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“बिहार चुनाव: भीड़ के कारण अगर संक्रमण के हालत बिगड़े तो इसकी ज़िम्मेदारी किसकी?”

बिहार चुनाव के दौरान ‘उबर’ पटना में 80 वर्ष से ऊपर के बुज़ुर्गों और दिव्यांग मतदाताओं को असुविधा से बचाने के लिए मुफ्त परिवहन सेवाएं दे रही है। इस सेवा के अंतर्गत 120 रुपये तक का भाड़ा उबर उठाएगी और यदि इससे ज़्यादा भाड़ा लगता है, तो बाकी के पैसे मतदाता को भुगतान करने होंगे।

उबर की तरफ से इस तरह की पहल सराहनीय है, कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सब्लिटी के तौर पर इस तरह के कार्य किए जाते हैं लेकिन आवजाही की समस्या सिर्फ बुज़ुर्ग मतदाताओं और दिव्यांगजनों तक ही सीमित नहीं है।

वहीं, कोरोना संक्रमितों के लिए शाम 6 से 7 बजे तक मतदान का समय निर्धारित किया गया है लेकिन संक्रमण की स्थिति में वे मतदान केन्द्र तक कैसे पहुंचेंगे? यह सुनिश्चित नहीं है।

कोरोना काल में मतदाता के हक की ज़मीनी सुविधाएं गायब

वे लोग, जो हाल ही के दिनों में कोरोना संक्रमित हुए थे और अब नेगेटिव आए हैं, उनमें से अधिकांशतः अभी भी शारीरिक कमज़ोरी का सामना कर रहे होंगे। वे लोग भी ऐसे हालात में अपना मत नहीं दे पाऐंगे। गौरतलब है कि आज भी हर घर में वाहन नहीं होता है।

ठीक उसी तरह बिहार के हर घर में भी वाहन सुविधा उपलब्ध नहीं होगी और चुनाव के दौरान लोकल ट्रांसपोर्ट भी नदारद ही रहती है। इन सब के अलावा गर्भवती महिलाओं की संख्या भी अधिक है, जो परिवहन के अभाव में मतदान केंद्रों तक नहीं पहुंच पाई होंगी।

जब सरकार और प्रशासन बिहार की राजधानी पटना में मतदाताओं की सुविधा को लेकर ज़मीनी स्तर पर नहीं सोच पा रही है, तब गाँव-देहात की बात करना बेईमानी ही होगा। 

शिक्षित और जागरूक होने के बाबजूद भी 50 से 60 प्रतिशत मतदान होना लोकतंत्र के लिए कहां तक सही है। वहीं बिहार की राजधानी पटना में  30 से 50 प्रतिशत मतदान ही हो पाया है।

जहां तक ट्रांसपोर्ट सम्बन्धित समस्याओं की बात है, यह साल चुनाव के लिए काम कर रहे सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए चुनौतीपूर्ण है। लोकल ट्रेनें भी बंद हैं। एक ज़िला से दूसरा ज़िला जाने के लिए एकमात्र विकल्प बस है। वहीं, इन परिस्थितियों में भी कई कर्मियों को दो चरणों में मतदान कराने के लिए नियुक्ति किया गया है।

मतलब दो अलग-अलग स्थानों पर मतदान सम्बन्धित सामग्री के साथ पहुंचना और यदि मतदान केंद्र ठहरने योग्य या कहें सुविधासम्पन्न ना लगे तो आस-पास रुकने के साथ-साथ खाने पीने की भी व्यवस्था करना खर्च से भरा हुआ है।

डेढ़-दो हज़ार रुपये के भत्ते में यह पूरा करना आसान नहीं है। अधिकाशतः मतदान केंद्र सरकारी स्कूलों को ही बनाया जाता है, जहां ठहरने के लिए ज़रूरी मूलभूत सुविधाओं का आभाव होता है। वैसे भी बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में ठंडी हवाओं ने दस्तक दे दी है। पीने के लिए साफ पानी, स्वच्छ शौचालय से लेकर ओढ़ने-बिछाने के लिए साफ-सुथरी चादर उपलब्ध ना होने पर कर्मचारियों को मतदान कराना कष्टप्रद और जोखिम भरा रहा है।

किसके सर होगा बढ़ते संक्रमण का ज़िम्मा?

चुनाव में चुनौतियां हमेशा से ही रही हैं लेकिन कोरोना संक्रमण के इस दौर में चुनाव का होना और भी ज़्यादा चुनौतीपूर्ण है। हालांकि शहरी क्षेत्रों में मतदान केंद्रों पर बहुत हद तक सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटाइज़ेशन का ख्याल रखा गया है लेकिन पटना के आसपास के इलाकों के मतदान केंद्रों से जिस तरह भीड़ की तस्वीर आ रही है, वह डराने वाली है।

पहले चुनाव प्रचार के दौरान अनियंत्रित भीड़ और अब मतदान केन्द्रों की भीड़ आने वाले समय में कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ाने का काम करेगी। कौन-सी सरकारें लेंगी बढ़ते संक्रमण की ज़िम्मेदारी?

कोरोना के चलते मार्च के तीसरे हफ्ते से ही लॉकडाउन रहा और अब अनलॉक घोषित होने के बावजूद भी स्कूलों, कॉलेजों और शिक्षण संस्थानों को नहीं खोला गया है। ऐसे में चुनाव कराना कहां तक सही था?

और चुनाव के दौरान मतदान के प्रतिशत में भारी गिरावट इस बात को साबित करती है कि आम जनता चुनाव के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी।

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