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हमारी प्रतिरोध की आवाज़ों से सरकार के अंदर घबराहट क्यों होती है?

Farmers' Protest.

हमारे समाज ने हमारे दिमाग में यह बात ठूंस ठूंसकर बिठा दी है कि जब हर तरफ अंधेरा हो तो सन्‍नाटे से समझोता कर लेना चाहिए।

लेकिन हम क्‍यों करें खुद से समझौता?

किसी भी देश या राज्‍य की सरकारें जब नागरिकों के अधिकारों और उनके विरोधों को दबाने की कोशिश करती है, तो यह समझौते वाली स्थिति उभरकर सामने आती है लेकिन यह समझौता नाइंसाफी वाला होता है, क्‍योंकि इस समझौते में नागरिकों को केवल अपने आपसे समझौता करना पड़ता है, ना कि सरकार के साथ और यहां आकर समझौता की परिभाषा पूरी तरह से बदल जाती है।

प्रतिकात्‍मक तस्वीर।

जैसे कि अगर आप सरकार की किसी भी नीति के खिलाफ बोलते हैं या एक सच्‍चे नागरिक होने के नाते विरोध प्रदर्शनों के माध्‍यम से लोकतंत्र में अपनी भागीदारी निभाने की कोशिश करते हैं, तब यदि सरकारें आपको डरा-धमकाकर शांत करने की कोशिश करती है तो उस परिस्थिति में आपको खुद से ही समझौता करना पड़ जाता है।

ऐसा इसलिए क्‍योंकि उस समय आपके दिल और दिमाग में इतना डर भर दिया जाता है कि आपको अपना और परिवार का भविष्‍य संकट में दिखाई देने लग जाता है और आप शांत होकर बैठ जाते हैं।

अंतत: इसका परिणाम यही होता है कि सरकारों की मनमर्ज़ियां खुलेआम चलती रहती हैं और हम चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते हैं, केवल एक मूकदर्शक की भांति सब कुछ देखते रहते हैं लेकिन इस समझौते में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है देश का बिकाऊ मीडिया।

असल में लोकतंत्र में अपनी भूमिका निभाने के लिए देश के नागरिक कई तरीकों से लोकतंत्र में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते हैं। जैसे कि विरोध प्रदर्शनों के माध्‍यम से, मीडिया के माध्‍यम से, रैली इत्‍यादि निकालकर लेकिन जब सरकारें लोगों की बात सुनने के मूड में नहीं होती हैं, तो सबसे पहले मीडिया को अपने वश में करने की कोशिश की जाती है ताकि लोगों का विरोध देश के अन्‍य लोगों को पता ना चल सके।

यह काम पूरा होते ही सरकार का विरोध कर रहे लोगों को काबू करना, सरकार के लिए बहुत ही आसान काम हो जाता है और वह अपने बेकाबू  घोड़े जैसे कि पुलिस, प्रशासन आदि को जनता को रौंदने के लिए छोड़ देती है और लोकतंत्र ही हत्‍या चुपचाप तरीके से हो जाती है और मुठ्ठी भर सरकार चलाने वाले लोगों के सामने करोड़ों लोग खुद से यही सोचकर समझौता कर लेते हैं कि शायद अब हमारी इस देश में औकात केवल इतनी ही रह गई है कि हम अपनी दो वक्‍त की रोटी का कैसे भी इंतज़ाम करके चुपचाप रहकर ना चाहते हुए भी सब कुछ सहते हुए ही अपना जीवन गुज़ारें।

अब आप ही देखएगा कि जब लोग नौकरियों की मांगों को लेकर या अपनी किसी भी अन्‍य तरह की बातों को सरकार के सामने रखने के लिए सैकड़ों की संख्‍या में जाते हैं, तो सरकार के बेकाबू घोड़े उन निहत्‍थे लोगों पर हमला करने में कोई भी कमी या कसर नहीं छोड़ते हैं या जब देश में ऐसी कोई भी समस्‍या आ जाती है, जिसकी वजह केवल सरकार की नाकामी रही हो तो उस समय दलाल मीडिया को क्‍यों सांप सूंघ जाता है?

अंत में इन सबका यही परिणाम होता है कि लोग अपने आपसे ही समझौता करने के लिए मजबूर हो जाते हैं और खुद को देश का नागरिक होने, असली लोकतंत्र का सुख पाने और स्‍वतंत्र होने का आज भी इंतज़ार कर रहे होते हैं।

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