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“वाजपेयी जी, काश बीजेपी वाले आपसे सीख पाते कि कैसे किया जाता है विपक्षियों का सम्मान”

कहते हैं कि अगर किसी नेता को अच्छे से समझना हो तो उसके विरोधी को भी सुन लेना चाहिए। ऐसे में मुझे भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का वह भाषण याद आता है, जो उन्होंने संसद में पंडित जवाहरलाल नेहरू के बारे में दिया था।

उन्होंने कहा था, “जब सन् 1977 में बतौर विदेश मंत्री अपने दफ्तर गया, तब मैंने पाया कि वहां की एक दीवार खाली थी। मुझे याद आया कि यह पंडित जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर लगी होती थी। मैंने अपने अफसरों को बुलाया और पूछा कि वह तस्वीर कहा गई?” उन्होंने कहा कि हमें हटवाने का हुक्म दिया गया था तो हमने हटवा दिया। इस पर हमने कहा, “वापस लगवाओ उनकी तसवीर।”

यह विचार थे उस व्यक्ति के जिनकी पार्टी वाले किसी भी मुद्दे पर पंडित जवाहरलाल नेहरू की आलोचना में पीछे नहीं हटते हैं। फिर चाहे वह कश्मीर का मुद्दा हो या चीन का! यहां तक कि जिन नेताओं और अधिकारियों का पंडित जी सम्मान भी करते थे, उनका भी पंडित जी ने अपमान किया ऐसा बताया जाता है।

फिर चाहे सरदार पटेल हों, राजेन्द्र बाबू हों या जनरल थिमय्या हों और बाद में पता चलता है कि सारे आरोप ही निराधार हैं। आगे अटल जी ने जो कहा वह बताता था कि पंडित जवाहरलाल नेहरू आलोचनाओं को भी गलत नहीं मानते थे।

उन्होंने बताया कि किसी मुद्दे पर संसद में बयान देते हुए अटल जी ने पंडित जी की तुलना ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री चैम्बरलीन और विंस्टन चर्चिल से कर दी। जब शाम को पंडित जी से उनकी मुलाकात हुई एक शादी में तो पंडित जी ने उनके भाषण की तारीफ की और बहुत देर तक दोनो हंस-हंसकर बात करते रहे। आगे अटल जी कहते हैं कि आज कल ऐसी आलोचनाएं करना दुश्मनी को दावत देने जैसा है।

अटल जी के भाषण को उन सब लोगों को सुनना चाहिए जो पंडित जी पर निराधार आरोप लगाते हैं, जिनमें वे लोग भी शामिल हैं जो पंडित नेहरू को जानते नहीं हैं मगर कहीं से कुछ सुन लेते हैं और अपने विचार प्रकट कर देते हैं। मुझे याद नहीं आता कि कब किसी राष्ट्राध्यक्ष ने इतनी स्वतंत्रता दी हो किसी को अपनी आलोचना करने की।

जब संसद में दामाद ने आलोचना कर दी

पंडित नेहरू जी के समय आलोचनाओं की कितनी स्वतंत्रता थी, इसका एक और उदाहरण उनके अपने जमाई और रायबरेली के पूर्व सांसद फिरोज़ जहांगीर गाँधी हैं। बात है 16 दिसंबर 1957 की जब फिरोज़ गाँधी ने अपने ही ससुर जी के सरकार की आलोचना शुरू की संसद में खड़े होकर।

मुद्दा था LIC यानि ‘Life Insurance Cooperation’ का और यह भारत का पहला घोटाला भी था, जिसे “मुद्रा घोटाला” कहा गया गया। कलकत्ता के एक इन्वेस्टमेंट बैंकर हरिदास मुन्द्रा ने LIC कंपनी के 1.25 करोड़ की 13 कंपनियों में इन्वेस्टमेंट करवाई और भी बिना LIC के बड़े अधिकारियों को बताए। इसकी वजह से कंपनी को करोड़ों का घाटा उठाना पड़ा।

इस मुद्दे को संसद में उठाया फिरोज़ गाँधी ने। अब नेहरू जी चाहते तो चुप रह सकते थे मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने बॉम्बे हाई कोर्ट के पूर्व जज एम. सी. छागल के नेतृत्व में कमेटी बनाई, जिसने निष्पक्षता से अपना काम किया। सब कुछ पारदर्शी रखा और आरोपों को सही पाया।

नेहरू जी ने अपने ही प्रिये मंत्रियों में से एक वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णामचारी को इस्तीफा देने के लिए कह दिया। उनकी नेगलिजेंस इस घोटाले का कारण था। यह बताता है कि पंडित नेहरू पर इल्ज़ाम लगाने के लिए हिम्मत की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि पंडित जी ने खुद इसकी इजाज़त दी थी।

अपने कैबिनेट में ही रखे अपने विरोधी

मुझे यह भी उदाहरण कहीं नहीं मिलता है जब किसी प्रधानमंत्री ने विपक्षी नेताओं को मंत्री पद दिए हों। भारत की पहली सरकार की कैबिनेट की यही सचाई थी। उसमें 7 मंत्री थे जो काँग्रेस और पंडित जवाहरलाल नेहरू जी के विरोधी थे। इसमें पहला नाम उनके कानून मंत्री डॉ. भीम राव अम्बेडकर, दूसरा नाम इनके वाणिज्य मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और तीसरा नाम उनके वित्त मंत्री लियाक़त अली खान का भी था।

डॉ. आंबेडकर जी के साथ का बड़ा एक मशहूर किस्सा है कि हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर एक बार सन् 1949 में उत्तरप्रदेश की सभा में आंबेडकर जी ने काँग्रेस को दकियानूसी विचारों की पार्टी बताया और तोड़ देने की मांग की। हालांकि पंडित जी ने इसकी मुखालफत में अम्बेडकर जी को खत भी लिखा मगर मंत्री पद से नहीं हटाया और लगातार इस बिल के मुद्दे पर डॉ. आंबेडकर का समर्थन करते रहे।

सन् 1951 में अंबेडकर ने जो इस्तीफा दिया वह पंडित नेहरु की वजह से नहीं था, बल्कि सरकार ने जो कुछ वक्त के लिए हिन्दू कोड बिल को पीछे कर दिया था, उस पर था। हालांकि बाद में पंडित जी ने बिल को कई हिस्सों में तोड़कर पास करवा दिया, जो कि एकदम सही फैसला था।

सन् 1952 में जब आंबेडकर जी बॉम्बे से लोकसभा का चुनाव हार गए तो उन्हें राज्यसभा के सदस्य बनवा दिया ताकि वो संसद में बने रहें और यह पहली बार नहीं था। सन् 1947 में भी पंडित नेहरू, महात्मा गाँधी जी, सरदार पटेल और आंबेडकर ने संविधान सभा का सदस्य बनने में मदद की थी ताकि वह संविधान निर्माण में मदद कर सके।

प्रधानमंत्री कैसा होता है, यह पंडित जी को देखकर सीखना चाहिए। सच यह है कि वह जिन नेताओं के साथ रहते थे उन पर कोई भी यह इल्ज़ाम नहीं लगा पाया कि विरोधियों की आवाज़ दबाते थे। जैसे आज कल कई राज्य और केंद्र सरकार के मंत्रियों पर लगते हैं। बाकी यह तो इतिहास भी जानता है मगर यह सब बताने के लिए काफी है कि क्यों पंडित नेहरू एक आदर्श प्रधानमंत्री थे।

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