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“क्या भारत के विश्वविद्यालयोंं में साज़िश के तहत होती हैं संस्थागत हत्याएं?”

आप अपने-अपने हिसाब से इसे देखने-समझने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। दरसअल, यह कहानी शिक्षक और प्रोफेसर का टैग लगाए बैठे जातीय और विचारधारा के कुंठित हैवानों की है। जाति और विचारधारा के विरोध में मानसिक कुंठित ये लोग समूह बनाकर टारगेट बनाते हैं।

स्वयं में पतित, निकम्मे और कायर ये लोग नियम-कानून की आड़ में अपनी कुंठा को लीगल चांस बनाकर विरोधी विचारधारा और निम्न जाति के स्टूडेंट्स को शिकार बनाने को लालायित रहते हैं।

विज्ञान में रुचि रखने वाले एक सामान्य से स्टूडेंट को शहीद रोहित वेमुला बनाने की परिस्थितियां पैदा करते हैं फिर टारगेट को सार्वजनिक रूप से एकेडमिक मर्डर के ज़रिये ठिकाने लगा देते हैं।

जातिगत शोषण आखिर कब तक?

यह सब कुछ खुलेआम और बेहद सिस्टमैटिक तरीके से होता है। विरोधी विचारधारा और निम्न जाति के स्टूडेंट्स के साथ इनका व्यवहार इतने पेशेवर तरीके से होता है जैसे कि भारतीय अदालत द्वारा दोष सिद्ध कोई अपराधी को फांसी देकर मौत के घाट उतारा जा रहा हो।

शायद यह उससे भी अधिक सिस्टमैटिक है, जहां कोई अपील-कोई सुनवाई नहीं होती है। बस टारगेट पर आए स्टूडेंट्स को स्टेप बाय स्टेप खत्म करना होता है और इन सबके दौरान हमारा सिस्टम एक अबोध बालक की तरह सब देखता है मगर चुप रहता है।

शायद उसकी जुबान पर लगाम पड़ी हुई है मगर सवाल यह है कि ये लगाम किसकी है? कौन है जो बोलने नहीं देता है? कहीं स्वयं का इस व्यवस्था के शिकार हो जाने का डर इसका कारण तो नहीं? खैर, इन सबके बाद मोमबत्तियों का दौर चलता है, हमारी क्षणिक संवेदनाएं मोमबत्तियों के बुझते ही पुनः सो जाती हैं, अगले रोहित वेमुला बनने तक।

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