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कविता: “शरीफ लड़कियां ये सब नहीं करती हैं”

एक नज़्म उन लोगों के नाम जो ऊपर लिखे हुए लफ्ज़ों से इत्तेफाक रखते हैं।

अगर मेरे मुंह मे ज़ुबान है
और ज़ुबान में इतनी ताक़त है
कि मैं सही को सही और ग़लत को ग़लत कह सकती हूं
तो हां! शरीफ नहीं हूं मैं!

मेरी सोच अगर मुझे
डराने वालों से ना डरने की हिम्मत देती है,
तो हां! शरीफ़ नहीं हूं मैं।

मेरे सामने जब कट्टा लेकर कोई
गोली चलाने की धमकी दे,
और मैं पीछे ना हटूं,
तो हां! शरीफ़ नहीं हूं मैं!

तेरे झूठे वादों पर हंसने की हिम्मत अगर है मुझमें
तो हां! शरीफ़ नहीं हूं मैं!

अगर घर की चार दीवारी से निकलकर
सड़कों पर अपनी अवाज़ बुलंद करने की हिम्मत है मुझमें,
तो हां! शरीफ नहीं हूं मैं!

अगर इन सर्दी की रातों में
रोड पर सोना चाहती हूं,
तो हां! शरीफ़ नहीं हूं मैं!

अगर अपने इल्म को सही जगह इस्तेमाल करने की समझ है मुझमें
तो हां! शरीफ नहीं हूं मैं!

अगर दूसरों की तकलीफ को ख़ुद की तकलीफ समझकर
अपनी पलकों के आंसुओं को रोककर,
उनसे हिम्मत लेने की ताक़त है मुझमें
तो हां! शरीफ नहीं हूं मैं!

अगर अपनी तकलीफों को नज़रअंदाज़ करके
दूसरों के लिए लड़ने चली हूं,
तो हां! शरीफ़ नहीं हूं मैं!

अगर खुद की जान की परवाह ना करके
दूसरों का ख़्याल रख रही हूं,
तो हां! शरीफ नहीं हूं मैं!

अगर इस हक़ की लड़ाई में
बिना डरे लड़ रही हूं मैं,
तो हां! शरीफ नहीं हूं मैं!

क्योंकि, अगर इस लड़ाई से हटकर
अपने लोगों को अकेला छोड़कर,
छुपकर, डरकर
घर पर बैठ जाना, अगर शराफत है,
तो हां! शरीफ नाहीं हूं मैं!

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