एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते हमारा फर्ज़ है कि हम हमारे उम्मीदवारों तक हमारी परेशानियां और आवश्यकताएं रखें ताकि हमारे समाज के सभी ज़रूरी मुद्दे उन तक पहुंच सकें।
बिहार में अलग-अलग मुद्दों को लेकर चुनाव लड़े जाएंगे, जो उम्मीदवारों के हिसाब से लोगों के लिए महत्वपूर्ण हैं। जैसे- रोज़गार, बाढ़ की समस्या और बिहार का गौरव वापस लाने की कोशिश। ज़मीनी स्तर पर कई बार यह चुनाव जाति, धर्म के आधार पर लड़े जाते हैं।
कई दशकों से इन्हीं मुद्दों पर चुनाव लड़े गए हैं और जीते गए हैं। इन सब में एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है, जो हमेशा से छूटता रहा है और वह है गुणवत्तापूर्ण जन-शिक्षा का मुद्दा। इस नए दौर में एक सम्मानपूर्ण और प्रतिष्ठित जीवन जीने के लिए शिक्षा का महत्व शायद ही किसी को समझाना पड़े।
बिहार से बेहतर इस बात को कौन जान सकता है, जहां शिक्षा और रोज़गार के अच्छे मौके पाने के लिए हर साल पलायन होता है। आज हर रजिनीतिक पक्ष विकास की बात तो ज़रूर करता है मगर विकास लाने के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह है एक अच्छी प्रभावशाली शिक्षा और इस शिक्षा को सुधारने की बात शायद ही कोई पक्ष या उम्मीदवार करता है।
बिहार की शिक्षा में बदलाव लाने की आज क्यों ज़रूरत है?
बिहार की सरकारी शिक्षा की हालत अन्य राज्यों की तुलना में बहुत ही दयनीय है और शायद यही कारण है कि बिहार कई मामलों में पिछड़ा है। इसको हम कुछ आंकड़ों की मदद से अच्छे से समझ सकते हैं। हमारे स्कूली बच्चे हर साल अगली कक्षा में तो पहुंच जाते हैं मगर उस कक्षा का ज्ञान उनके पास नहीं होता है। उदाहरण के लिए बिहार में 5वीं कक्षा के केवल 35% बच्चे ही कक्षा 2 तक की हिन्दी पढ़ पाते हैं। बाकी 65% बच्चे वह भी नहीं पढ़ पाते। 25% से भी कम बच्चे गणित में भाग कर पाते हैं।
यह बहुत नाज़ुक स्थिति है और इसके कई कारण हैं। हमारे स्कूल आज भी शिक्षा के अधिकार कानून (RTE), 2009 के मानकों के हिसाब से नहीं चलते हैं। केवल 20% स्कूलों में इस मानक के हिसाब से स्टूडेंट्स और शिक्षकों की संख्या है। इसका मतलब जब शिक्षक-शिक्षिकाएं अपने छात्र-छात्राओं पर ठीक से ध्यान ही नहीं दे पाते हैं, तो हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करेंगे कैसे?
उपर से 37.8% प्राथमिक शिक्षक और 35.1% माध्यमिक शिक्षक स्कूलों में बिना प्रशिक्षण के पढ़ाते हैं। लड़कियों की परिस्थिति इस मामले मे लड़कों से भी कमज़ोर हैं। उनके पढ़-लिख पाने का स्तर लड़कों से कम है। लगभग 40% स्कूलों में तो लड़कियों के लिए शौचालय तक नहीं हैं।
अभी भी बिहार की 15-16 वर्ष के आयु की लगभग 9.8% लड़कियां स्कूलों मे भर्ती नहीं होती है। 3 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए भी स्थिति अच्छी नहीं है, जो कि बच्चों के विकास का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। इस उम्र के लगभग एक तिहाई बच्चे आंगनबाड़ी या नर्सरी में नहीं जाते। इसलिए उनकी स्कूल जाने को लेकर तैयारी नहीं हो पाती है।
अगर प्राथमिक स्तर पर 100 बच्चे एडमीशन लेते हैं, तो सिर्फ 37 बच्चे ही 12वीं तक की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। 63 बच्चों को बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देनी पड़ती है। अगर बच्चे पढ़ेंगे नहीं, तो जीवन में आगे बढ़ेंगे कैसे?
जन-शिक्षा को सुधारने के लिए हमारी सरकार क्या कर रही हैं?
शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए हमें और संसाधन लगाने होंगे। स्कूलों को, शिक्षक-शिक्षिकाओं को, छात्र-छात्राओं को और पालकों को आवश्यक सुविधाएं देनी होंगी। बिहार की सरकार प्रति छात्र सालाना सिर्फ 2869 रुपये खर्च करती है, जो कि भारत में सबसे कम हैं। यह RTE मानक के कुल खर्च के हिसाब से सिर्फ 30% है।
मतलब सरकार शिक्षा सुधार के लिए जब आवश्यक संसाधन नहीं लगा रही है, फिर हम कैसे बच्चों या शिक्षक-शिक्षिकाओं से अपेक्षा करेंगे कि वे बेहतर कर पाएं। तो ज़ाहिर है कि जन-शिक्षा की हालत खस्ता रहेगी। यही कारण है कि धीरे-धीरे गाँव के बच्चे अब निजी स्कूलों में फीस देकर पढ़ने जाते हैं। जबकि मुफ्त, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का मिलना हर एक बच्चे और उनके अभिभावकों का अधिकार है।
इस परिस्थिति को हमें बदलने की ज़रूरत है और आने वाली सरकार को शिक्षा के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी याद दिलाने की ज़रूरत है। शिक्षा को एक राजनीतिक मुद्दा बनाना आज की आवश्यकता बन चुकी है और इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर एक नया आंदोलन खड़ा हो रहा हैं जिसका नाम है “शिक्षा सत्याग्रह।”
शिक्षा सत्याग्रह संवैधानिक दृष्टि और मूल्यों के आधार पर शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था के विमर्श की पुनरकल्पना करने के लिए प्रतिबद्ध सामुदायिक पहल एवं आंदोलन है। इस आन्दोलन का उद्देश्य शिक्षा को हमारे समुदाय के बीच एक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा बनाना है।
जनता के हित के मुद्दों को अनदेखा करना, उन्हें हाशिये पर धकेलना और अपने उत्तरदायित्वों से पीछे हटने को लेकर उन प्रतिनिधियों को ज़िम्मेदार ठहराना आवश्यक है। शिक्षा किस तरह लोकतंत्र की जड़ मज़बूत करती है वह हमें, इस देश के नागरिकों को समझाना होगा और शिक्षा को इस चुनाव में मुद्दा बनाने के लिए हम सब को लड़ना होगा।
तो आईए हम प्रण लेते हैं कि जब भी इस चुनाव के लिए कोई भी उम्मीदवार वोट मांगने आए तो हम उनसे सबसे पहले शिक्षा की बात करेंगे। क्या वह हमारे गांव के सरकारी स्कूल को सुधारने के लिए तैयार हैं? क्या वहां पर टॉयलेट, पुस्तकालय, पोषण युक्त मिड डे मील, कंप्यूटर लैब, बिजली-पंखा आदि की व्यवस्था देने को तैयार हैं?
क्या वहां पर शिक्षक-शिक्षिकाओं की हाज़िरी सुनिश्चित कराने और उन्हें प्रशिक्षण उपलब्ध कराने को तैयार हैं? क्योंकि अगर हमने आज यह सवाल नहीं पूछे तो कल हमारे बच्चे हम से सवाल पूछेंगे कि हम बेरोज़गार क्यों घूम रहे हैं?
सोर्स- ASER (Annual Status of Education Report) 2018, NIPFP Working paper series (9/12/2017)