Site icon Youth Ki Awaaz

पटेल और नेहरू के सम्बन्ध कैसे थे?

सरदार वल्लभभाई पटेल के जन्मदिन को हम राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाते हैं। आज उनके जन्मदिवस के अवसर पर होने वाले विभिन्न आयोजनों में उन्हें याद किया जाएगा।

ऐसे में उनपर कुछ लिखने की मैंने भी सोचा। ज़्यादातर हम सब उनके खेड़ा सत्याग्रह, बारदोली आंदोलन, रियासतों के एकीकरण जैसे प्रमुख उपलब्धियों पर सुनते और पढ़ते रहते हैं। ऐसे में मैंने सोचा क्यों न कुछ अलग बातें लिखी जाए। मैंने एक ऐसे मुद्दे को चुना जो कुछ समय से अक्सर चर्चाओं में बना रहता है।

बात पटेल-नेहरू के सम्बन्ध की

मैं बात कर रहा हूं पटेल-नेहरू के सम्बन्ध की। आज कल के नए नवेले कुछ स्वयंभू इतिहासकार कहते हैं कि नेहरू और पटेल के सम्बंध बेहद खराब थे। वास्तव में इनकी बातें आधी-अधूरी ही सही हैं। यहां मैं कुछ घटनाओं का ज़िक्र कर रहा हूं। जिनमें नेहरू और पटेल के विचारों में भिन्नता तो थी लेकिन फिर भी दोनों एक दूसरे से अक्सर विचार कर ही निर्णय लेते थे।

मसलन पटेल जी भारत विभाजन के बाद चाहते थे कि सिख और हिन्दू पश्चिमी पाकिस्तान से चले आये लेकिन उन्हें मुसलमानों को लेकर खास चिंता नहीं थी। क्योंकि उनका मानना था कि उन्हें उनकी इच्छानुसार पाकिस्तान मिल चुका है लेकिन इस मुद्दे पर नेहरू धर्मनिरपेक्ष थे।

दिल्ली में जब मुसलमानों पर हमले हो रहे थे तो इसे पाकिस्तान में हो रहे रक्तपात के बदले के रूप में देखा जा रहा था लेकिन नेहरू चाहते थे कि इस रक्तपात को रोकने के लिए कुछ इलाके दिल्ली में मुसलमानों के लिए आरक्षित कर दिए जाएं। उनके इस प्रस्ताव का पटेल ने विरोध किया था। पटेल अक्सर कैबिनेट मंत्रियों की शक्तियों को लेकर भी नेहरू से उलझे रहते थे। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री किसी मंत्रालय के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। हर निर्णय सामूहिक रूप से लिया जाना चाहिए।

विभाजन का दौर और मतभेद

विभाजन के बाद संपत्तियों के बंटवारे की बात थी तो पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों की लगभग 500 करोड़ की संपत्ति थी जबकि भारत से पलायन कर चुके मुसलमानों की संपत्ति 100 करोड़ थी। इस संपत्ति का बंटवारा होना था लेकिन पटेल का कहना था कश्मीर में जारी लड़ाई के बीचोबीच संपत्ति और हथियारों का बंटवारा नहीं किया जाना चाहिए। इससे गांधी जी नाराज़ हो गए और भूख हड़ताल पर बैठ गए। फिर भी भारत ने संपत्ति के बंटवारे के रूप में सिर्फ 60 करोड़ रुपये ही लौटाए।

इस घटना को कुछ हिन्दुओं ने पसन्द नहीं किया। उन्हें एक हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में गांधी जी एक रुकावट प्रतीत हुए। बाद में उन्हीं में से एक ने गांधी जी की हत्या कर दी।पटेल इस हत्या के लिए स्वयं को ज़िम्मेदार मानते थे इसलिए उन्होंने कैबिनेट से इस्तीफा देने का निश्चय किया। वह नेहरू थे जिन्होंने उनसे इस्तीफा न देने का आग्रह किया। नेहरू के आग्रह ने पटेल के दिल को छू लिया। बाद में पटेल ने न  केवल इस्तीफा वापस लिया बल्कि यह ज़िद भी छोड़ दी थी कि हर मंत्रालय को अपने ढंग से काम करना चाहिए।

ऑपरेशन पोलो और पटेल

हैदराबाद के भारत में विलय के लिए जब ऑपरेशन पोलो के तहत पटेल ने पुलिस एक्शन के बारे में फैसला लिया तो इसकी जानकारी नेहरू को नहीं थी। क्योंकि पटेल को लगता था आदर्शवादी नेहरू खराब होती स्थिति के बाद भी सेना भेजने के पक्ष में नहीं थे। नेहरू को पुलिस एक्शन के बारे में तब पता चला जब सेना हैदराबाद में घुस चुकी थी।

उन्होंने पटेल से सम्पर्क करने की भी कोशिश की लेकिन उन्हें बता दिया गया कि पटेल बीमार हैं। बाद में जब ऑपरेशन पोलो के तहत यह कार्य पांच दिन के अंदर हो गया तो इतना कुछ होने के बाद भी नेहरू ने पटेल के इस कार्य की प्रशंसा की थी।उन्होंने कभी इस बात की शिकायत नहीं की कि उन्हें क्यों सूचित नहीं किया गया।

इंडियन सिविल सर्विस को लेकर भी नेहरू और पटेल एकमत नहीं थे। नेहरू आईसीएस को खत्म करना चाहते थे। क्योंकि उन्हें लगता था कि यह ब्रिटिश साम्राज्य का अवशेष है। पटेल इसे भंग करने के लिए तैयार नहीं थे फिर भी मतभेद के बाद भी एक बार फिर बीच का रास्ता निकाला गया और भंग करने के बजाय इसका नाम बदलकर इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस कर दिया। पटेल को लगता था कि यह सेवा देश को चलाने के लिए बहुत ज़रूरी है।

वास्तव में पटेल और नेहरू के बीच मतभेद के जो कारण थे वह नेहरू के ज़्यादा आदर्शवादी और पटेल के ज़्यादा व्यवहारवादी होने के कारण था। पटेल के घोर विरोधी रहे मौलाना अबुल कलाम ज़ज़ाद का कहना था कि पटेल को देश का प्रधानमंत्री और नेहरु को राष्ट्रपति होना चाहिए था। बाद में लगभग यही बात राजगोपालाचारी जी ने भी कही थी। कुलदीप नैयर ने लिखा है कि संविधान सभा की बैठकों से पहले नेहरू और पटेल मुख्य मुद्दों को लेकर आपस में सलाह मशविरा कर लेते थे और फिर हर शाम होने वाली बैठकों में उन्हें पास करवा लेते थे।

ऐसे में यह कहा जा सकता है कि नेहरू और पटेल में मतभेद तो थे लेकिन इन मतभेदों के बाद भी वह कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते थे। मतभेदों के बाद भी उन्होंने देश को जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। उनके मतभेदों ने कभी देश को तोड़ा नहीं, कमज़ोर नहीं किया। असहमतियों में भी वह सहमति का कोई न कोई रास्ता ढूंढ लेते थे। इतने मतभेदों के बाद भी उनके बीच जो सम्बन्ध थे वह काबिले गौर और अध्ययन का विषय होना चाहिये।

Exit mobile version