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“वैक्सीन और रोज़गार के वादों के बीच बिहार में फासीवादी सरकार जीत गई”

बिहार की राजधानी पटना देश के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है। बिहार चुनाव में सबसे ज़रूरी मुद्दे पर्यावरण, माइग्रेशन, बिहार की स्मार्ट सिटीज़, रोज़गार, शिक्षा,  मेडिकल व्यवस्था, भ्रष्टाचार, भोजपुरी सिनेमा का भविष्य होने चाहिए थे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बात सिर्फ रोज़गार और वैक्सीन तक आकर रह गई और फिर फासीवादी सरकार जीत गई।

कांटे की टक्कर ज़रूर हुई लेकिन एक बार यह फिर साबित हो गया कि जब मीडिया और चुनाव आयोग जेब में हो और  5% से 10% ईवीएम के वोटों को पलट दिया जाए, तो सत्ता काबिज़ हो सकती है। इसलिए आपको एक क्रिकेट टीम की तरह अपने वोटिंग रिकॉर्ड रेट का ध्यान रखना होगा।

बिहार में राजनीतिक अशिक्षा दर कितनी अधिक है, इसका अंदाज़ा भी पूरे लिबरल तबके को हो गया। लोग यहां अपनी रोज़मर्रा ज़िन्दगी से जुड़े मुद्दों की फिक्र ना कर बीजेपी के नौटंकीपूर्ण झांसे में फिर आ गए। लोगों को मूर्ख कह देना बड़ा आसान है लेकिन इस चुनाव परिणाम का मतलब है बाकी पार्टियां अपनी बात लोगों तक पहुंचाने में कितनी निकम्मी हैं, यह भी साबित हो गया।

अब आगे बिहार के विकास की राह क्या होनी चाहिए आइए बात करते हैं।

बिहार के विकास के लिए उसका बंटना ज़रूरी है

स्थापित राजनीतिक पार्टियां बिहार को बस उसकी 40 लोकसभा सीटों और 245 विधानसभा सीटों पर कब्ज़े के लिए देखती हैं। कारण समझिए, झारखंड के अलग होने के बाद भी अकेले यूपी और बिहार से सीटें जीतकर केंद्र में सत्ता काबिज़ की जा सकती है।

सालों से बिहार नीतीश-लालू पॉलिटिक्स की मार झेल रहा है। इस बार चुनाव प्रधानमंत्री के नाम पर हुआ। नीतीश, जिनकी पार्टी को ही पूरी तरह से नकार दिया गया ,उन्हें फिर मुख्यमंत्री बना दिया गया। जातिगत तुष्टीकरण के नाम पर दो नालायक उपमुख्यमंत्री बनाये गए।

अगर वाकई बिहार क्षेत्र का विकास वहां के लोग चाह रहे हैं, तो उन्हें बिहार के बंटवारे की मांग को लेकर सड़क पर आना शुरू कर देना चाहिए। बिहार की 40 सीटें सांस्कृतिक आधार पर बांटकर मिथिला प्रदेश, भोजपुर और मगध राज्यों में तब्दील कर दी जाए इससे यहां की सांस्कृतिक धरोहरें भी बच सकती हैं और यहां के लोग तुच्छ राजनीति की मार से भी बच जाएंगे। अगर इक्छाशक्ति होगी तो तीन अलग-अलग मुख्यमंत्री सापेक्षिक तौर पर अपने छोटे-छोटे क्षेत्रों में बेहतर ढंग से काम कर पाएंगे।

बिहार के पास एक सक्षम विपक्ष है

बिहार की निरक्षरता देखते हुए मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं अगर बिहार तेजस्वी यादव को कल मुख्यमंत्री बना दे। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि शायद तेजस्वी नीतीश से बेहतर काम कर दें लेकिन इन सब से बिहार के आम नागरिक की ज़िन्दगी में कोई खास अंतर नहीं आने वाला है।

बिहार के हर नेता को पता है कि बीजेपी की धन-शक्ति अब अपार हो चुकी है। देश के सारे बड़े इंडस्ट्रीलिस्ट बीजेपी की जेब में या यूं कहूं कि बीजेपी उनकी जेब में है।

अब विपक्ष को चाहिए कि आम आदमी से जुड़े हर मुद्दे पर सत्ताधारियों की चमड़ी उधेड़ डाले और बीजेपी की भावुकता-सांप्रदायिकता वाली राजनीति से बचने के लिए जनता का टीकाकरण करे। वह हर एक सीट जहां विपक्ष जीता है, वहां बीजेपी से 50 गुना बेहतर परफॉर्म करें।

खासतौर पर केजरीवाल के शिक्षा मॉडल और मुहल्ला क्लिनिक को कॉपी करें। भावुकतापूर्ण मुद्दों पर बीजेपी लोगों को खींचना चाहती है। उससे लोगों को दूर करना होगा। वर्तमान महाराष्ट्र सरकार से बाकी सरकारों को यह सीखना चाहिए कि हिन्दुओं के मुद्दों से कैसे दो राय रखते हुए वोट बैंक बनाए रखना है।

90 के दशक में पले-बढ़े युवाओं को राजनीति में आना होगा

मात्र एक पुष्पम प्रिया चौधरी से कुछ नहीं होगा। उन्हें सिर्फ खुद का चेहरा बेचने के बजाय हर एक उम्मीदवार का चेहरा उतना ही बेचना होगा जितना वो खुद का चेहरा बेचती हैं।

नहीं तो लोगों की नज़रों में उनमें, मोदी और केजरीवाल में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। प्लुरल्स पार्टी की अभी तक जो विचारधारा बताई गई है, वह सराहनीय है। कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को प्लुरल्स पार्टी का साथ देना चाहिए।

बिहार के उदय के लिए कलाकारों को आंदोलनकारी बनना होगा

बिहार की खराब हालत के लिए यहां का सिनेमा और सिनेमा मालिक बड़े ज़िम्मेदार हैं। वे लोगों को घाघरा और चोली से निकलने ही नहीं दे रहे हैं। एक हद तक जैसा सिनेमा है, बिहारी समाज उसी तरह तब्दील हो चुका है।

न्यूज़ और प्रिन्ट मीडिया तो पूरी तरह सरकार के तलवे चाट चाटकर नंगा नाच कर रहा है लेकिन ओटीटी के दौर में अगर संजीदा बिहारी फिल्म मेकर, खिलाड़ी, साहित्यकार और अन्य कलाकार अपने अपने मुद्दों पर मिल जुलकर कुछ बनाएं तो वाकई में बड़े बदलाव संभव हैं। अन्यथा बिहार की हालत भोजपुरी फिल्मों के स्टेंडर्ड की तरह गिरती ही जाएगी।

बिहार के शानदार साहित्य पर कई फिल्में बन सकती हैं। लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर फिल्म बननी चाहिए। भिखारी ठाकुर पर, जिन्हें ‘शेक्सपीयर ऑफ भोजपुरी’ कहा जाता है, पर फिल्म बननी चाहिए और उनके लिखे उपन्यास-नाटकों पर भी।

ऋषिकेश सुलभ के ‘अग्निलीक’ पर फिल्म बननी चाहिए। रामवृक्ष बेनीपुरी पर ‘बेनीपुरी की डायरी’ नाम से फिल्म बननी चाहिए। रेणु के ‘मैला आंचल’ पर फिल्म बननी चाहिए। बिहार के फिल्मकारों में यह काम इम्तियाज़ अली, नीरज पांडे, प्रकाश झा या ब्रह्मानंद सिंह ही कर सकते हैं। बाहर से यह काम अनुराग कश्यप या अनुभव सिन्हा कर सकते हैं। थिएटर के माध्यम से बाबा नागर्जुन की कविताओं का मंचन जगह जगह होना चाहिए।

संजीदा बिहारियों को एक साथ आना होगा

मोदी स्वयं को राम के अवतार के तौर पर प्रोज़ेक्ट कर चुके हैं। राम भगवान थे, भगवान से सवाल नहीं होते उनकी सिर्फ भक्ति होती है। रामराज्य में चुनाव की क्या ज़रूरत? इसलिए यह सम्भावना भी है कि 2024 के पहले लोकसभा चुनाव ना होने देने की साजिश रची जाए और हमारा पॉपुलिस्ट और नैशनलिस्ट देश इसके लिए मान भी जाए।

दुनिया के तमाम हिस्सों में बिहारी बड़ा कमाल कर रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि सब एक साथ आ जाएं और मिल-जुलकर बिहार और उसकी मानवता के लिए कुछ करें।

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