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उत्तराखंड के पहाड़ी गाँवों में 22 दिनों तक चलने वाला अनुष्ठान ‘बैसी’

बैसी उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल के पहाड़ी गाँवों में 22 दिन तक चलने वाला पारंपरिक अनुष्ठान है। यह साल में एक बार दो या दो से अधिक गाँवों द्वारा पारस्परिक रूप से आयोजित किया जाता है।

इस अनुष्ठान में कोई भी व्यक्ति जो भक्त के रूप में भाग लेता है, उसे 22 दिनों तक ही (पहाड़ी भाषा में हम इसे ‘धूनी’ कहते हैं) मंदिर में रहना पड़ता है।

भक्त सख्त दिनचर्या से गुज़रते हैं। अनुष्ठान के दौरान दिन में एक बार भोजन किया जाता है। तीन बार आरती और हर आरती से पहले स्नान करना होता है।

अपनी पत्नी को ‘मायके’ या माँ कहकर पुकारना, मीलों तक नंगे पांव घूमना, हर घर पर भिक्षा (भोजन मांगना) और दक्षिणा मांगी जाती है। यहां तक कि भक्त के घर पर भी भजन-कीर्तन और जप करते हुए मांगा जाता है ।

बैसी एक वैज्ञानिक पद्धति

प्रत्येक गतिविधि का प्रदर्शन इस अनुष्ठान में एक सीख के समान है। भारतीय अध्यात्मवाद में भिक्षाक, मोक्ष (मुक्ति) की खोज का एक अभिन्न हिस्सा है और अपनी पत्नी और अन्य महिलाओं को ‘मयी’ कहने से महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना पैदा होती है।

इस अनुष्ठान में लगने वाली क्रियाएं शरीर की ऊर्जा प्रणाली के केंद्रों को सक्रिय करती हैं। ऐसा माना जाता है कि आरती में संगीत वह माध्यम है, जिससे देवताओं या आंतरिक आत्मा का आह्वान किया जाता है।

गायक (पहाड़ी में जगारिया कहते हैं) महाभारत और रामायण के महान महाकाव्यों से देवताओं का एक गीत गाते हैं, जिसमें सर्वशक्तिमान के गुणों का बखान होता है। जगरिया में वाद्य यंत्रों हुरका, दमारू या दूनर, ढोल, दमाऊ, थाली और रणसिंघा का प्रयोग किया जाता है।

अनुष्ठान के 21वें दिन सभी श्रद्धालु एक पवित्र मंदिर के पास स्थित नदी में स्नान के लिए जाते हैं। इस स्नान को एक नए जीवन में कदम रखने के समान माना जाता है, जो भक्त को को आत्म-संदेह और नकारात्मकता से मुक्त करता है। अंत में यह अनुष्ठान भंडारे के साथ समाप्त होता है, जहां सभी भक्त अपने भक्त मित्रों के साथ नए जीवन का उत्सव मनाते हैं।

यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है कि 22 दिनों तक लगातार की गई कोई भी गतिविधि आदत बन जाती है। इसके द्वारा हम कह सकते हैं कि हमारे पूर्वजों को इसके बारे में पता था और इस अनुष्ठान को मानव जीवन को बदलने में सक्षम होने के लिए डिज़ाइन किया गया था ताकि लोग अपने आत्म को बेहतर ढंग से जान सकें और अपने व्यक्तिगत जीवन में वांछित परिवर्तन लाने में मदद करें।

मैं पूरा अनुष्ठान जब बच्चा था तभी से ही देख रहा हूं लेकिन कभी इसके बारे में गहराई से नहीं सोचा था। हाल ही में बहुत लंबे समय के बाद जब मैं अपने वतन बांधरा जो कि जलाली, उत्तराखंड में आता है। वहां एक अनुष्ठान में भाग लेने पर मैंने इसको बहुत नज़दीकी से देखा और हमारे पूर्वजों की सोच पर आश्चर्यचकित था।

दुर्भाग्यपूर्ण है जड़ों से उखड़ते लोग और बैसी

मुझे लगता है कि हमारे देश में कहीं भी इस तरह का अनुष्ठान ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा, जहां 22 दिनों में एक आम व्यक्ति हर तरह का काम कर रहा है। साथ ही खुद में भगवान की मांग भी कर रहा है। यह कुछ ऐसा है जिसे संरक्षण और सम्मान की ज़रूरत है।

लेकिन दुर्भाग्य यह है कि ‘बैसी’ में भागीदारी हर गुज़रते साल के साथ घट रही है और इसकी एक खास वजह है, लोगों का अपनी जड़ों से उखड़ना और पलायन करना। यानि उनका गाँव से शहर नौकरियों की तलाश में निकल जाना फिर लौट ना पाना।

हां यही सच है! दुर्भाग्यपूर्ण भी लेकिन हम सब इस घटती संख्या को कम कर सकते हैं। ‘बैसी’ के समय हर पहाड़ी को गाँव की यात्रा पर ज़रूर जाना चाहिए, जिससे हमारी अगली पीढ़ी को इसकी जानकारी मिले। यह हर माता-पिता की ज़िम्मेदारी है कि वे अपनी अगली पीढ़ी को सांस्कृतिक विरासत सौंप सकें। ।

मेरा हर उस पहाड़ी से आग्रह है जो यह पढ़ रहे हैं कि अपने गाँव जाकर एक बार बैसी में शामिल ज़रूर हों और उस सर्वशक्तिमान की ऊर्जा को अपने में महसूस करें।

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