19 नवम्बर 2020 को हर सोशल मीडिया पर एक तंज़ कसा जा रहा था। दरअसल 19 नवम्बर को अन्तराष्ट्रिय पुरुष दिवस मनाया जाता है। जो कि हर वर्ष पुरुष एवं बालकों के राष्ट्र, समाज, समुदाय, परिवार में उनके योगदान के बारे में एक याद करने का माध्यम है।
19 नवम्बर 2020 को इंस्टाग्राम, फेसबुक आदि पर तंज़ इसलिए कसा जा रहा था क्योंकि गूगल और न ही किसी बड़े मंच पर इसके लिए शुभकामनाएं दी गईं और न ही किसी महिला ने इस विषय पर अपने विचार रखे।
पुरुष ने अपनी छवि को धूमिल करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है
आज के युग के में पुरुष समाज सबसे बदनाम कड़ी बन चुका है, जिसके ज़िम्मेदार खुद पुरुष वर्ग ही हैं। इतिहास के मनुस्मृति के पुरुष सूक्त से लेकर वर्तमान युग के आधुनिक पुरुष प्रधानता वाले समाज में पुरुष ने अपनी छवि को धूमिल करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है।
भारत के संदर्भ में ही बात करते हैं। प्रोहिबिशन ऑफ सेक्स सेलेक्शन एक्ट 1994 के पहले अक्सर घर के बड़े बुजुर्ग अपने बेटे कि पत्नी पर यह दबाव डालते थे कि घर में लड़का ही पैदा हो। लड़का अगर पैदा हो जाए तो समाज में लैंगिक भेदभाव की जो पहली सीढ़ी है वो उसी समय से शुरू हो जाती थी। लड़को को ज्यादा तरजीह देना क्योंकि बुढ़ापे का वो सहारा होगा।
मोहल्ले में हर जगह गुणगान करना बेटा हुआ है। लड़कियों कि तुलना में अच्छे स्कूल में भेजना क्योंकि लड़का अच्छी शिक्षा पाएगा तभी तो अच्छी नौकरी करेगा और तभी तो अच्छी लड़की को घर में लाएगा और दहेज कि अच्छी रकम घर में आएगी।
बाज़ारों की तरह बिकते हुए पुरुष और उनकी काबिलियत
उत्तर भारत बिहार और उसके सटे राज्यों में तो एक अलग दृश्य होता है। किसी पुरुष की अगर सरकारी नौकरी लग जाए तो फिर क्या कहने। दिल्ली के सरोजिनी मार्किट की तरह पुरुषों का भी मोल-भाव शुरू हो जाता है। चतुर्थ वर्गीय “4 लाख”, क्लर्क “8 लाख”, ग्रुप बी पद “15 लाख” और राजपत्रित के दाम लगाने के वक्त तो अच्छे-अच्छे पस्त।
मगर ऊपर पुरुष की बुराई करने का मकसद ये नहीं कि इन सारे अभिशापों की जड़ सिर्फ पुरुष है। पुरुष इस सामाजिक विकृति का बस एक मोहरा है। उसे बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि तुम पुरुष हो और तुम महिलाओं से श्रेष्ठ हो। आज कुछ समाज में अगर महिलाएं गाडियां चलाती दिख जाती हैं तो लोग 3-4 बार घूर कर देखते हैं। आखिर, ऐसा कैसे हो सकता है ये तो पुरुषों कि चलाने कि चीज़ है।
क्या पुरुष हर हाल में महिला से श्रेष्ठ है?
पुरुष अगर औरत पर हाथ उठा देता है तो दुनिया का सबसे दोषी आदमी माना जाता है। महिला उत्पीड़न कर्ता माना जाता है और अगर वही पुरुष स्त्री के हाथों मार खाता है तो नामर्द और नपुंसक इंसान भी कहलाता है। आज अगर पुरुष घर में बैठकर घर के काम-काज देखे और स्त्री दफ्तर जाये तो लोग उस पुरुष को गिरी हुई नजर से देखेंगे।
समाज कहेगा औरत का खाता है मगर उसी समाज में अगर पुरुष दफ्तर जाए और महिला घर में रहे तो उसे कर्मठ पुरुष कहा जाएगा। बस यही से शुरू कर दी जाती है पुरुष के अंदर पुरुष वर्चस्ववादी वाली मानसिकता।
बेटों को श्रेष्ठ दर्ज़ा देने के पहले उन्हे श्रेष्ठता हासिल करना सिखाएं
आज समाज में जीतने भी बलात्कार और छेड़खानी जैसी घटनाएं हो रहीं हैं उसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ पुरुषों पर थोपना सिर्फ आंशिक रूप से सही है। इन मनोवृति के लिए वो पुरुष जिस परिवेश में रहता है वो सबसे बड़ा कसूरवार है। उसे यही बतलाया जाता है कि औरत एक चीज़ है।
जब तक पुरुष औरत को सिर्फ चीज़ से तौलेगा तब तक वो अपने आप को श्रेष्ठ मानता रहेगा। इसलिए जरूरी है पुरुषों को इस पर सोचने का कि आखिर क्यों आज “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” के नारे लग रहे हैं। ज़रूरत, अभिभावकों कि भी है कि पहले अपने बेटों को श्रेष्ठ दर्जा देने के पहले उन्हे श्रेष्ठता हासिल करना सिखाएं तभी जाकर पुरुष वर्ग समाज में एक बदनाम वर्ग न होकर एक श्रेष्ठ वर्ग गिना जाएगा।