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MP: सोलहवें बच्चे को जन्म देकर बदइंतज़ामी के कारण माँ-बच्चे की मौत

हाल ही में मध्यप्रदेश की एक घटना सामने आई है, जिसमें एक 45 वर्षीय महिला की मौत अपने 16वें बच्चे को जन्म देते समय हुई। मामला दमोह ज़िले के बटियागढ़ तहसील के पधझारी गाँव के बाहरी इलाके का है। मृतक सुखरानी की बेटी सविता (23) के अनुसार, झोपड़ी से 5 किमी दूर ही अस्पताल में बच्चे को जन्म देते समय ज़्यादा खून बहने से उनकी माँ की मौत हो गई।

महिला को जानवर समझने वाला पितृसत्तात्मक समाज ही है

पधझारी गाँव में बच्चों के जन्म का रिकॉर्ड रखने वाली आशा वर्कर से पता चला है कि सुखरानी ने 1997 में पहली बार बच्चे (लड़की) को जन्म दिया था। उनकी चार बेटियां और भी हैं। फिर 2005 में उन्होंने छठे बच्चे (जुड़वा) को जन्म दिया। इसके बाद भी उनकी गर्भावस्था जारी रही। उन्होंने 16 बच्चों को जन्म दिया और बताया गया है कि 15वें बच्चे के समय भी उनकी हालत गंभीर थी। वहीं, अब तक आठ बच्चों की मौत भी हो चुकी है।

मृतक की बेटी सविता का कहना है कि मैंने माँ को नसबंदी करवाने के लिए समझाने की कोशिश की थी लेकिन वह और पिता इस पर राज़ी नहीं हुए। मैंने उन्हें बताया था कि मैंने भी ससुराल वालों से छुपकर रजिस्ट्रेशन करवाया और ऑपरेशन भी करवा लिया है।

आशा वर्कर कल्लो बाई विश्वकर्मा ने बताया कि वो सुखरानी को मेडिकल कैंप ले गईं थीं। नसबंदी के लिए उन्होंने शुरुआती जांच भी करवाई लेकिन पति के दबाव में वो नहीं आईं। बटियागढ़ सिविक हॉस्पिटल के चीफ मेडिकल ऑफिसर आर.आर बागरी ने कहा कि सिर्फ सविता ही सुखरानी को लेकर चिंतित नहीं थी, बल्कि उनके पिछले रिकॉर्ड ने ज़िला प्रशासन को भी चिंतित कर दिया था। उन्होंने बताया कि सुखरानी की काउंसलिंग की गई और 15वीं गर्भावस्था के बाद नसबंदी की सलाह दी गई थी।

महंगी दवाईयां और एक गरीब परिवार

बागऱी कहते हैं, “लेकिन वो असमंजस में थी। उन्हें लगा 40 की उम्र तो पार कर ही ली है, कुछ समय में मेनोपॉज़ हो ही जाएगा। उनकी बेटियां होती तो शायद उन्हें मनाया जा सकता था और उनकी सहमति के बगैर हम कर भी क्या सकते थे।”

वहीं, जब माहवारी बंद हुई तो उन्हें भरोसा था कि मेनोपॉज की स्थिति है लेकिन जुलाई में पता चला कि 45 की उम्र में वो पांच माह की गर्भवती हैं और जब पता चला कि खतरा बहुत ज़्यादा है, तो उनके पति दुलाह जो कि एक मज़दूर हैं, उन्होंने कहीं से पैसे जुटाकर हटा के सिविल अस्पताल में दिखाया।

दुलाह के अनुसार, हमने सोनोग्राफी करवाई थी और भी जांचों में 40,000 का खर्च किया था। दमोह के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती किया गया था। तब तक उनके पास आयुष्मान कार्ड नहीं था, जो कि बीपीएल परिवारों के लिए 5 लाख तक का मेडिकल इंश्योरेंस कवर करता है।

सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बलि चढ़ते कई जीवन

जब दुलाह से पूछा गया कि उन्होंने नसबंदी क्यों नहीं करवाई, तो उनका कहना था की उसमें (उनकी पत्नी) इतनी हिम्मत ही नहीं थी कि हम इस फैसले के साथ जा सकते।

गर्भ के आठवें माह में ‘हाई रिस्क’ बताया गया था, जिसके बाद उन्हें आयरन के दो डोज़ 12 और 16 सितंबर को दिए गए थे। 11 अक्टूबर को सुखरानी को दिन के 3 बजे अचानक लेबर पेन हुआ, जिसके बाद दुलाह ने एम्बुलेंस को फोन किया जो कि एक घंटे बाद आई। तब तक वो मृत बच्चे को जन्म दे चुकी थीं लेकिन खून ज़्यादा बहने से वो अस्पताल जाने की स्थिति में नहीं थी। सुखरानी ने कहा, “हिम्मत नहीं हो रही।”

सुखरानी की मौत भले ही 16वीं बार बच्चे को जन्म देने में हुई हो लेकिन यह घटना स्वास्थ्य सेवाओं की भी पोल खोलती है।आयुष्मान भारत स्कीम, जहां 2.67 लाख लोगों तक पहुंची है। वहीं, 9.10 लाख लोग अभी तक प्रतीक्षा सूची  में हैं। वहीं, दमोह ज़िले में 3000 लोगों को ही इस स्कीम का फायदा मिला है।

हटा सिविल हॉस्पिटल, जिस पर 1.75 लाख लोग निर्भर रहते हैं, जिनमें 5 एमबीबीएस डॉक्टर्स तो हैं लेकिन उनमें एक भी महिला रोग विशेषज्ञ नहीं है। साल भर में लगभग 3000 महिलाएं गर्भवती होती हैं, जिनमे से 40 प्रतिशत को ज़िला अस्पताल दमोह भेजा जाता है। 60 प्रतिशत गर्भवतियों की डिलिवरी नर्सों द्वारा ही करवाई जाती है।

चीफ मेडिकल ब्लॉक ऑफिसर हटा से जब बात की गई तो उन्होंने कहा, “हमने इन डिलेवरी के लिए हमारी नर्सों को ट्रेनिंग दी है, क्योंकि पिछले 15 सालों से यहां कोई भी महिला विशेषज्ञ नहीं है। बगैर महिला विशेषज्ञों के उन गर्भवती महिलाओं का इलाज मुश्किल हो जाता है। जिनमें खून की कमी है या जिन्हें किसी और समस्या के चलते कहीं और से रेफर किया गया है।”

शिक्षा का अभाव और खोखली सरकारी नीतियां

वहीं, सुखरानी के बेटे का कहना है, “यदि मेरी माँ ने नसबंदी कराने का फैसला किया होता तो उनके अकेले की हिम्मत से कुछ नहीं हो पाता।” देखा जाए तो घटना वाकई हैरत में डालने वाली है कि सुखरानी की बड़ी बेटी 23 साल की है और तब से ही वो लगातार माँ बनती चली जा रही थीं। वो और उनके पति ने नसबंदी को एक डर, एक मुसीबत की तरह देखा लेकिन क्या इस घटना में दोषी केवल सुखरानी (मृतक) को माना जा सकता है?

तो फिर आंगनबाड़ी से लेकर उन लाखों-करोड़ों के विज्ञापनों तक का क्या जो हमें “बच्चे दो ही अच्छे” और निरोध के फायदे समझाते नज़र आते हैं। उस शिक्षा और नीतियों का क्या जिनको पूरा करने के लिए करोड़ों रुपये सरकार फूंक रही है। यकीनन यह घटना हर किसी के लिए आश्चर्य का विषय हो सकती है लेकिन क्या हम जो बड़े-बड़े विकास के वादे करते हैं, उनमें ऐसे लोगों को शिक्षित करना शामिल नहीं है?

हर क्षेत्र में महिलाएं की दुर्गति और पुरुषवाद

वहीं, डॉक्टर यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकते कि गर्भधारण की स्थितियां गंभीर थीं। बेशक थीं और जाने कितने ही महिलाओं के केस में रही होंगी लेकिन इन परिस्थितियों की वजह से महिलाओं की ज़िंदगी में कुछ भी बदलाव नहीं आया है। यदि यही स्थिति किसी की पहले बच्चे के समय होती तब भी क्या बदलने वाला था। जब एम्बुलेंस को पंहुचने में ही एक घंटा लगा हो, तब स्वास्थ्य लाभ मिलने में कितना लगा होगा? यदि स्वास्थ्य सुविधाएं इतनी लचर हों तब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि महिला के गर्भधारण करने की स्थिति क्या है।

महिलाओं की जान पर पहले भी बन आई होगी और नर्सों के भरोसे जाने कितनी महिलाओं ने अपने प्राण छोड़ दिए होंगे। हालांकि नर्स अपने काम से ज़्यादा कर्तव्य निभा रही हैं। वहीं, जो एक डॉक्टर कर सकता है वो एक नर्स नहीं, जो उनके कार्यक्षेत्र से बाहर होगी, वो ज़िम्मेदारी भला वे कैसें ले सकती हैं।

इस तरह की घटनाओं का आंकलन जब भी किया जाएगा, तब स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा, आंगनबाड़ी, सरकारी सुविधाओं को घर-घर पहुचाने वाले लोग सभी कटघरे में खड़े नज़र आएंगे।

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