यह कहानी दानापुर की रहने वाली शगुन (बदला हुआ नाम) की है, जिन्होंने घरेलू हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की और आज अपने पति से अलग होकर अपने बेटे की परवरिश कर रही हैं।
शगुन पेशे से टीचर हैं। जब उन्हें पिछले साल अपने पति के एक्सट्रा मैरिटल अफेयर के बारे में पता चला तो उन्होंने इसके खिलाफ आवाज़ उठाई तो उन्हें पति के प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा।
शगुन ने आत्मनिर्भर बनने की ठानी
इसके बाद शगुन ने महिला थाना में शिकायत भी दर्ज़ कराई और काउंस्लिंग के दौरान निर्णय लिया कि वो अपने पति से अलग होंगी। अपने बेटे की परवरिश खुद करेंगी। ऐसे गिने-चुने मामले बहुत कम हैं लेकिन यह अपने आप में एक मिसाल है।
आज भले ही महिलाओं के लिए कई सारे अधिकार और कानून हैं लेकिन वे आज भी घरेलू हिंसा की शिकार हो रही हैं। विभिन्न आंकड़े भी दर्शाते हैं कि हर साल महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ रही है। इसका मुख्य कारण पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की कोई पहचान ना होना है। ज़रूरत है महिलाओं को एक-दूसरे को सपोर्ट करने और उन्हें उनसे जुड़े अधिकारों और कानूनों की सही जानकारी देने की।
घरेलू हिंसा के दर्ज़ मामले
महिला हेल्पलाइन में इस साल जनवरी से लेकर अक्टूबर महीने तक घरेलू हिंसा के 244 मामले, दहेज उत्पीड़न के 58 मामले और अन्य मामलों को मिलाकर कुल 420 मामले दर्ज़ किए गए हैं। वहीं, महिला थाने में जनवरी से लेकर 24 नवंबर तक महिलाओं के खिलाफ हिंसा को लेकर 131 मामले दर्ज़ किए गए हैं।
बिहार राज्य महिला आयोग के भंग होने से पहले के आंकड़ों की बात करें तो 31 अगस्त तक कुल 1400 से मामले दर्ज़ हुए थे।
पितृसत्तात्मक सोच महिलाओं को वस्तु के रूप में देखती है
यह जो पितृसत्तात्मक समाज है, वह महिलाओं पर अन्याय और शोषण को बढ़ाता है। महिलाएं हिंसा का शिकार होती हैं। हमारे समाज में कमज़ोर पर मज़बूत शासन करता है और इसी से हिंसा होती है।
ये जो मज़बूत शासक हैं, उनमें पितृसत्ता का प्रभुत्व है। पितृसत्तात्मक सोच महिलाओं को वस्तु के रूप में देखती है।
महिलाओं में पहचान का संकट हमेशा बना होता है। उसे एक माँ, बेटी, बहू, पत्नी का दर्ज़ा मिलता है लेकिन व्यक्तिगत कोई पहचान नहीं होती।
समाजशास्त्री डीएम दिवाकर का कहना है कि शिक्षा के विस्तार के साथ चीज़ें बदली हैं। इसलिए जहां एक ओर महिलाएं अपने साथ हो रही हिंसा के खिलाफ खड़ी हुई हैं, वहीं दूसरी ओर उनकी इस बुलंद आवाज़ को समाज बर्दाश्त नहीं कर पता है और हिंसा का रवैया अपनाता है। ज़रूरत है सोच में बदलाव लाने की।
वहीं, मनोचिकित्सक डॉ. बिंदा सिंह कहती हैं, “हमारे पास हर दिन घरेलू हिंसा को लेकर 2-3 मामले काउंस्लिंग के लिए आते हैं। बचपन से लड़कियों की जिस मानसिकता के साथ परवरिश की जाती है, उसमें उन्हें गलत के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाना, एडजस्ट करना और पुरुष ही डिसीजन मेकर हैं, बताया जाता है। इसका असर उनकी ज़िंदगी पर हमेशा के लिए रह जाता है। एक और अहम कारण यह भी है कि महिलाएं भी महिलाओं का सपोर्ट नहीं करती हैं। ज़रूरत है मानसिकता के साथ आपसी तालमेल बैठाने की जिसकी शुरुआत बचपन से करनी होगी।”
प्लूरल्स पार्टी की नेत्री शांभवी सिंह कहती हैं, “बिहार में महिला अपराध की जो स्थिति है, उसे देखते हुए यह बेहद ज़रूरी है कि महिलाओं की सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम किए जाएं। बिहार विधानसभा चुनाव में हमारी पार्टी का मुख्य फोकस ही इसी बात पर था कि हर पंचायत तथा वार्ड में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं। महिलाओं को सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देने के लिए स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स की स्थापना की जाए।”
शांभवी आगे कहती हैं, “महिला सुरक्षा संबंधित जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाएं और महिला अपराध से जुड़े कानूनों का पब्लिक डिसप्ले किया जाए। ताकि किसी भी महिला के खिलाफ कोई अपराध करने से पहले अपराधी को उसके अंजाम का पता हो। इसके अलावा महिलाओं को शिक्षित करने तथा लोक उद्यम से जोड़कर आत्मनिर्भर एवं सशक्त बनाना भी बेहद ज़रूरी है। शिक्षित व आत्मनिर्भर होने से महिलाओं को आत्मबल मिलेगा और वे अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ मुखर होकर आवाज़ उठा सकेंगी।”