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“अर्णब गोस्वामी, आखिर आपको अभिव्यक्ति की और कितनी आज़ादी चाहिए थी?”

लोकतंत्र को मीडिया का चौथा स्तम्भ कहा गया है। मीडिया को लोकतंत्र को ज़िदा रखने का ज़रिया माना गया है। मीडिया का काम जनमानस की आवाज़ को उठाना और सत्ता पक्ष के सामने जनता की आवाज़ उठाते हुए सवाल करना है लेकिन आज मीडिया को जनता की आवाज़ कम, सरकार की आवाज़ अधिक बनते हुए देखा जा रहा है।

दर्शकों का बंटना या राजनीतिक साज़िश

दर्शक वर्ग कहीं-ना-कहीं मीडिया के दो गुटों में बंटा हुआ देखने लगा है। एक वो जिसे सरकार के विपक्षी तो दूसरे को गोदी मीडिया की संज्ञा दी जा रही है। कहीं-ना-कहीं आज मीडिया को अपने नैतिक मूल्यों व कर्तव्यों से भटकते हुए भी देखा जा सकता है। आज पत्रकार को किसी राजनैतिक पार्टी की विचारधारा और पक्ष-विपक्ष के तराजू में तौला जाने लगा है। पत्रकार को “दलाल” जैसे शब्दों से संबोधित किया जा रहा है, जो कि बेहद चिंता का विषय है।

कहीं-ना-कहीं मीडिया की इस छवि के लिए ज़िम्मेदार तथाकथित जाने-माने पत्रकार खुद हैं, जो देश व किसी राज्य की मौजूदा सरकार और उनकी विचारधारा की मौजूदगी के आधार पर उनसे सवाल पूछा करते हैं। एक समय मौजूदा एनडीए सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी का गलत प्रयोग बताते हुए एनडीटीवी पर एक दिन का प्रतिबंध लगाया गया था। तब एनडीटीवी ने अपने प्राइम टाइम में “ब्लैक स्क्रीन” प्रस्तुत करते हुए लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ को खतरे में बताया था।

हालांकि इस दौरान सरकार के इस कदम की जमकर आलोचना हुई। साथ ही साथ सत्ता पक्ष के सामर्थकों व बहुमत वर्ग से संबन्धित लोगों का मानना था कि एनडीटीवी के एंकर रवीश कुमार ने अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुरपयोग किया है।

राजनीतिक उधेड़बुन का शिकार होते दर्शक

रवीश कुमार को लेकर यह मुद्दा चर्चा का विषय बना रहा। वहीं, ऐसे कई मौके रहे जब देश के कई राज्यों में पत्रकारों की आवाज़ को दबाया गया। साथ ही उन्हे प्रताड़ित किया गया लेकिन उनकी खुद की खबरें ना कभी अखबारों के मुख्य पेज का हिस्सा बन सकीं और ना ही चैनलों के प्राइम टाइम का मुद्दा। शायद वे पत्रकार बड़े नामों की वजह से चर्चा का विषय ना बन पाएं और उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी की हमें चिंता ना हुई।

वहीं, आज रिपब्लिक भारत के वरिष्ठ पत्रकार अर्णव गोस्वामी की गिरफ्तारी को लेकर देशभर में बवाल मचा हुआ है। मानो मीडिया जगत की अभिव्यक्ति की आज़ादी को महाराष्ट्र की उद्धव सरकार और महाराष्ट्र पुलिस ने अपनी मुट्ठी में कैद कर ली हो और लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ ध्वस्त हो चुका हो लेकिन सही मायने में लोकतंत्र का यह चौथा स्तम्भ तो उस दिन ही जर्जर पड़ना शुरू हो गया था, जब टीवी एंकर अपने उद्देश्यों, नैतिकता, भाषा और मर्यादा को भूलते हुए एक पत्रकार के बजाय सड़क छाप गुंडे की भाषा का प्रयोग करने लगे थे।

सरकार से सहज व मर्यादित भाषा में सवाल करने के बजाय जब वे उन्हें ललकारने लगे थे। अभिव्यक्ति व लोकतंत्र की दुहाई देते हुए मीडिया आज एक माध्यम और पत्रकार के बजाय एक जज की भूमिका में आ चुका है। ऐसे में मीडिया के चौथे स्तंभ की नींव आज अपने स्थान से खिसक चुकी है।

आज अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर विरोध या समर्थन जताने से पहले हमें यह सोचने की ज़रूरत है कि वास्तव में हम अपने लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की दबती आवाज़ को लेकर चिंतित हैं या किसी राजनैतिक दल व उसकी विचारधारा के आधिपत्य को लेकर। यदि हम एक पत्रकार और मीडिया की दबती आवाज़ को लेकर चिंतित हैं या एक पत्रकार के तौर पर लोकतंत्र की दुहाई दे रहें है, तो एक बार फिर हमें अपनी आंखो से काली पट्टी को हटाते हुए टीवी स्क्रीन के सच को देखने और तमाम गुमशुदा पत्रकारों की आवाज़ को सुनने और सुनाने की ज़रूरत है।

सरकार द्वारा नियुक्त हुए पत्रकार

हाल ही में रिपब्लिक टीवी के वरिष्ठ पत्रकार अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री समेत कई बड़े नेताओं ने विरोध दर्ज़ किया और इसकी तुलना तत्कालीन काँग्रेस सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल से की। वहीं, इसके विपरीत उत्तर प्रदेश में पिछले एक साल में देखें तो दर्ज़नों पत्रकारों के ऊपर एफआईआर दर्ज़ हो चुकी हैं लेकिन चिंता का विषय यह है कि तब ना कोई पत्रकार समुदाय सड़कों पर आया और ना ही किसी राजनेता को आपातकाल की याद आई।

5 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार किए गए एक पत्रकार सिद्दीक कप्पन की अभी तक कोई सुनवाई नहीं हुई है। उनकी जमानत याचिका पर सुप्रीम कोर्ट गिरफ्तारी के लगभग डेढ़ महीने बाद 16 नवंबर को सुनवाई करेगा। दरअसल, कप्पन हाल ही में हाथरस में हुए सामूहिक बलात्कार की पीड़िता के परिवार के सदस्यों से मिलने उनके गाँव जा रहे थे।

तभी मथुरा पुलिस ने उन्हें और उनके जैसे अन्य पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया था। इसी तरह गुजरात में भी सरकार के विरुद्ध कदम बढ़ाए जाने पर पत्रकारों पर केस दर्ज हैं लेकिन उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी की चिंता करने वाला कोई नहीं है। शायद इसकी वजह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन पत्रकारों का सरकार की तरफ झुकाव ना होना और बड़ा नाम ना होना रहा।

नैतिकता के ध्वज को आग लगाते झूठे पत्रकार

निश्चित तौर पर महाराष्ट्र पुलिस द्वारा अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी पहली नज़र में एक बदले की कार्रवाई नज़र आती है लेकिन इस गिरफ्तारी का विरोध यह कहते हुए करना कि मीडिया की आवाज़ को दबाया जा रहा है या यह अभिव्यक्ति की आज़ादी पर चोट है, कितना जायज़ है? आखिर अर्णब गोस्वामी को अभिव्यक्ति की और कितनी आज़ादी चाहिए थी?

एक एंकर जो अपनी मर्यादा और भाषाई गरिमा को तार-तार करते हुए शासन- प्रशासन व किसी व्यक्ति विशेष को व्यक्तिगत तौर पर तीखे आवाज़ में ललकार रहा हो, यह कहां तक जायज है? क्या हम जिस अभिव्यक्ति की दुहाई दे रहे हैं, वो यही आवाज़ है?

दरअसल, लोकतंत्र की रक्षा करने वाला पत्रकार आज खुद या तो राजनीतिक पार्टियों की छवि में अपने पांव पसार रहा है या किसी ना किसी रूप में लोभ और गंदी राजनीति का शिकार हो गर्त में जा रहा है। ऐसे में युवा पत्रकारों को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के किसी तरफ झुकाव के बिना एक बार पुनः खड़ा करने की ज़रूरत है। न्यूज़ चैनल को वॉर-रूम और अखाड़ा बनाने के बजाय प्रतिनिधियों को सुनने और समझने की ज़रूरत है।

सस्पेंस, द्वेष और ड्रामा बेचने के बजाय खबर प्रस्तुत करने की ज़रूरत है। फिर ना अभिव्यक्ति की आज़ादी खतरे में होगी और ना ही लोकतंत्र बचाने की ज़रूरत पड़ेगी। हालांकि इससे इंकार नही किया जा सकता कि महाराष्ट्र सरकार या किसी भी सत्ता दल व प्रशासन द्वारा मीडिया पर इस तरह का हमला गलत है लेकिन जनता की आवाज़ होने के नाते मीडिया या एक पत्रकार को भी अपनी मर्यादा और नैतिकता का ध्यान रखना ज़रूरी है।

विश्वसनीयता को बरकरार रखने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम

हमें सोचना ज़रूरी है कि आज हम भारतीय पत्रकारिता को किस दिशा में ले जा रहे हैं। इसका आगामी परिणाम क्या होगा? आज सही मायने में सारे पत्रकारों को एक साथ खड़े होने की ज़रूरत है। इसलिए नहीं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर हम अमर्यादित भाषा और खबरों के नाम पर चिल्ल्म-चिल्ली का समर्थन करें, बल्कि इसलिए साथ खड़े होने की ज़रूरत है कि मीडिया से अराजकता को दूर करते हुए एक बार पुनः इसे विश्वसनीय, मर्यादित और मज़बूत बनाया जा सके।

एकजुट होकर मीडिया की आवाज़ को बुलंद किया जा सके, जिससे किसी पत्रकार को सरकारी तंत्र के तलवे ना चाटने पड़े, ना ही सत्ता की तानाशाही का शिकार होना पड़े। साथ ही उद्धव सरकार को सोचने की ज़रूरत है कि उनका यह कदम कितना सार्थक है? क्योंकि अगर ऐसे बहाने ढूंढकर सत्ता बल का प्रयोग किया जाने लगा, तो देश के अनेकों पत्रकार जेल में होंगे।

वहीं, बतौर पत्रकार अगर उद्धव सरकार के इस कदम के खिलाफ हमारा समर्थन अर्णब गोस्वामी के साथ है, तो देश में रवीश कुमार, गौरी लंकेश जैसे पत्रकार और साथ ही अलग-अलग राज्यों के उन गुमनाम पत्रकारों के प्रति भी हमारी संवेदनाए और समर्थन होनी चाहिए, जो अक्सर सरकार से तीखे सवाल पूछने को लेकर चर्चा में रहें। वास्तव में हमें मीडिया के मौजूदा हालात और इसमें बढ़ते राजनैतिक हस्तक्षेप पर गहनता से विचार करने और सुधार करने की ज़रूरत है।

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