आज के दौर में जब पूरे देश में आरक्षण पर एक बहस सामने आ रही है कि यह आर्थिक आधार पर होना चाहिए । तब मुझे इस “आर्थिक आधार वाले” दावे को खोखला मानने के लिए ज्यादा कारण ढूंढने की जरूरत नहीं है। ——- आरक्षण का आर्थिक आधार : दावे और हकीकत —————- आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का राग अलापने वालों अपना एक भरम दूर कर लेना चाहिए कि ” आरक्षण ग़रीबी उन्मूलन का प्रोग्राम नहीं है।” बल्कि इसका प्रावधान तो उन तमाम तबको को , जिनका सदियों से शोषण होता आ रहा है, सामाजिक जीवन में उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व (रिप्रजेंटेशन) दिलाने के लिए किया गया था। एक तर्क यह भी दिया जाता है कि आरक्षण दस साल के लिए लागू किया गया था और जब आज समाज मे इन तबकों की स्थिति ठीक (तथाकथित रूप से) हो गयी है तब इसे खत्म कर देना चाहिए। मैं यह पूछना चाहता हूँ कि यह किस स्थिति की बात हो रही है? कितने दलित प्रधानमंत्री बने? कितने दलित ( के जी बालाकृष्णन) को छोड़कर चीफ जस्टिस हुए हैं? आपके अपने विश्वविद्यालय में कितने प्रोफेसर दलित हैं? और यूजीसी के हालिया फरमान के बाद तो एक दलित के लिए प्रॉफेसर बनना और भी मुश्किल हो गया है चूंकि यह फरमान अप्रत्यक्ष रूप से आरक्षण को खत्म करने की जी चाल है। हालांकि आप कुछ तथाकथित अपवादों के तौर पर मायावती, राम विलास पासवान , राम नाथ कोविंद आदि को गिना सकते हैं। लेकिन एक तर्कशील मनुष्य होने के नाते आपको समझ लेना चाहिए कि यह चंद लोग अपने पूरे वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। रही बात जातीय शोषण की समाप्ति की तो शायद आप सहारनपुर के शब्बीरपुर में दलितों की बस्ती फूंक देने वाली घटना को भूल गए हैं। आज आधे से ज्यादा सवर्ण एक विशेष तबके को “भीमटे” जैसे विशेषणों से पुकारता है। एक दलित की हत्या मात्र इस बात के कारण कर दी जाती है कि वो घोड़े पर क्यों चढ़ा। आज भी अगर आप पूर्वांचल के किसी गांव में चले जाएं तो आपको “चमार टोला” सुनने को मिल जाएगा। यह गांव के उस हिस्से को कहा जाता है जिनपर चमारों को रहने के लिए दिया गया है। सामान्यतः चमार इसके अलावा पूरे गांव में कहीं नहीं रह सकते। इन सब के बावजूद कैसे कह जा सकता है कि जातीय शोषण समाप्त हो गया है? एक और बात हमको समझ लेनी चाहिए कि ” जाति का सवाल जोत (जमीन) के सवाल से जुड़ा हुआ है।” कितने दलितों के पास अपनी खुद की जमीन है? इस तथ्य से तो आपका आर्थिक आधार भी संतुष्ट हो जाता है। इस के बाद भी अगर कोई आरक्षण के जातीय आधार को खारिज करता है तो इसका मतलब साफ है कि वो अपने शोषण करने के पैतृक अधिकार को बनाये रखना चाहता हैं! —– नोट:- बाकी जिनको रायता फैलाना है वो तो फैलाते ही रहेंगे!