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महामारी के दौर में महिलाओं पर क़हर ढाता शारीरिक उत्पीड़न

नारी’ एक ऐसा शब्द जिसे जानेविद्वानसे लेकरनिरक्षरऔरकविसे लेकरलेखकतक किसकिस ने सुंदर उपमा से अलंकृतनहीं किया। भारत केवैदिक दर्शनअथवाज्ञानकी मानें तो श्रद्धा,पावनी के साथसाथ दुर्गा और सरस्वती भी महिला के पर्याय माने जाते हैं।

लेकिन चाहकर भी दिनप्रतिदिन हमें ऐसे कई मुद्दों और क़िस्सों का सामना करना पड़ता है जो हमें भीतर ही भीतर झकझोरने पर मजबूर कर देते हैं और इन क़िस्सों में सर्वाधिक प्रबल क़िस्से या तो किसी बालक अथवा महिला के ही हो सकते हैं।

महामारी के दौरान महिला उत्पीड़न के मामलों में इज़ाफ़ा हुआ है

मैं इस तथ्य को पूर्णत: समर्थन देता हूं कि महामारी के दौरान महिला उत्पीड़न के मामलों में वृद्धि हुई है। इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि महिलाओं का उत्पीड़न केवल भारत अपितु विश्व के अधिकतर देशों के लिए कोई नई बात नहीं है।

हालांकि इन में अचानक वृद्धि होना निश्चय ही गहन चिंतन का विषय है। यदिभारत’, ‘भारतीय महिलाएवंभारत में महामारीके दौर की बात की जाए तोमहिला शारीरिक उत्पीड़नका मुद्दा प्रबलता से उभर कर आता है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर शायद सभी राजनैतिक एवं सामाजिक विचारधाराएं  केवल चिंता व्यक्त करेंगी अपितु इसके निष्कासन हेतु पहल भी करेंगी।

महिला का शारीरिक उत्पीड़न यूं तो जाने कब से हो रहा है परंतु महामारी के दौरान एवं इससे पूर्व इसका मूल कारण मेरे मतानुसार सदियों से चली रहीपित्रसत्तात्मक सोचही है।

लॉकडाउन के कारण खुशहाल ज़िंदगी से नाता टूट गया है

भारतमें सम्पूर्ण लॉकडाउन होने के कारण दिहाड़ीमज़दूर, पटरीरेहडी वाले, निम्न एवं निम्न मध्य वर्ग का तो मानो व्यवसाय के साथसाथ खुशहाल ज़िंदगी से नाता सा टूट गया था। इसी दौरान इन एकल परिवारों के जीवनयापन के भी मानो लाले से पड़ गए थे। लेकिन नाताव्यवसायसे टूटा थाजीवनसे थोड़े ही। इस भूखे पेट को तो भरना ही था। अपने बच्चों को कौन मां जीते जीभूखासोने देगी।

अब घर की ज़रूरत, बच्चों का पोषण और एक सुखद जीवन बिना नौकरी के इस आधुनिक युग में भला कहां सम्भव है।

आवश्यकता को पूर्ण कर सकने का पुरुष कापौरुष

उदासीनता से भरा जीवन, बच्चों की व्याकुलता एवं महिला की राय लेने मेंनिकृष्टताअनुभव करने वाली विचाराधारा जब कुंठित हो उठती है तब अपना शौर्य महिला को शारीरिक रूप से उत्पीड़ित कर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझती है।

और यही तथाकथित सर्वश्रेष्ठ विचाराधारा जिसे आम जनमानस की भाषा में मरदानगी कहा जाता है। जाने कितनी मासूम एवं पित्रसत्तात्मक सोच के तले दबीकुचली, लाचारअसह्य महिलाओं की ख़ुशियों की बली हो चुकी है।

मेरे द्वारा जो कुछ भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बताया गया है वह बखूबी किसी बुरे स्वप्न से कम नहीं परंतु यही हक़ीक़त है।कई लेखक , विद्वान, बुद्धिजीवी आंकड़ों की बात करेंगे, विचारधाराओं और धर्म को सत्य एवं मिथ्य साबित करेंगे, बड़ेबड़े मंचों पर कहीसुनी बातें कहेंगे। वे हर वो बात कहेंगे जिसे दुनिया सुनना चाहती है परंतु फिर एक सुनहरी सुबह के बाद वही निशान की कालिमा छा जाती है और बेचारीनारी का उत्पीड़न सिर्फ़ कहानी बन जााता है।

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