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कैसे दक्षिणपंथियों के लिए सरदर्द बन गई हैं लोकगायिका नेहा सिंह राठौर?

जब देश के बेरोज़गारों के सामने भाजपा आईटी सेल तक ने घुटने टेक दिए थे और जब डिसलाइक से पस्त होकर पीएमओ ने लाइक-डिसलाइक बटन ही हटा दिया था, उस आंदोलन को हवा देने में नेहा सिंह राठौर का भी एक बड़ा रोल था।

तब देशभर में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वालों के फेसबुक पोस्ट और व्हाट्सएप्प ग्रुप में इनके ही गीत घूमते थे। तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स के बीच तब वो सबसे पसंदीदा चेहरा हुआ करती थीं, अगर उनका दिमाग ठौर-ठिकाने पर होगा तो शायद आज भी होंगी।

‘बिहार में का बा’ गाना नेहा ने गाया

बिहार चुनाव के शुरुआत में ही ‘बिहार में का बा’ गाकर नेहा ने ऐसा प्रभाव डाला कि पहली बार चुनावों में एक सकारात्मक एजेंडा सेट हुआ था। सरकार को इसी ट्रेंड पर चलते हुए हर सवाल का जवाब देना पड़ गया। जब जवाब देते नहीं बना तो एक छोटी उम्र की लोकगायिका से इनकी हल्की छवि गढ़ने की कोशिश की गई और मैथिली से सरकार की तारीफ में कसीदे भी पढ़ाए गए। फिर भी पूरे चुनाव में ‘का बा’ ही हावी रहा, ना कि “का नय छै।” अब वही जनगीत रहा होगा तभी तो जनता ने अपनी जुबान पर रखा?

उत्तरप्रदेश के हाथरस कांड मामले में “तब बुझिह कि रामराज ह” ने एक अलग ही संवेदना के साथ सब कुछ बयान किया था। नेहा का गाया गाना पहले तो देश की सरकार, फिर बिहार की सरकार और फिर उत्तरप्रदेश की सरकार के नाक में भी दम कर गया। सरकार के साथ ही दक्षिणपंथी ताकतों के पास भी कभी कोई काट नहीं थी, क्योंकि हर बार जनता इनके गीत से जुड़ चुकी थी।

ऐसे में ये इलाहाबाद यूनिवर्सिटी तो बस बहाना हो गया। पहली बार दक्षिणपंथियों को यह लगा कि यहां घेरने का पूरा-पूरा अवसर हो सकता है, क्योंकि गीत किसी बहुत बड़ी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा था। हालांकि कैंपसों का एक सच बयान ज़रूर कर रहा था और जिसे उसी विश्वविद्यालय के छात्र स्वीकारते रहे हैं, जिसे बीते दो दिनों में स्वीकारा भी है।

नेहा दक्षिणपंथियों की नज़र में 

नेहा एंटी इस्टैब्लिशमेंट की एक प्रतीक के रूप में सामने हैं और अभी हर कोई अपना उचित ईनाम पाने के लिए ही बस पीछे पड़ा है। थोड़ा तो सीना चौड़ा कर पाएंगे कि जहां सरकार कुछ ना कर सकी, वहां उन्होंने कुछ कर दिखाया। ये मुंगेरी लाल के हसीन सपने हैं। ज़्यादा-से-ज़्यादा यह कमेंट बॉक्स में उन्हें गाली देकर अपना वह चरित्र दिखा सकते हैं, जो नेहा से छूट गया था।

सबसे ओछी बात तो यह है कि आइडेंटिटी क्राइसिस से जूझते लोग इनके अकादमिक पर टिप्पणी कर रहे हैं। अगर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का एंट्रेंस नहीं ही क्लियर हुआ होगा तो क्या फर्क पड़ता है? चार महीने पहले जब यूनिवर्सिटी के बेरोज़गार स्टूडेंट्स सड़क पर थे, तब उन्होंने सोशल मीडिया पर इनके ही गीत को शेयर किया था। जी हां, वही गीत जिससे भाजपा के माथे की नस तन जाती है।

आधे कॉलम का पेपर कटिंग डालने वालों, उसके घर पर टीवी चैनलों के रिपोर्टरों का जमावड़ा लगता रहता है। मैं तो चाहता हूं, शुद्ध से दो लाइन लिखने में दांत चियार देने वाले सीखें कि भाषा पर इनकी पकड़ कैसी है? अगर दूसरे की डिग्री-विग्री को लेकर इतने उत्तेजित हैं, तो प्रधानमंत्री जी से उनके एंटायर पॉलिटकल साइंस वाली डिग्री मांग लीजिए जिनको पूरा देश ही बर्बाद करने के लिए सौंप दिया है।

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