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“ऐश्वर्या, तुम न्याय के झूठे नियमों के बोझ तले कुचल दी गई”

“ये निश्चित हो कि मेरी ‘इंस्पायर स्कॉलरशिप’ मेरे परिवार को मिले।” ये शब्द हैं 19 वर्षीय ऐश्वर्या रेड्डी, बीएससी गणित की छात्रा के, जिसने 2 नवम्बर को अपनी जान ले ली।

इस आत्महत्या को संस्थागत हत्या बोलना ही सही होगा, क्योंकि ऐश्वर्या आर्थिक तनाव और उसके कारण हो रहे जीवन यापन की मुश्किलों से गुज़र रही थी, जिसमें लेडी श्रीराम कॉलेज और केंद्र सरकार का साइंस एंड टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट ज़िम्मेदार है।

LSR की घटिया हॉस्टल पॉलिसी, जो केवल पहले साल में सरकारी हॉस्टल देकर स्टूडेंट्स को आवास के बाज़ारीकरण और मेहेंगे PG के मालिकों के हाथों छोड़ देती है। ये ही तो सरकारी विश्वविद्यालय या शिक्षा के बाज़ारीकरण और निजीकरण का पहला कदम है | ये नव-उदारवादी वक़्त के सरकारी विश्वविद्यालय हैं।

नई शिक्षा नीति और विद्यार्थियों के जीवन पर बोझ

इसके अलावा स्कॉलरशिप में एक साल की देरी, महंगाई, महामारी में काम का छूटना, ऑनलाइन शिक्षा और उसके कारण सामने आईं तकनीकी असमानताएं और नई शिक्षा नीति सब ज़िम्मेदार हैं।

इसके पीछे ज़िम्मेदार हैं वे सब शैक्षणिक संस्थान, जो छात्र की छवि में एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना करते हैं, जो सामजिक न्याय, देश-दुनिया के कवि और बुद्धिजीवी के बारे में अंग्रेज़ी में पढ़ें-लिखें, ट्रॉफी लाएं और लैपटॉप पर ही क्लास, असाइनमेंट और इम्तिहान कर लें।

कॉलेज की ‘रैंक’ के आधार पर परिकल्पना थोड़ी ऊपर-नीचे हो सकती है। तभी IGNOU ने हाल ही में ऑफलाइन लिखित इम्तिहान लिए हैं और देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थान बिना लैपटॉप और निरंतर इंटरनेट के प्रवाह वाले छात्र की कल्पना भी नहीं करते।

शिक्षा का बाज़ारीकरण और ज़िन्दगी से हारते स्टूडेंट्स

ये कल्पना आकस्मिक या गलती से नहीं है, बल्कि सोची-समझी कल्पना है, जिसके द्वारा शिक्षा और प्रतियोगिता का ढांचा उसी चेतना में बने और यही चेतना आने वाली शिक्षा के लॉजिक का सामान्यीकरण करे।

ऐश्वर्या के पास लैपटॉप, इंटरनेट पैक जैसे संसाधनों में कमी और पढ़ाई के लिए लिया गया कर्ज़, उसकी निजी कमी या ज़िम्मेदारी नहीं थी, बल्कि उच्च शिक्षा में हमेशा से रही असमानता, शोषण और उसे बनाए रखने का लॉजिक का सामने आना है। उसका नया रूप लेकर इसको नए तरह से गढ़ना है, जो पूरी दुनिया और भारत में हर स्कूल और यूनिवर्सिटी में देखा जा रहा है।

ऐश्वर्या के सपनों को ज़िंदा दफन करने वाले नियम

मैं ये गहराई से नहीं  कह सकती कि उसके परिवार ने मजबूरन क्या-क्या गंवाया है? आप यहां पढ़ सकते हैं लेकिन वो उस पड़ाव पर थी, जहां वो परिवार के किए गए समझौते और बढ़ते बोझ तले दब सी गई थी। इस पर हॉस्टल सीट गंवाना, एक साल स्कॉलरशिप का पैसा ना आना और पीजी के लिए हर महीने दसियों हज़ार रुपये देना उसके डिग्री पूरी होने की आशा को खत्म कर रहे होंगे।

इस बेहद झकझोर देने वाले कदम के लिए ज़ाहिर ही कई प्रतिक्रियाएं निकलीं। दुःख, शोक, गुस्सा, आघात, असमंजस और अपनी परिस्थिति से जोड़ते हुए ऐश्वर्या की स्थिति को समझने की कोशिश करना। हास्यास्पद बात यह है कि ऐश्वर्या की मौत की जानकारी और उस पर हो रहा थोड़ा बहुत सार्वजनिक आक्रोश भी इसीलिए ही हो रहा है, क्योंकि वो इस टॉप कॉलेज की छात्रा थी।

जिस संस्थान के प्रशासन की नीति और उसे बनाने वाले लोगों के सत्तारुढ़ पेशकश ने उसकी जान ली, उसी संस्थान के नाम और सामाजिक पूंजी के कारण हम यहां चर्चा कर रहे हैं। इससे यह साबित होता है कि ऐसे संस्थान सर्वश्रेष्ठ बनते ही तब हैं, जब वे एक बहुत बड़े तबके को पीछे छोड़ अपना वर्चस्व खड़ा करते हैं। उसे बनाए रखने के लिए हाई कट ऑफ के रूप में मेरिट के नाम पर कई स्टूडेंट्स का भाषा, जाति, वर्ग और क्षेत्र आदि के आधार पर बहिष्कार किया जाता है।

कॉलेज प्रसाशन का विचलित करने वाला रवैया

कॉलेज की ‘छवि’ और उसके पीछे दशकों से इकट्ठे किये हुए सामाजिक पूंजी के समर्थन में आई LSR की ‘ELSA’ नामक पूर्व छात्रों के आधिकारिक समूह की प्रतिक्रिया चौंकाने वाली तो नहीं है। लेकिन बेहद शर्मनाक है। वो ऐश्वर्या के पत्र से कोई वास्ता ना रखने पर गर्व से अपने “सर्वश्रेष्ठ” संस्थान के स्पोक्सपर्सन बनते हुए लिखते हैं।

हम इस आत्महत्या से अपनी प्रिंसिपल की तरह चौंके हुए हैं। हमें पता चला है कि ऐश्वर्या ने कभी प्रशासन तक पहुंच बनाने की कोशिश नहीं की” और “LSR में योग्य मानसिक स्वास्थ्य काउंसिलर” होने का हवाला दिया। ये सोचना कि प्रशासन या प्रिंसिपल को छात्रों की दिक्कतों की खबर नहीं है। यह तथ्य मज़ाक लगता है। वो भी तब जब छात्र आपस में सर्वे करके ये पता लगा चुके हों के ऑनलाइन क्लासेज से क्या ज़रुरतें और परेशानियां उभर रही होंगी और उनका निजात क्या हो सकता है।

अंत में अपने  प्रयास “एल्सा- दिल  से  चैरिटी” के नाम से ज़रूरतमंद छात्रों और अपने कॉलेज को मानवीय मदद देने की अपील करते हैं। लोगों  का  एकजुट होकर समय में एक-दूसरे की मदद करना तो ज़रूरी है लेकिन उस पर निर्भर हो समस्याओं को बिना इतिहास और संरचनाओं के बगैर देखना उनकी तीव्रता और त्रासदी को छुपाना है।

ये NGO लॉजिक है, ना कि मुश्किलों की जड़ में जाकर उनके खिलाफ संगठित होकर या उन्हें उखाड़ फेंकने की कोई अपील। बल्कि आर्थिक मुश्किलों, और ऐसे सर्वश्रेष्ठ  संस्थानों को पूँजी और जाति व्यवस्था के बदौलत “सर्वश्रेष्ठ” बनाए रखने  की अपील है।

ये अपील दर्शाती है उन हज़ारों-पूर्व छात्रों की वैचारिक और राजनैतिक दिवालियापन जहां वो वापिस लौट गए हैं, जो ये भूल गए हैं कि चैरिटी या डोनेशन देकर वो एक व्यक्ति की मदद शायद कर पाएं लेकिन वो इस संस्थागत रवैये को बढ़ावा देने के आलावा कुछ नहीं कर सकते। अगर वो कुछ ना बोलते तो ही बेहतर होता। ऐश्वर्या तुम्हें न्याय नहीं मिला!

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