भारत एक ऐसी महामारी से लड़ रहा है, जो रोज़ औसतन देश में 1200 जानें लेती हैं। हम यहां कोरोना की बात नहीं कर रहे हैं। हम उस महामारी की बात कर रहे हैं जिसका इलाज है। इसके बावजूद भी सालों से रोज़ लोगों की जान हज़ारों की तादाद में जा रही हैं। फिर भी हम सब इसे अनदेखा कर रहे हैं, यह महामारी है टीबी।
जी हां, भारत एक नहीं, दो-दो महामारियों से लड़ रहा है। बिहार भारत के उन राज्यों में से एक है, जहां टीबी के मरीज़ भारी मात्रा में मौजूद हैं और जहां कोरोना के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं।
बिहार की सरकारी स्वास्थ्य सेवा, जो पहले से ही अविकसित है, सोचिए वो अकेले ही दोनों महामारियों से कैसे और किस क्षमता से लड़ पाएगी? वहीं, कोरोना की वजह से राज्य की टीबी स्वास्थ्य सेवाओं पर गहरा असर पड़ा है। ऐसा ही चलता रहा तो हमें टीबी और कोरोना दोनों के ही आगे हार माननी पड़ेगी लेकिन ऐसे में करें तो करें क्या?
नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे राउंड-4 के मुताबिक, बिहार में 77.6 प्रतिशत लोग प्राइवेट सेक्टर में इलाज कराते हैं। अब आप सोच रहे होंगे कि फिर चिंता किस बात की है, इलाज के लिए प्राइवेट सेक्टर तो है ही लेकिन प्राइवेट सेक्टर में इलाज महंगा होता है, साथ ही मरीज़ों को यह शिकायत भी रहती है कि अगर वे किसी छोटे-मोटे प्राइवेट क्लीनिक से इलाज कराने गए तो वहां या तो उन्हें इलाज देर से मिला या जांच ही गलत मिली।
इन चुनौतियों के बावजूद भी हम इस बात को झुठला नहीं सकते कि प्राइवेट सेक्टर के पास साधन हैं जैसे- जांच के लिए उम्दा मशीनें, जाने-माने विशेषज्ञ और आर्थिक साधन भी, जिनकी हमें टीबी और कोरोना के खिलाफ इस जुड़वा लड़ाई में ज़रूरत है। वहीं, दूसरी ओर सरकार के पास भले ही उतने साधन ना हों मगर उनके पास है प्राइवेट सेक्टर को विनियमित करने की शक्ति, ताकि हर नागरिक को सुलभ और सस्ती स्वास्थ्य सेवा मिल सके।
जन-जागरूकता की साझेदारी मांगते टीबी और कोरोना
टीबी के मामले में यह कुछ हद्द तक पहले से ही हो रहा है। इसका उदाहरण है प्रोजेक्ट जीत, जहां भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय, प्राइवेट स्वास्थ्य संस्थाओं के साथ टीबी को हराने के लिए काम कर रहा है। बिहार राज्य को भी कोरोना और टीबी से कुशलता पूर्वक लड़ने के लिए प्राइवेट सेक्टर के साथ साझेदारी बनानी पड़ेगी।
इस साझेदारी के अंतर्गत ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए, जहां मरीज़ जांच के लिए डॉक्टर से चैकअप कराने प्राइवेट सेक्टर जा सकें लेकिन उनकी जांच मुफ़्त में हो और दवा भी सरकार द्वारा मुफ्त में प्रदान की जाए। कोरोना और टीबी के उन केसेस में जहां मरीज़ को प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती होना हो तब बिहार, तमिलनाडू के नक्शे कदम पर चल सकता है। एसिंप्टोमेटिक या माइल्ड कोविड के केस में जहां सरकारी नियमों का पालन करते हुए प्राइवेट अस्पताल में ICU बेड 15000 से ज़्यादा नहीं हो सकते और ज़नरल वार्ड में मरीज़ को ज़्यादा से ज़्यादा 7500 बेड देने पड़ेंगे।
साथ की सरकार प्राइवेट सेक्टर के डॉक्टर को जन-ज़ागरूकता अभियान का भी हिस्सा बना सकती है जिससे वे कोरोना और टीबी से जुड़े मिथकों को तोड़ सकें और संक्रमण से बचने के तरीके, संक्रमण की संभावनाएं , लक्षण और इलाज के बारे में लोगों को शिक्षित कर सकें।
आखिरकार ये ज़रूरी है कि कोरोना महामारी के इस समय में जहां घर से बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं है वहां दोनों ही बीमारीयों के मरीज़ों को टेक्नोलॉजी के माध्यम से अच्छी देख-रेख अपने घर पर मिल सके। ये टीबी जैसी बीमारी के लिए ख़ास तौर से ज़रूरी है क्योंकि इसका इलाज 6 महीने से 2 साल तक चल सकता है और इलाज के दौरान कड़े शारीरिक और मानसिक साइड इफ़ेक्ट होते हैं, जिसकी वज़ह से मरीज़ को इलाज के हर कदम पर स्वास्थ्य कर्मियों और डॉक्टर के सहारे की ज़रुरत होती है।
टीबी और कोरोना गंभीर महामारी ज़रूर हैं लेकिन अपनी ढृढ़ता, पब्लिक और प्राइवेट सेक्टर की ऐसी साझेदारियों द्वारा इन दोनों से लड़ा जा सकता है।
लेखक गण- 1. डॉक्टर साकेत शर्मा, कंसलटेंट पुलमोनोलॉजिस्ट मेडिवेर्सल हॉस्पिटल, एक्स असिसटेंट प्रोफेसर आई जी आई एम ऐस, पटना
2. आशना अशेष, फेलो, सर्वाइवर्स अगेन्सट टीबी, एम डी आर टीबी सर्वाइवर, पब्लिक हेल्थ प्रोफेशनल