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“काश पुरुषों के रोने पर यह समाज उन्हें मर्दानगी के पैमाने याद ना दिलाता”

पितृसत्तात्मक सोच से जन्मी मर्दानगी के कई पैमाने होते हैं। ये पैमाने हमें परिवार और समाज द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सिखाए जाते हैं। ये वे पैमाने हैं, जिन पर हर पुरुष को खरा उतरना पड़ता है।

ज़िन्दगी के प्रत्येक पड़ाव में मर्दानगी के मानकों तक पहुंचना पुरुषों के लिए अनिवार्य माना जाता है। जो पुरुष इन मानकों को पार कर जाते हैं, उन्हें ही सच्चा मर्द कहा जाता है। जो इस दौड़ में पीछे रह जाते हैं, उन्हें नामर्द बोलकर एक तरह से दंडित किया जाता है।

बचपन से ही मर्दानगी के मानकों को प्राप्त करने की भागदौड़ शुरू हो जाती है 

मर्दानगी की इस दौड़ में जिस पुरुष ने इन मानकों को छू लिया, उन्हें असली मर्द होने का टिकट मिल जाता है। इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि जिन्हें मर्दानगी का टिकट मिल गया, वे अब इस दौड़ में नहीं दौड़ेंगे। ज़िन्दगी के हर पड़ाव पर अपनी मर्दानगी को स्थापित और बरकरार रखने के लिए उन्हें हर बार इस दौड़ में दौड़कर जीतना ही पड़ेगा।

गौरतलब है कि मर्दानगी के पैमानों में कुछ पैमानों को हम पूरी दुनिया में एक जैसा पाते हैं, जैसे- गुस्सा, हिंसा, लंबा-चौड़ा कद आदि। कुछ पैमाने सामाजिक व भौगोलिक के अनुसार बदलते रहते हैं। जैसे किसी क्षेत्र में पुरुषों का कान बिंदवाना मर्दानगी का एक पैमाना हो सकता है लेकिन किसी दूसरे क्षेत्र में ऐसा ना हो।

सामाजिक रूप से हर पुरुष मर्दानगी के इन पैमानों को पाने के लिए लगातार कोशिश करता रहता है। फिर चाहे पुरुष इन पैमानों को सही मानता हो या गलत।

भावनाओं को व्यक्त करने में कंजूसी

अक्सर हमने देखा है कि पुरुष अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में बड़ी कंजूसी करता है। सबके सामने रोना, अपनी कमज़ोरियों के बारे में बात करना, करूणा और दया जैसे भाव हमेशा छुपाकर करना चाहते हैं। जो पुरुष सबके सामने रो देता है या फिर अपनी कमियों के बारे में बात करता है, उसे समाजिक रूप से कम पुरुष या नामर्द माना जाता है।

एक सच्चे मर्द के लिए रोना वर्जित माना जाता है। अगर हम अपने बचपन के अनुभवों को भी देखें तो कितनी बार लड़कों को यह सुनने को मिलता है, “क्यों लड़कियों की तरह रो रहे हो, लड़के रोते नहीं हैं।” इस तरह से एक पुरुष को मर्द बनाने की प्रकिया में पुरुषों की भावनाओं की अभिव्यक्ति खत्म हो जाती है।

रूखा और सख्त व्यवहार का झूठा बखान

एक तरह समाजीकरण के चलते पुरुषों में प्यार, दया, करुणा और संवेदनशीलता जैसे भावों को खत्म कर दिया जाता है। दूसरी ओर उनसे यह सामाजिक अपेक्षा रहती है कि मर्द रूखा और सख़्त व्यवहार का प्रदर्शन करें। पुरूषों का रूखा और सख्त व्यवहार सामाजिक रूप से उन्हें रौबदार मर्द के रूप में प्रस्तुत करता है। हम सभी ने अपने परिवार, आस पड़ोस या फिर स्कूल में ऐसे रूखे और सख्त व्यवहार करने वाले पुरुष को ज़रूर देखा होगा, जिस तक किसी भी काम के लिए पहुंच करना बहुत मुश्किल सा लगता था।

विचारणीय बात यह है कि जब इस तरह के रौबीले और सख्त व्यवहार के पुरुष जब किसी कारण भावनात्मक रूप से टूट जाते हैं तो उनके लिए सबके सामने भावनात्मक अभिव्यक्ति बहुत मुश्किल हो जाती है। ऐसे पुरुष सिर्फ मर्दानगी साबित करने के चक्कर में अपनी भावनाओं और मर्दानगी के पैमानों के बीच घुटते रहते हैं। रूखे और सख्त व्यवहार दिखाकर पुरुष अपनी भावनाओं को गुस्से और हिंसा के पर्दे के पीछे छिपा देते हैं।

पुरुष के लिए हिंसा ही एक मात्र विकल्प क्यों

बचपन से ही पुरुषों को हिंसा का पाठ पढ़ाया जाता है, क्योंकि एक बच्चा अपने पिता के द्वारा घर मे हिंसा को देखकर बड़ा होता है। तो उनके ज़हन में यह बात बैठ जाती है कि हिंसा को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने से ही मर्दानगी का ताज मिल सकता है। यही तस्वीर स्कूल में लड़के हिंसात्मक बुल्लिंग के माध्यम से सीखते हैं। इसलिए अगर हम लड़कों द्वारा खेले जाने वाले खेलों में देखें तो ज़्यादातर का आधार ही हिंसा पर टिका है।

पुरूषों द्वारा की जाने वाली हिंसा का सबसे बुरा प्रभाव महिलाओं और बच्चों पर पड़ रहा है। इसका मतलब यह नही है कि पुरुषों पर इसका बुरा प्रभाव नही पड़ता। अक्सर यह देखने में आता है कि स्कूल -कॉलेज, नुक्कड़ पर छोटी सी बात पर एक पुरुष दुसरे पुरुष की हत्या तक कर देता हैं।

प्रभुत्व जमाने की अट्टू कोशिशें

घर से लेकर काम काज तक हर जगह हम पुरुषों को प्रभुत्व जमाते हुए देखते हैं। चाहे फिर बात राजनीति की हो या फिर सामाजिक मुद्दे की हर जगह पुरुष अपने आप को सर्वश्रेष्ठ दिखाने में लगा रहता है। अपने आप को सर्वश्रेष्ठ दिखाकर प्रभुत्व ज़माना भी मर्दानगी का एक पैमाना है। इस पैमाने की वजह से अक्सर हम पुरुषों के बीच मे झगड़ा होते हुए देखते हैं।

घरों और ऑफिस में भी हम देखते हैं कि महिलाओं की राय या बात को पुरुषों द्वारा या तो काट दिया जाता है या पुरुष महिलाओं को चुप कराकर खुद समझाने लगते हैं। अपने बोलने के तरीके से ऐसे पुरुष माहौल बना देते हैं कि कोई भी उनके सामने अपनी बात व्यक्त नहीं कर पाता। पुरुषों का इस तरह का व्यवहार बुद्धिजीवी मर्दानगी के रूप में नज़र आता है जोकि दूसरों के अधिकारों का हनन करता है।

यौनिकता का ताकत के रूप में इस्तेमाल

मर्दानगी के पैमानों में एक महत्वपूर्ण पैमाना विषमलैंगिकता भी है, जिसका मतलब है विपरीत लिंग के प्रति आकर्षक का होना। मर्दानगी के पैमाने पर समलैंगिकता को एक अपराध की तरह ही देखा जाता है। उनकी नज़र में एक सच्चे मर्द को सिर्फ विषमलैंगिक ही होना चाहिए।

इसलिए समलैंगिकता को समझने वालों के साथ हिंसा लोगो को तर्कसंगत लगती है। जोकि बिल्कुल गलत है। इसके अलावा पुरुषों द्वारा यौनिकता को ताकत रूप में देखा जाता रहा है। इसलिए आपसी झगड़ों से लेकर बड़े बड़े दंगों में पुरुष लड़कियों और महिलाओं का बलात्कर करके अपनी शक्ति की नुमाइश करते हैं। पुरूषों का यौनिकता को लेकर नज़रिया उन्हें कभी असहमति को स्वीकृति नहीं करने देता।

मर्दानगी के ऐसे और भी पैमाने हैं जिन्हें पाने के लिए पुरुष किसी भी हद तक चले जाते हैं लेकिन क्या होगा अगर ये पैमाने ही ना हों। जब किसी पुरुष के रोने पर उन्हें कोई मर्दानगी के पैमाने याद ना दिलाए। जब पुरुष किसी से मदद मांगे तो उसे कमज़ोरी से न जोड़कर खुले मन से मदद को स्वीकार करें।

जब पुरुषों के गुस्से और हिंसा की जगह उनके करुणा और संवेदनशील होने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। जब पुरुषों को रिजेक्शन का कोई डर नहीं रहेगा और वह दूसरों की सहमति और असहमति का सम्मान करेंगे। वह दिन बहुत सुंदर होगा जब पुरुषों को मर्दानगी के झूठे पैमानों की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी और वह भी दुसरों की गरिमा को समझते हुए मानवता की बात करेंगे।

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