बिहार की अनेक बातें हैं, जो प्रचलित हैं मगर छठ एक ऐसा त्यौहार है, जिससे बिहारियों का जुड़ाव देखते ही बनता है। छठ को बिहार में महापर्व की संज्ञा से नवाज़ा गया है, क्योंकि यह त्यौहार ना केवल लोगों की दूरियों को कम करता है, बल्कि प्रकृति से लोगों के जुड़ाव को भी परिभाषित करता है।
छठ लोगों की आस्था से इस कदर जुड़ा हुआ कि लोग छठ पर्व को मनाने के लिए लंबी-लंबी दूरियों को पार करके आते हैं।
प्रकृति का त्यौहार है छठ
छठ को प्रकृति का त्यौहार कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि छठ में इस्तेमाल किए जाने वाले सभी फल पर्यावरण के साथ-साथ प्रकृति के संरक्षण का कार्य करते हैं। छठ में मूली, अदरक, सुथनी, नारियल, मकई, जल सिंघारा, सुपारी, गागर नींबू और केला आदि फलों को चढ़ाया जाता है।
सूर्य के किरणों से ही फसलें उत्पन्न होती हैं, इसलिए छठ में सूर्य को सबसे पहले नई फसल का प्रसाद चढ़ाया जाता है, जिसमें गन्ना नई फसलों में से एक है। साथ ही छठ पूजा में चढ़ने वाले भोग में ठेकुआ विशेष रूप से शामिल किया जाता है।
छठ के प्रसाद का महत्व
घी में बनाए जाने वाला गेहूं के आटे और गुड़ से बना यह प्रसाद खाने में जितना स्वादिष्ट होता है, उससे भी ज़्यादा यह रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का काम करता है। साथ ही महिलाओं के लिए विशेष रुप से लाभकारी होता है, क्योंकि गुड़ में पाए जाने वाले तत्व शरीर में खून की कमी को कम करते हैं, जिससे शरीर में ऊर्जा का संचार होता है।
साथ ही नारियल, चावल के लड्डू, गन्ना, गागर नींबू शरीर को रोगों से बचाते हैं और रोग-प्रतिरोधक क्षमता का विकास करते हैं। यहां भी चावल की नई फसल से प्रसाद बनाया जाता है।
मिट जाते हैं सभी भेदभाव
छठ पहले महिलाओं तक ही सीमित था मगर अब पुरुषों द्वारा भी छठ को पूरे उत्साह के साथ किया जाता है। यह एक ऐसा त्यौहार है, जिसमें जाति-धर्म और महिला-पुरुष के बीच होने वाले भेदभाव नज़र ही नहीं आते हैं।
छठ में प्रयोग किए जाने वाले सुप-दऊरा समाज के वे लोग बनाते हैं, जिन्हें समाज ही निचली जाति की संज्ञा प्रदान करता है मगर छठ पर्व हर तरह के भेदभाव को मिटा देता है।
चार दिनों के त्यौहार में लोगों की दुनिया
यह त्यौहार चार दिन का होता है। सबसे पहले दिन नहाय-खाय से इसकी शुरुआत होती है, जिसमें कद्दू और अरवा चावल को प्रमुखता से शामिल किया जाता है। इसके अगले दिन व्रत करने वाले उपवास करते हैं और शाम को रोटी और गुड़ की खीर का प्रसाद बनाया जाता है, जिसे सबसे पहले व्रत करने वाले लोग ग्रहण करते हैं। उसके बाद घर के अन्य सदस्यों के बीच इसे वितरण किया जाता है।
सबसे रोचक बात यह है कि जब व्रत करने वाले लोग प्रसाद ग्रहण कर रहे होते हैं, उस बीच घर में शांति का माहौल होना चाहिए। इसके अगले दिन शाम में डूबते हुए सू्र्य को अर्घ्य दिया जाता है, फिर अगले दिन के सूर्योदय को अर्घ्य देकर इस पर्व की समाप्ति होती है। इस पर्व में व्रत करने वाले निर्जला उपवास रखते हैं। साथ ही सूरज की रौशनी में रहने से शरीर को विटामिन-डी भी भरपूर मात्रा मिलता है, जिससे हड्डियां मज़़बत होती हैं।
छठ में हुए हैं कुछ बदलाव
पहले छठ पूजा में लोग मिट्टी के चूल्हे का इस्तेमाल करते थे मगर अब यह चलन कम हो रहा है। हालांकि आज भी अनेक घरों में मिट्टी के चूल्हे का ही इस्तेमाल किया जाता है। साथ ही तालाबों से जल लाकर प्रसाद बनाया जाता है मगर इस बार कोरोना के कारण कुछ बदलाव सामने आ रहे हैं, फिर भी लोगों का उत्साह पहले की तरह ही बना हुआ है।
लोग घाट पर जाने के बजाय घरों पर ही घाट का निर्माण कर रहे हैं। हर तरफ साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जा रहा है, क्योंकि एक तरफ कोरोना का संकट बना हुआ है। वहीं, छठ महापर्व में अनुशासन के साथ ही हर विधि की जाती है इसलिए साफ-सफाई का विशेष महत्व है।
हर किसी के मन में छठ को लेकर यादें जुड़ी होती हैं, क्योंकि छठ केवल एक पर्व मात्र ना होकर भावनात्मक उल्लास का पर्व है। छठ पर लगभग सभी लोगों के होठों पर यह गीत थिरकता रहता है, जिसके बोल हैं-
कांच ही बांस के बहंगिया
बहंगी लचकत जाए
बहंगी लचकत जाए,
होई ना बलम जी कहरिया
बहंगी घाटे पहुंचाए।
आप भी गुनगुनाइए और छठ की मोहक छटा को स्वयं में समेटने का प्रयास कीजिए ताकि सूरज की ऊर्जा से शक्ति का संचार महसूस हो।