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“मैला ढोने वाली आंटी को छूने पर मुझे कई घंटों तक आंगन में खड़ा रखा गया”

ईश्वर ने सभी को एक तरह से पैदा किया है और एक ही तरह से शरीर के मुख्य अंग दिए हैं। मुख्य अंग कहने का मेरा मतलब यहां हाथ-पैर से है। यानि सभी को एक जैसा बनाया है। 

दुर्भाग्यपूर्ण कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि इंसान डिसेबल्ड कैटेगरी में चला जाता है मगर कहीं-ना-कहीं सबके पास एक जैसी शारीरिक संरचना होती है, तो सबके काम भी एक जैसे होने चाहिए। मतलब सबको अपने मन के मुताबिक काम करने की छूट मिलनी चाहिए।

समानता का धुर विरोधी शब्द है जातिवाद

हमारे देश में विकास की कहानी ही उल्टी है। यहां पहले तो लोगों ने समाज को जातियों में बांटा। किसी को ब्राह्मण बना दिया, किसी को क्षत्रिय, तो किसी को इतना नीचे कर दिया कि समाज उससे कटने लगा। 

हर इंसान देखने में एक जैसा ही लगता है मगर उसको उसके काम के ज़रिये तौला जाता है। यहां तक कि विशेष समुदाय को ही मंदिरों में पूजा और आरती करने के लिए नियुक्त किया जाता है। कुछ ऐसे हैं, जिन्हें मंदिर की पूजा और आरती तो दूर, मंदिर की दहलीज़ पर बैठने तक नहीं दिया जाता है।

एक ओर एक हाथ पंडित और पुरोहितों के लिए शुद्ध पकवानों को पकाते हैं। यानि शुद्ध खाना पकाने के लिए भी लोगों की नियुक्ति की जाती है। वहीं दूसरी ओर आपके द्वारा त्यागे गए मल-मूत्र को उठाने, साफ करने के लिए समाज ने एक समुदाय विशेष को नियुक्त कर दिया है।

खाना पकाने वालों को देव, शेफ, महाराज, खानसामा, आदि। वहीं, दूसरी ओर मैला उठाने वालों को भंगी, मेहतर, पासी, ज़मादार और भी ना जाने कौन-कौन से नाम दे रखे हैं।

मैंने यहां खाना पकाने वालों और मैला ढोने वालों की तुलना इसलिए की, क्योंकि दोनों अपने हाथ के ज़रिये काम करने के लिए जाने जाते हैं। दोनों का नाम उनके काम पर आधारित होता है।

आज इस मुद्दे पर आवाज़ उठाने में थोड़ी सी ही सही मगर मुझे खुद पर शर्मिंदगी महसूस हुई। वो इसलिए क्योंकि हम लोगों ने ही ऐसे समुदाय का निर्माण किया है। उनको इतना दबाया कि वे आज तक उबर नहीं पाए।

अनुभव जिन पर मैं आज भी शर्मिंदा हूं

जब मैं 7-8 वर्ष का था तब हम नानी के घर गए थे। उत्तरप्रदेश में तो वैसे ही जातिवाद का डंका इस तरह बजता है जिसकी आवाज़ शायद पूरे देश में गूंज जाए। मुस्लिम हो या हिन्दू, यहां पर लोग इनसे भेदभाव करने में पीछे नहीं हटते। हमारी नानी के घर शौचालय को साफ करने के लिए रोज़ एक आंटी आया करती थीं।

हमारे ननिहाल और ददिहाल में सभी त्यौहार बहुत ही खूबसूरती से मनाए जाते हैं। चाहे ईद, दीवाली, नया साल हो या होली! पढ़े-लिखे होने के साथ-साथ हमारे परिवार वालों को समानता और एकता की समझ थी, सिवाय मेरी नानी माँ के!

तो दीवली का माहौल था। दीवाली के दूसरे दिन वही आंटी पैसे और मिठाई मांगने घर आईं। उनको दहलीज़ के बाहर ही बैठने की इजाज़त थी। नानी ने मुझे सूप (सरपत की लकड़ी से बना हुआ अनाज को साफ करने का एक बर्तन) में चीनी के हाथी, घोड़े, 5-6 लड्डू और  51 रुपये दिए और मुझे कहा, “उनकी झोली में डालकर आ जाना बस।”

मगर मुझे कहां याद रहने वाली थी नानी की बात। मैंने उनकी झोली में सारा सामान उड़ेल दिया और उनसे कहा, “आप अंदर क्यों नहीं आतीं? सभी लोग अंदर आकर सोफे पर बैठते हैं और आप ज़मीन पर।”

इसके बाद उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा, “बेटा ये सब तो हमको विरासत में मिली है! तुम नहीं समझोगे।” वो मेरे सिर पर हाथ फेरती हुई चली गईं।

यह सब नानी ने देख लिया था और मुझे वहीं आंगन मैं खड़ा रहने को बोलते हुए अंदर गईं, “तौबा है, नज़िस (अपवित्र) हो गया। तुझे जब वो छू रही थी तब पीछे क्यों नहीं हटा।”

फिर मेरी माँ को भी कोसने लगीं। अम्मी ने तो अपना पल्ला झाड़ लिया और वहां से हट गईं मगर मेरी तो शामत आ गई थी। मैं समझ ही नहीं पा रहा था ऐसा क्या हुआ? मगर जो भी हुआ ठीक नहीं हुआ। गुलाबी सर्दियों में नानी ने मुझे 7 बाल्टी पानी से नहलाया और धूप में बैठा दिया। ताकि मैं दोबारा से पवित्र हो जाऊं। कितने अजीब होते हैं लोग और उनसे ज़्यादा उनकी सोच।

वहीं, दूसरी बात तब की है जब मैं 9वीं कक्षा में था। हमारे घर के बाहर मेन रोड पर नाले की सफाई हो रही थी। मैं स्कूल बस से उतरने के बाद थोड़ा पैदल चलता था। उसी बीच वहां पर नाला साफ करने के लिए 5-7 आदमी नाले के अंदर घुसकर सफाई कर रहे थे। मैंने उन्हें देखा तो मुझे दु:ख हुआ। मैंने एक दुखी मन से उनको छोटी सी स्माइल दी। बदले में वे भी मुस्कुराए। उन्होंने मुझसे कहा, “नाले में से बहुत सारी बॉल्स निकली हैं क्या आप लोगे?”

मैंने कहा, “नहीं, आप किसी छोटे बच्चे को दे दीजिए।” फिर वे लोग मुझसे बोले, “कुछ खाने को मिलेगा क्या?”  हम 54 किलोमीटर दूर से बस से आए हैं। होटल पर ही खाते हैं लेकिन आज होटल बंद हैं।”

मैंने उनको बोला, “अभी आता हूं।” वापसी में मैं हॉट पॉट में रोटियां,राजमा और साथ में पानी की ठंडी बोतल भी लेकर आया। उस दिन से 4 दिन तक लगातार अम्मी उनके लिए खाना बनाती और मैं खुशी-खुशी उन तक पहुंचा कर आ जाता।

मैनुअल स्कैवेंजिंग मजबूरी या अपराध?

गर्मी से तपते हुए मौसम में धूप की तपिश से भूखे पेट नाले को साफ करना और उसकी दुर्गंध से उनको कैसा महसूस होता होगा? यह हम नहीं समझ सकते।

उनकी गरिमा को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने सन् 1993 में सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सन्निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम 1993 लागू किया था। इस अधिनियम के तहत कोई भी किसी व्यक्ति के मल-मूत्र त्याग को अपने हाथों से नहीं उठाएगा। ऐसा करने पर उसको दंड दिया जाएगा और साथ ही ज़ुर्माना भी वसूला जा सकता है।

इतने कड़े अधिनियम के बाद भी आज तक इस प्रथा को कोई रोक नहीं पाया है। सरकार ने कई मुहिम चलाईं और कई तरह के प्रबंध भी किए। इसके अलावा ऐसे परिवार से आने वाले बच्चों को छात्रवृत्ति भी दी जाने लगी लेकिन जब उनके अभिभावकों ने यह काम छोड़ दिया तो उनकी छात्रवृत्ति बंद कर दी गई। यह अपने आप में ही बहुत गलत निर्णय है।

पिछले कुछ सालों में सीवर और सेप्टिक टैंक साफ करने के दौरान मरने वाले लोगों की संख्या में इज़ाफा हुआ है। वहीं, अगर पिछले पांच सालों की बात करें तो 2019 में मरने वालों की संख्या कहीं अधिक थी। इस दौरान मैनुअल स्कैवेंजिंग से मरने वालों की संख्या 110 थी।

भारत में 18 राज्यों में किए गए एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार, 31 जनवरी 2020 तक कुल 48,345 मैला ढोने वालों की पहचान की गई है। 2018 में एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार, 29,923 लोग उत्तर प्रदेश में मैनुअल स्कैवेंजिंग में लगे हुए हैं, जो अपने आप में एक बहुत बड़ी संख्या है, तो फिर नियम और कानून का क्या हुआ?

2013 के कानून को रोज़गार पर प्रतिबंध के रूप में मैनुअल स्कैवेंजर्स और उनके पुनर्वास अधिनियम (मैनुअल स्केवेजर्स एक्ट) पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद मैनुअल स्कैवेंजिंग देश के लिए एक बड़ी चुनौती है। 

केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने इस साल की शुरुआत में संसद में एक सवाल के जवाब में कहा था कि 2016 और नवंबर 2019 के बीच देश भर में सेप्टिक टैंक और सीवर में 282 लोगों की मौत हो गई थी। यह सिर्फ सरकारी आंकड़ा है। शायद हकीकत कुछ और ही रही होगी।

केंद्र सरकार ने बड़े ज़ोर-शोर से स्वच्छ भारत मुहिम चलाई थी। हमारे देश के प्रधानमंत्री जी शौचालय बनवाने के लिए बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। शुष्क शौचालयों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया मगर इसका नतीजा क्या निकला? यह एक कड़वा सच है कि छोटे गाँवों और कस्बों में आज भी एक विशेष समुदाय को अपना भरण-पोषण करने के लिए ऐसे काम करने पड़ रहे हैं, जिसको सरकार अपराध मान चुकी है।

शहरी जीवन में आजकल यह प्रथा कम दिखाई पड़ती है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह पूरे देश से खत्म हो चुकी है। आज भी इस कलंकित काम को लोगों द्वारा किया जा रहा है। समाज ने इनको ऐसे गठीले धागे में बांध दिया है, जिसको तोड़ना अब शायद नामुमकिन है।

इस समुदाय के लोग अगर खुद भी इस काम से निकलना चाहें तो भूखे मर जाएंगे, क्योंकि इनको कोई दूसरा काम करने ही नहीं दिया जाएगा। हमें हमारे समाज की सभी इकाइयों को एकजुट होकर इसके विषय में बात करनी होगी। शिक्षा बहुत बड़ा हथियार है, जिससे हम समाज में बदलाव ला सकते हैं।


संदर्भ- द हिन्दू

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