लाल रंग – एक ऐसा रंग जिसके मायने बदल जाते हैं,
एक ऐसा रंग जिससे नज़रिया बदल जाता है ।
लाल रंग जो कभी सुहाग की निशानी बनता है,
तो कभी वहीं रंग शर्मिंदगी का एहसास भी करवाता है।
आखिर क्यों होता है ऐसा ?
क्यूं ?
क्यूं होता है कि वहीं रंग मांग में सौंदर्य बढ़ाता है,
पर यदि माहवारी के हो तो शर्म का कारक बनाया जाता है।
आखिर क्यों होता है ऐसा ?
मांग का लाल रंग हो तो ढोल नगाड़ों के साथ पूजा जाता है,
जो निकले माहवारी का, तो बन जाए कारण फुसफुस का ।
आखिर क्यों ?
इसका उत्तर मेरी समझ से परे है!!
आखिर क्यूं नहीं हो सकता ?
क्यूं नहीं हो सकता
कि सोच की सीमाओं पर बांधे तार हटा लिए जाएं?
कि माहवारी कानाफूसी का विषय ना होकर एक प्राकृतिक व सामान्य बात हो ?
क्यूं नहीं दूर हो सकते माहवारी से जुड़े मिथक ?
क्यूं नहीं टूट सकती माहवारी से जुड़ी भ्रांतियां ?
क्या नहीं हो सकता की लाल रंग बस एक रंग ही रहे ?
इसको सिर की पगड़ी बनाना ही क्यूं ?
ना पहनने पर गर्व ,
ना उछलने पर शर्म !!!
——— वैभव गौड़