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किसान आंदोलन और भाजपा की प्राथमिकताएं

किसान आंदोलन और भाजपा की प्राथमिकताएं
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देश की राजधानी दिल्ली को किसानों ने चारों तरफ से घेर रखा है। सभी किसान मोदी सरकार द्वारा हाल ही में लाये गए तीन नए कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ आंदोलनरत हैं और चाहते हैं कि सरकार तत्काल उनकी समस्याओं का निपटारा करे। गृहमंत्री अमित शाह के किसानों को उत्तरी दिल्ली स्थित बुराड़ी मैदान में आकर बैठने के न्योते को किसानों ने ठुकरा दिया है, उनका कहना है कि वे दिल्ली में घिरकर नहीं बल्कि दिल्ली को चारों ओर से घेरकर बैठेंगे।

कोरोना काल में बिना जनता के बीच प्रचार किये भाजपा नीत एनडीए ने इस कानून को पास किया। जिस वक्त ये कानून पास किये गए थे तभी से तमाम हलकों में इन कानूनों के किसान विरोधी चरित्र पर बहस-मुबाहिसा चल रहा था जिसकी परिणति आज इस आंदोलन में हुई है। इस आंदोलन की आहट और पंजाब की जनता में इससे उपजे असन्तोष को केंद्रीय कृषि मंत्री हरसिमरत कौर बादल के कैबिनेट से इस्तीफे में देखा/सुना जा सकता था।

कृषि कानूनों पर विशेषज्ञों ने काफी बात कर ली है कि किस तरह से ये तीनों कानून खेती-किसानी को कारपोरेट के हाथों में सौंप देने के पक्षधर हैं। मैं यहां सरकार की नीयत पर कुछ सवाल करना ज़रूरी समझता हूँ।

सबसे पहले तो इस सरकार ने अपने पिछले सभी उदाहरणों की तरह किसान आंदोलन को भी उनका खुद का आंदोलन मानने के बजाय ‘विपक्ष की साज़िश’ करार दिया। सरकारी मीडिया चैनलों ने भी इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी। इस सरकार की सबसे खास बात ये है कि अपने खिलाफ उठती हर आवाज़ को ये कोई न कोई लेबल दे देती है। इनका पूरा इकोसिस्टम इस बात को साबित करने में जुट गया कि ये किसान, जिसमें बड़ी मात्रा में सिख हैं, खलिस्तान समर्थक हैं। इसके पहले भी ऐसे उदाहरण इस सरकार के 6-7 वर्ष के शासनकाल में कम नहीं हैं जब छात्रों को एंटी-नेशनल, मुस्लिमों को आतंकी आदि साबित करने की कोशिशें हुईं हैं। इन सब के बाद भी जब किसान आंदोलन जनता के बीच अपनी छाप बनाने में कामयाब हो गया तब बड़े स्तर पर वाटर कैनन, आंसू गैस जैसे पुराने और प्रचलित औजारों से उसका दमन भी किया गया। इतना सब झेलने के बाद अब किसानों ने दिल्ली सीमा पर डेरा डाल दिया है और तबतक डटे रहने का संकल्प ले चुके हैं जबतक कि ये तीनों कानून वापस नहीं ले लिए जाते।

वहीं दूसरी तरफ देश के दूसरे हिस्से सुदूर दक्षिण में हैदराबाद स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा केंद्रीय नेतृत्व पूरी ताकत से जुट गया है एवं अमित शाह के शब्दों में ‘निज़ाम की संस्कृति’ से हैदराबाद को मुक्त कराने का प्रण ले चुका है। एक तरफ तो भाजपा कहती है कि किसान आंदोलन से कोरोना फैलेगा वहीं दूसरी ओर हैदराबाद में बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियो का आयोजन भी कर रही है। क्या उन रैलियों में कोरोना नहीं फैलेगा ? जिस तरह की ततपरता भाजपा केंद्रीय नेतृत्व हैदराबाद चुनाव या ‘लव-जिहाद’ पर कानून बनाने में दिखा रहा है उसकी आधी ततपरता भी अगर किसानों की समस्या सुनने में दिखाए तो उनकी नीयत में खोंट न दिखे। एक तरफ नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ में कहते हैं कि नए कृषि कानून किसानों की मुक्ति की दिशा में ऐतिहासिक कदम हैं लेकिन वहीं वे किसान आंदोलनकारियों से मिलकर ये बात उन्हें बताने की बजाय बनारस में रंगारंग कार्यक्रम करने को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। ये बातें किस ओर इशारा करती हैं ? अमित शाह एक बार तो ये बात मानते हैं कि ‘किसान आंदोलन राजनीति से प्रेरित नहीं है’ लेकिन अपने बयान की अगली ही लाइन में वे कहते पाए जाते हैं कि ‘तीनों कानून किसानों के हितैषी हैं। राजनीतिक रूप से प्रेरित विपक्ष इसका विरोध कर रहा है।’ अमित शाह के इस तरह के विरोधाभासी बयानों के क्या निहितार्थ निकालें जाएं ?

बात बहुत साफ है कि भाजपा की प्राथमिकताओं में किसान शामिल ही नहीं हैं। भाजपा की प्राथमिकता है हैदराबाद चुनाव जीतना और हैदराबाद की जनता को ‘निज़ाम की संस्कृति’ से मुक्त कराना, ‘लव-जिहाद’ का हौव्वा खड़ा करके साम्प्रदायिक नफरत फैलाना एवं कारपोरेट की सेवा में देश की सम्पत्ति को अर्पित करना !

– अतुल उपाध्याय
30 नवम्बर, 2020

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