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महिला हिंसा उन्मूलन दिवस – “महिलाओं को दे शिक्षा का उजियारा, पढ़-लिख कर करें रोशन जग सारा

 

*महिला हिंसा उन्मूलन दिवस – “महिलाओं को दे शिक्षा का उजियारा, पढ़-लिख कर करें रोशन जग सारा।”

दुनिया भर में महिलाओं के प्रति हिंसा, शोषण एवं उत्पीड़न की बढ़ती घटनाएं संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए गंभीर चिन्ता का विषय बना हुआ है, इस तरह की होने वाली हिंसा के उन्मूलन के लिए 25 नवंबर को अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस के रूप में विश्व भर में मनाया जाता है। इस दिन महिलाओं के विरुद्ध हिंसा रोकने के ओर अधिक प्रयास करने की आवश्यकता को रेखांकित करने वाले अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

महिलाओं के समूह व संगठन महिलाओं की समाज में चिंताजनक स्थिति और इसके परिणामस्व महिलाओं के शारीरिक, मानसिक तथा मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को सामने लाने के लिए वेबिनार का आयोजन किया गया। अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा-उन्मूलन दिवस महिलाओं के अस्तित्व एवं अस्मिता से जुड़ा एक ऐसा दिवस है, जो दायित्वबोध की चेतना का संदेश देता है, जिसमें महिलाओं के प्रति बढ़ रही हिंसा को नियंत्रित करने का संकल्प भी लिया जाता है।

सम्पूर्ण मानवता के लिए प्रयास है नारी हिंसा के खिलाफ उन्मूलन दिवस

इसमें जहां नारी की अनगिनत ज़िम्मेदारियों के सूत्र हैं वहीं,  नारी पर घेरा डालकर बैठे खतरों एवं उसे दोयम दर्ज़े  का समझे जाने की मानसिकता को झकझोरने के प्रयास भी सम्मिलित है। यह दिवस उन चौराहों पर पहरा देता है,जहां से जीवन आदर्शों के भटकाव एवं नारी-हिंसा की संभावनाएं रस्ता बनाती हैं।  यह उन आकांक्षाओं को थामता है, जिनकी गति तो बहुत तेज़  है  और जो बिना उद्देश्य के बेतहाशा दौड़ती है।

यह दिवस नारी को शक्तिशाली और संस्कारी बनाने का अनूठा प्रयास  है। वैयक्तिक स्वार्थों को एक ओर रखकर ओरों को सुख बांटने और दुःख बटोरने की मनोवृत्ति का संदेश है। इसलिए इस दिवस का मूल्य केवल नारी तक सीमित न होकर सम्पूर्ण मानवता से जुड़ा है।

अनुमान है कि दुनिया भर में 35 प्रतिशत महिलाओं ने शारीरिक और यौन हिंसा का अनुभव किसी नॉन-पार्टनर द्वारा अपने जीवन में किसी ना किसी बिंदु पर किया है। हालांकि, कुछ राष्ट्रीय अध्ययनों से पता चलता है कि 70 प्रतिशत महिलाओं ने अपने जीवनकाल में एक अतरंग साथी से शारीरिक और यौन हिंसा का अनुभव किया है।

दुनिया भर में पाए गए सभी मानव तस्करी के पीड़ितों में से 51 प्रतिशत वयस्क महिलाओं का आता है। यूरोपीय संघ की रिपोर्ट में 10 महिलाओं में से एक ने 15 साल की उम्र से साइबर-उत्पीड़न का अनुभव किया है। 18 से 29 वर्ष की आयु के बीच युवा महिलाओं में जोखिम सबसे अधिक है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा एक वैश्विक महामारी है।

महिलाओं का 70 प्रतिशत अपने जीवनकाल में हिंसा का अनुभव करता है। कुछ शोध से हमें पता चलता है कि महिलाओं के विरुद्ध यौन उत्पीड़न, फब्तियां कसने, छेड़खानी, वैश्यावृत्ति, गर्भाधारण के लिए विवश करना, महिलाओं और लड़कियों को खरीदना और बेचना, युद्ध से उत्पन्न हिंसक व्यवहार और जेलों में भीषण यातनाओं का क्रम अभी भी महिलाओं के विरुद्ध ज़ारी है और इसमें कमी होने के बजाए वृद्धि हो रही है।

 

क्यों नहीं है कोई आक्रोश महिलाओं के प्रति

विश्व महिला हिंसा-उन्मूलन दिवस पर हिंसा एवं उत्पीड़न से ग्रस्त समाज की महिलाओं पर विमर्श ज़रूरी है। विकसित एवं विकासशील देशों में महिलाओं पर अत्याचार, शोषण, भेदभाव एवं उत्पीड़न का साया छाया रहता है,  यह बहुत  दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत सहित दुनियाभर में अल्पसंख्यक और संबंधित देशों के मूल समुदाय की महिलाएं अपनी जाति, धर्म और मूल पहचान के कारण बलात्कार, छेड़छाड़, उत्पीड़न और हत्या का शिकार होती हैं।

मायनॉरटी राइट्स ग्रुप इंटरनेशनल ने दुनिया के अल्पसंख्यकों और मूल लोगों की दशा  नामक अपनी सालाना रिपोर्ट में बताया  है कि कैसे दुनियाभर में अल्पसंख्यक और मूल समुदाय की महिलाएं हिंसा का शिकार ज्यादा होती हैं, चाहे वह संघर्ष का दौर हो या शांति का दौर । आज महिलाओं पर भी कहीं एसिड अटैक हो रहे हैं, तो कहीं निरंतर हत्याएं-बलात्कार हो रहे और कहीं तलाक-दहेज़  उत्पीड़न की घटनाएं हो रही हैं।

इन घटनाओं पर कभी- कभार शोर भी होता है, लोग विरोध प्रकट करते हैं, मीडिया सक्रिय होता है मगर अपराध कम होने का नाम नहीं लेते क्यों ? हम देख रहे हैं कि एक ओर भारतीय नेतृत्व में इच्छाशक्ति बढ़ी है लेकिन विडम्बना तो यह है कि आम नागरिकों में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को लेकर कोई बहुत आक्रोश या इस स्थिति में बदलाव की चाहत भी नहीं है।

मायनोरटी देकर उन्हें दोयम समझना कितना सही

वे स्वाभाव से ही पुरुष वर्चस्व के पक्षधर और सामंती मनःस्थिति के कायल हैं, तब इस समस्या का समाधान कैसे सम्भव है ? हमारे देश-समाज में स्त्रियों का यौन उत्पीड़न लगातार ज़ारी है लेकिन यह विडम्बना ही कही जाएगी कि सरकार, प्रशासन, न्यायालय, समाज और सामाजिक संस्थाओं के साथ मीडिया भी इन  कुकृत्य में कमी लाने में सफल नहीं हो पाये हैं। देश के हर कोने से महिलाओं के साथ दुष्कर्म, यौन प्रताड़ना, दहेज़  के लिये जलाया जाना, शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना, स्त्रियों की खरीद-फरोख्त के समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। साथ ही छोटे से बड़े हर स्तर पर असमानता और भेदभाव के कारण इसमें गिरावट के चिन्ह कभी नहीं देखे गए।

ऐसे में महिलाओं को अल्पसंख्यक दायरे में लाने का क्या मतलब रह जाता है,? इसे आप और हम बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। नारी को छोटा व दोयम दर्ज़े का समझने की मानसिकता भारतीय समाज की रग-रग में समा चुकी है। असल प्रश्न इसी मानसिकता को बदलने का है। इन वर्षों में अपराध को छुपाने और अपराधी से डरने की प्रवृत्ति खत्म होने लगी है। वे चाहे मीटू जैसे आन्दोलनों से हो या निर्भया कांड के बाद बने कानूनों से।

इसलिए ऐसे अपराध पूरे न सही लेकिन फिर भी काफी सामने आने लगे हैं। अन्यायी तब तक अन्याय करता है, जब तक कि उसे समाज द्वारा  सहा जाये। महिलाओं में इस धारणा को पैदा करने के लिये न्याय प्रणाली और मानसिकता में मौलिक बदलाव की भी ज़रूरत है। देश में लोगों को महिलाओं के अधिकारों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है और इसका पालन पूरी गंभीरता और इच्छाशक्ति से नहीं होता है।

 

दुर्घटना व्यक्ति और वक्त का चुनाव नहीं

महिला सशक्तीकरण के तमाम दावों के बाद भी महिलाएं  अपने असल अधिकार से कोसों दूर हैं, उन्हें इस बात को समझना होगा कि दुर्घटना व्यक्ति और वक्त का चुनाव नहीं करती है और यह सब कुछ होने में उनका कोई दोष नहीं है। महिलाओं को हिंसामुक्त जीवन प्रदत्त करने के लिये पुरुष-समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़ कर वे उस ढलान में उतर गये, जहां रफ्तार तेज है और विवेक अनियंत्रित है।  जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार।

पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं, बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिन कारणों  से बार-बार नारी को ज़हर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है। विश्व महिला हिंसा-उन्मूलन दिवस गैर-सरकारी संगठनों अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और सरकारों के लिए महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के प्रति जन-जागरूकता फैलाने का अवसर होता है। दुनिया को महिलाओं की मानवीय प्रतिष्ठा के वास्तविक सम्मान के लिए भूमिका प्रशस्त करना चाहिए ताकि उनके वास्तविक रूप  को दिलाने का काम व्यावहारिक हो सके। ताकि इस दुनिया में बलात्कार, गैंगरेप, नारी उत्पीड़न, नारी-हिंसा जैसे शब्दों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए।

समाज को अपना दृष्टिकोण बदलने की ज़रूरत है।  स्त्री व पुरुष को एक समान अहमियत देने की दरकार है। पुरुषों को समाज में जितना महत्व दिया गया, उतनी बराबरी महिलाओं को देने की दरकार है, जब यह बीज प्रत्येक के मन मे बोया जाएगा तब जाकर कुछ परिवर्तन नज़र आएगा।  परिवर्तन बाहर नहीं बल्कि परिवर्तन तो हमें अपने अंदर अपने दृश्टिकोण में करना है । उपचार  बाहर नहीं बल्कि हमारे ही अंदर है, जब हम समाज़ में  नारी के प्रति अपना दृश्टिकोण बदलेंगे तब उनके प्रति हमारी पूर्व की सोच बदलेंगी तब ही हम उनसे कुछ अलग व सकारात्मक व्यवहार भी कर सकेंगे ।

 

वैसे तो भारतीय संस्कृति व सभ्यता में नारी को देवी के रूप में देखा जाता रहा है परंतु अंग्रेज़ी  हुकूमत व मुगलों की हुकूमत के दौरान भारत में  नारी के प्रति दृश्टिकोण बदला व उन्हें घर की चार दिवारी तक ही कैद कर उनकी क्षमताओं को सीमित कर दिया गया और यह समाज पुरुष प्रधान देश बनता गया,  अन्यथा अगर हम गौर फरमाएं तो श्री राम के नाम के आगे सीता का नाम लिया जाता था जैसे सीताराम वहीं श्री कृष्ण के नाम के आगे राधा का नाम लिया जाता था जैसे राधेश्याम जिससे पता चलता है कि नारी को भारत मे हमेशा  प्राथमिकता मिलती रही है  पर अंग्रेजी व मुगल हुकूमत में नारी के प्रति समाज का दृश्टिकोण बदला,  जो अब तक जारी था। मगर अब  बच्चियां भी पढ़ रही हैं, नारियां भी घर के काम काज़  के साथ-साथ जॉब कर रही हैं ।  पुरुष वर्ग के कंधे से कंधा मिलाकर आज हर फील्ड में अपनी पहचान अपने काम से  बना रही हैं।

पहले नारी की पहचान उसके पिता या पति से होती थी वहीं आज के समाज मे वही नारी अपनी अलग पहचान अपने कर्म से बना रही है। हमें समाज को,  नारियों को ऊपर उठाने के लिये उन्हें प्लेटफार्म देते रहने की ज़रूरत है क्योकि सदियों तक उन्होंने बहुत  शोषण व अत्याचार सहा है।  अब वक्त है उन्हें वह ज़गह देने का जिनकी वह वास्तव में हकदार है और  वह हक  है एक समान रूप से उन्हें देखे जाने का!  उन्हें कमज़ोर समझने की भूल ना कर हमें ध्यान रखना चाहिए कि एक नारी के सचमुच कितने ही रूप होते हैं।   नारियों को अत्याचार व शोषण से सचमुच मुक्त करने के लिये हमें , समाज को अपना  दृश्टिकोण बदलने की दरकार है ।

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