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क्या घरों या दफ्तरों में होने वाली पॉलिटिक्स राजनीतिक दलों की राजनीति से अलग है?

पॉलिटिक्स शब्द सुनते ही हमारे मन-मस्तिष्क में एक नकारात्मक छवि उभरती है। आज़ादी से लेकर अब तक राजनीतिक जगत में बहुत से परिवर्तन हुए और उन परिवर्तनों का सीधा असर आम जनता पर पड़ा है लेकिन विचारणीय यह है कि क्या पॉलिटिक्स शब्द सिर्फ राजनीतिक जगत तक ही सीमित है?

अगर हम अपने आसपास के परिवेश पर ध्यान दें तो शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र हमें मिलेगा जो कि पॉलिटिक्स से अछूता रह गया है। चाहे बात बड़े व्यापार की हो या छोटे कारोबार की या किसी स्कूल, कोई संस्था और तो और हमारा अपना घर, हर स्तर पर पॉलिटिक्स किसी-ना-किसी रूप में देखने को मिल ही जाती है।

अक्सर देखने को मिलता है कि ऑफिस में बड़े पदों पर कार्ययत उच्च अधिकारियों के बर्ताव और काम के अतिरिक्त दबाव में आकर रुट लेवल पर काम करने वाले एम्प्लॉई अपनी नौकरी छोड़ देते हैं।

वैसे तो कर्मचारियों पर बनाए जाने वाले दबाव के कई कारण हो सकते हैं। जैसे-

एम्प्लॉई पर बनाए जाने वाले दबाव का विपरीत असर ना सिर्फ उसकी मानसिक और शारीरिक क्षमता पर पड़ता है, बल्कि वह अपनी योग्यता को खुलकर व्यक्त करने में  भी असहज महसूस करता है। एम्प्लॉई पर दबाव बनाकर कार्य करवाने से कंपनी को आउटपुट क्वान्टिटी  तो मिल जाती है मगर कवालिटी नहीं मिलती। कंपनी की आउटपुट कवालिटी  घटने और कंपनी के एम्प्लॉई में हीन भावना पैदा होने का अहम कारण कार्यक्षेत्र में होने वाली पॉलिटिक्स भी होती है।

उदाहरण के तौर पर आप अपने आम जीवन में अक्सर ही सुनते होंगे कि कुछ लोग सिर्फ इस वजह से अपनी नौकरी छोड़ देते हैं, क्योंकि उच्च पदों पर बैठे अधिकारी उनके काम की सराहना नहीं करते। मेहनत तो रूट लेवल पर काम करने वालों की होती है मगर उनके काम का सारा श्रेय अधिकारी अपने सर ले लेते हैं और बात जब गलती की हो तो उसका ठीकरा रुट लेवल पर काम करने वालों पर ही फोड़ दिया जाता है।

यह भी देखा गया है कि अगर आपको कंपनी में लंबे समय तक टिके रहना है तो आपको काम आए ना आए लेकिन चापलूसी का गुण आना चाहिए। भले ही आप अपने  काम में  पारंगत ना हों, सालाना होने वाले प्रमोशन के समय बनने वाली लिस्ट में भी अक्सर फेवरेटिज़्म बनाम योग्यता का द्वंद होता है।

ज़्यादातर लोग किसी बड़ी सिफारिश या फेवरेटिज़्म के चलते या कहें राजनीति की वजह से वो मुकाम और पदोन्नति हासिल कर लेते हैं, जिसके वे योग्य नहीं होते हैं। आज के समय में यूथ में हुनर की कमी नहीं है मगर यदि आप पर किसी व्यक्ति विशेष की कृपा नहीं हैतो बड़े-बड़े अवसर आपके हाथ से छूटते देर नहीं लगती।

फिल्मी जगत भी कोल्ड वॉर पॉलिटिक्स से अछूता नहीं

वहीं, इस मुद्दे पर यदि हम फिल्मी जगत की बात करें तो अन्य क्षेत्रों की तरह वह भी पॉलिटिक्स से अछूता नहीं है। समय-समय पर खेमों में बंटे फिल्मी सितारों की गुटबाज़ी और पॉलिटिक्स को लेकर आए बयान अखबारों और न्यूज़ चैनलों  की सुर्खियां बटोरते ही रहते हैं।

रातों-रात कैसे फिल्म से किसी हीरो या हीरोइन को हटाकर फिल्म किसी और की झोली में डाल दी जाती है और खबर भी नहीं होती है। फिल्मी दुनिया में कोल्ड वॉर और कैट फाइट जैसे शब्द बड़े-बड़े सितारों के बीच चल रहे विवाद यानि आपस में होती पॉलिटिक्स को स्पष्ट कर देते हैं।

उद्योग से लेकर घर तक पनपता पॉलिटिक्स का कीड़ा

उद्योग और फिल्मी जगत में होने वाली पॉलिटिक्स तो शायद हम सभी के लिए आम बात है मगर क्या आपने सोचा है कि आपके खुद के परिवार में भी पॉलिटिक्स का कीड़ा देखने को मिल सकता है? शायद आपका जबाव ना हो मगर जब आप नज़रें घुमाकर देखेंगे तो आपको वो कीड़ा अपने आसपास कहीं-ना-कहीं नज़र आ ही जाएगा।

उदाहरण के तौर पर यदि आप अपने माता-पिता, भाई-बहन या परिवार के किसी भी सदस्य और उनके फ्रेंड ग्रुप को ध्यान से देखेंगे तो उनके बीच अपने-अपने स्तर पर अलग-अलग तरह की पॉलिटिक्स होती नज़र आएगी। कभी-कभी आप जो बात या प्लानिंग अपने परिवार के सदस्यों के साथ शेयर नहीं करते, वो बाहर के किसी व्यक्ति को बेझिझक बता देते हैं और कभी कभी बाहर वालों से कोई बात छिपाने के लिए खुद परिवार वालों के साथ बैठकर रणनीति बनाते हैं।

यदि आपका परिवार बड़ा है, तो उसमें पॉलिटिक्स करने का लेवल भी एक कदम आगे होता है। जैसे  कि किसी कॉमन मेहमान के आने पर परिवार में ये होड़ लगी जाती है कि मेहमान की खातिरदारी कौन करेगा? हर कोई अपने आपको मेहमान नवाज़ी करने से बचाना चाहता है। माँ-बाप अक्सर अपने बच्चों को उनके चचेरे या ममेरे भाई-बहनों से आगे रहने के लिए उनमें प्रतिस्पर्धा के रूप में पॉलिटिक्स करते नज़र आते हैं।

विभिन्न क्षेत्रों में जुड़े लोग भी पॉलिटिक्स को अलग-अलग नज़रिये से देखते हैं 

राजस्थान के राघवेंद्र शिखरानीपेशे से एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, जिनका पॉलिटिक्स को लेकर मत है कि यदि आपकी कोई राजनीतिक महत्वकानक्षाएं नहीं हैं, तो आप पॉलिटिक्स से दूरी बनाए रखें वही अच्छा है मगर एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते आपको मतदान भी अवश्य करना चाहिए।

जहां तक बात रिश्तों या कार्यक्षेत्र में पॉलिटिक्स की है, तो इस पर वो कहते हैं कि रिश्ते आप स्वयं नहीं चुनते पर काम करने की जगह आप स्वयं चुन सकते हैं 

साथ ही उनका  मानना है कि परिवार व कार्यक्षेत्र में होने वाली पॉलिटिक्स आपके मानसिक तनाव का अहम कारण बन सकती है। इसलिए ये आप पर निर्भर करता है कि आप उससे कैसे डील करते हैं।

हिमाचल के रहने वाले अभिनव ठाकुर फैशन डिज़ाइनिंग फाइनल ईयर के स्टूडेंट हैं। इनका कहना है कि पॉलिटिक्स प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से स्टूडेंट्स से लेकर कामकाज करने वाले लोगों को या कहें सभी को प्रभावित करती है।

वो कहते हैं, “आज़ादी के बाद कई जन-हितकारी नीतियां बनीं और अनेक विकास कार्य भी हुए लेकिन समय के साथ-साथ सिस्टम की खामियां बढ़ते भ्रष्टाचार और अनगिनत घोटालों ने देश की प्रगति पर विपरीत असर डाला है। अभिनव का मानना है कि यदि कठोर कानून बनाए जाएं और व्यवस्थाओं को सुदृढ़ किया जाए, तब एक स्वस्थ राजनीतिक प्रणाली की परिकल्पना को सार्थक किया जा सकता है।”

महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय से सक्षम द्विवेदी जो कि प्रयागराज के रहने वाले हैं और डेसपोरा विषय पर शोध कर चुके हैं साथ ही पत्रकारिता जगत से जुड़े हुए भी हैं। सक्षम द्विवेदी के अनुसार, पॉलिटिक्स उत्तरोत्तर नैतिक पतन के साथ असमान विकास, वर्ग अंतर को बढ़ाने वाली व्यवस्था की ओर अग्रसर है। जहां तक बात है कार्यक्षेत्र में होने वाली पॉलिटिक्स की, तो उस पर अपने विचार रखते हुए वो कहते हैं  कि पॉलिटिक्स हर स्तर पर होती है। अधिकांश लोग आजीविका बचाने, रोज़गार खोने का डर व अन्य आर्थिक कारणों से कार्यक्षेत्र में अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता करने को तैयार हैं।

स्तर चाहे छोटा हो या बड़ा, राजनीति हमारी दिनचर्या का वो अहम हिस्सा है, जो प्रत्यक्ष रूप से ना सही मगर अप्रत्यक्ष रूप से  किसी ना किसी रूप में हम पर असर ज़रूर करती है। बस यह हम पर निर्भर करता है कि हम राजनीति को नीति के नज़रिये से इस्तेमाल करते हैं या कूटनीति का काला चश्मा लगाकर उसे नकारात्मकता का रूप देते हैं। हम चाहे ना चाहे मगर इसमें कोई दो मत नहीं है कि हमारे बिना पॉलिटिक्स अधूरी है और पॉलिटिक्स के बिना हम।

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