकिन सच्चाई दबाने के लिए, किसी के चरित्र का हरण करने के लिए, किसी बेकुसूर को कटघरे में खड़ा करने के लिए, किसी जात, बिरादरी, मज़हब और इलाके को बंदनाम करने के लिए, किसी सियासी जमात को फायदा पहुंचाने के लिए, अपने एजेंडे और प्रोपेगेंडा को फैलाने के लिए। संक्षिप्त में कहें तो अपना हित साधने के लिए।

अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को दिल्ली के तब्लीगी जमात मामले में खरी-खोटी सुनाई। उससे पहले बॉम्बे हाई कोर्ट ने मीडिया संस्थानों को खरी खोटी सुनाई थी, इसी बीच सुदर्शन न्यूज़ के बेहद आपत्तिजनक प्रोग्राम “बिंदास बोल” के एपिसोडस पर पाबंदी भी लगाई गई। इन सब में एक बात कॉमन थी कि सबकी मंशा अफवाह के ज़रिये किसी जात-धर्म के खिलाफ नफरत और पूर्वाग्रह को हवा देने की थी।

टारगेट किसे किया जाता है?

ऐसा नहीं है कि टारगेट सिर्फ इलाका, ज़बान, मज़हब या जात के नाम पर ही किया जाता है, बल्कि अब टारगेट उस समय ज़्यादा किया जाता है जब कोई दूसरे पक्ष की बातों को मानने से इंकार कर देता है, उनसे सवाल पूछता है।

मैंने देखा है जितनी कम जानकारी, कॉन्फिडेंस लेवल उतना ज़्यादा हाई रहता है। कोई दिक्कत नहीं है लेकिन कंगारू कोर्ट के जैसे चलने वाले इन सो कॉल्ड मीडिया ट्रायल से कितनी मासूम ज़िंदगियां बर्बाद हो जाती हैं। कानून और कोर्ट की नज़र में इंसाफ तक पहुंचने से पहले वे अपना सब कुछ खो चुके होते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एस ए बोबड़े ने भी तीखे शब्दों में कहा, “हाल के दिनों में बोलने की आज़ादी का बहुत दुरुपयोग और हनन किया गया है।”

चीफ जस्टिस की तरफ से की गई यह टिप्पणी काफी देर से आई है मगर सही आई है। हमें इसको मीडिया के TRP गेम के संदर्भ में भी देखना चाहिए। आखिर देश की जनता क्या देखना चाहती है और क्या नहीं, वह फैसला जनता का खुद का होना चाहिए ना कि सरकार और मीडिया संस्थानों का।

पिछले दिनों सरकार ने लोगों के खाने से लेकर पहनने तक पर टिप्पणी की या कहें कि सीधे तौर पर कंट्रोल करने की कोशिश की और अब भी कर रही है।

मुंबई टीआरपी मामले को अगर देखें तो सीधे तौर पर यह पैसों का खेल नज़र आता है लेकिन इसके दूसरे पहलू को भी देखने की ज़रूरत है। पैसों से ज़्यादा यह लोगों के दिमाग से खेलने का गेम भी हो सकता है। ऐसा गेम जिसमें सरकार या मीडिया दोनों आपके देखने पर कंट्रोल करना चाहती है। वह चाहती है कि आप वही देखें जो दिखाया जा रहा है।

इन सबके परे अभी कुछ भी कहना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी

क्योंकि पूर्व में भी सरकारें, सरकारी संगठनों और बड़े पद पर बैठे लोगों का गलत इस्तेमाल करती रही हैं। बावजूद इसके परमबीर सिंह के दावों ने मीडिया जगत की एक बेहद भद्दी और डरावनी सच्चाई को हमारे सामने लाकर रख दिया है। हो सकता है यह मामला मीडिया के ध्यान को भटकाने के लिए भी किया गया हो। सरकार एक साथ कई दिक्कतों से जूझ रही है। किसानों का विरोध, हाथरस मामला, गिरती जीडीपी, आसमान छूती बेरोज़गारी, चीन की आक्रामकता और इसी बीच बिहार चुनाव भी है।

इस मामले के बाद यह तो तय है कि मीडिया कुछ दिनों तक इसमें उलझी रहेगी और बाकी मसलों पर शायद थोड़ी शांति दिखे। वहीं, हाथरस मामले में भी केरल के चार पत्रकारों पर UAPA लगाकर उन्हें 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है। उसके पीछे का कारण उनका राज्य या उनका नाम हो सकता है, हो सकता है उन पत्रकारों पर लगे आरोप सिद्ध भी कर दिए जाएं।

बहरहाल, सवाल अब भी वही हैं, क्या हाथरस मामले में राज्य सरकार ने गलती नहीं की? क्या राज्य सरकार ने गैर संवैधानिक और गैर इंसानियत वाला काम नहीं किया है? क्या सरकार और स्थानीय प्रशासन पर सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए? अगर प्रदेश में लॉ एंड ऑर्डर की स्थिति चरमराती है, तो उसके लिए सरकार को कठघरे में खड़ा नहीं किया जाना चाहिए? क्या सरकार से सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए?

78 हज़ार करोड़ से ज़्यादा की इस टीवी इंडस्ट्री में टीआरपी सबसे बड़ा रोल प्लेयर है। टीआरपी के साथ छेड़-छाड़ करके कोई भी मार्केट का बादशाह बन सकता है। रिपब्लिक टीवी के आने से पहले तक या यह कहें कि सुशांत सिंह राजपूत की मौत से पहले तक इस खेल का अकेला बादशाह इंडिया टुडे ग्रुप ही था। ABP ग्रुप और न्यूज़ 18 भी बीच-बीच में अपनी उपस्थित दर्ज़ कराया करते हैं लेकिन वह यदाकदा ही संभव हो पाता था।

जितना ज़्यादा टीआरपी, उतना ज़्यादा इश्तेहार और जितना ज़्यादा इश्तहार, उतनी ज़्यादा कमाई! साथ में लोगों के दिमाग पर कंट्रोल। उल्लेखनीय यह भी है कि TRP मानक देशभर में सिर्फ 45 से 50 हज़ार घरों में ही लगाया गया और उससे ही पूरे देश में टीवी देखने वालों का अनुपात निकाला जाता है> अगर देखा जाए तो यह भी एक प्रकार का घोटाला ही है।

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