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अंतर्जातीय विवाह: जाति व्यवस्था को समाप्त करने की ओर एक पहल

हिन्दू धर्म की सजातीय विवाह प्रणाली जाति-व्यवस्था का सर्वप्रमुख कारण है। समाज में कुछ स्वाभाविक प्रक्रियाएं होती रहती हैं। जो लोग उच्च स्थिति में चले जाते हैं वह अपनी उच्चता बनाए रखने की पूरी कोशिश करते हैं।

वहीं, निम्न स्थिति वाले लोग उनके क्रिया-कलापों को अपनाकर खुद को ऊपर उठाने का प्रयास करते हैं। कुछ ऐसा ही भारत के हिन्दू धर्म में हुआ है। क्योंकि जब भी कोई समुदाय स्वार्थ से प्रेरित हो जाता है तो उसमें असमाजिकता की भावना स्वतः उत्पन्न हो जाती है।

हिन्दू धर्म विभिन्न जातियों का संग्रह मात्र नहीं, बल्कि शत्रुओं का समुदाय बन गया

ब्राह्मण जब सामाजिक रूप से ऊपर की श्रेणी मे आए तो खुद को ऊपर रखने के लिए उन्होने अन्य वर्गों से नाता तोड़कर अलग होने का प्रयास किया। इसके लिए सजातीय विवाह एक उत्तम माध्यम था। ब्राह्मणों का मुख्य उद्देश्य यह था कि ब्राह्मणों के विरुद्ध अपने स्वार्थ की रक्षा करे। इसके लिए वह अन्य समुदाय से अपना संवाद और संपर्क कम करने लगे। यह परंपरा अन्य जातियों ने भी अपना ली और इस तरह से हिन्दू धर्म विभिन्न जातियों का संग्रह मात्र नहीं रह गया बल्कि वह शत्रुओं का समुदाय बन गया।

हर विरोधी वर्ग स्वयं अपने लिए तथा अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही जीवित रहना चाहता है। आगे चलकर तो स्मृतियों के माध्यम से अंतर्जातीय विवाह को पूरी तरह से निषिद्ध कर दिया गया। अंतर्जातीय विवाह से जन्मे शिशुओं को शूद्रों की श्रेणी मे रखा गया। कई स्थितियों में तो उन्हें चांडाल कहा गया जो अंत्यज माने गए यानि समाज से बहिष्कृत एवं अस्पृश्य हैं।

विवाहों के प्रकार निर्धारित कर दिए गए

विवाहों में भी क्रमिकता आ गई एवं गंधर्व विवाह को एक निम्न स्थिति दी गई जिसमें प्रेम का प्रदर्शन तथा स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति सबसे ज़्यादा होती है। हर देश में विधि के निर्माता होते हैं जो इस तरह की विधियों का निर्माण करते हैं। ताकि आपातकाल में समाज को सही दिशा दी जा सके।

भारत मे मनु को इसी तरह का विधि-निर्माता माना गया और यह भारत का दुर्भाग्य है क्योंकि उनके विधानों ने एक वर्ण को इतने रसातल में पहुंचा दिया कि उनकी स्थिति पशुवत हो गई और उनको प्रताड़ित करने के लिए एक उच्च वर्ण को स्थापित कर दिया गया।

हिन्दू-धर्मावलम्बियों ने अभी तक जाति-प्रथा को जीवित रखा है

ऐसा नहीं है कि पुस्तकों की हर बात गलत है लेकिन जब तक मानव पुस्तकों से आज़ाद होकर खुद विचार नहीं करेगा तब तक समस्या बनी ही रहेगी। वैज्ञानिक एवं मानवीय तरीके से सोचा जाये तो किसी भी आधार पर जन्म आधारित वर्ण-व्यवस्था एवं अस्पृश्यता को सही नहीं ठहराया जा सकता।

भारत में यह बात बिलकुल गले से नहीं उतरती कि एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी, जो कि सोच समझ सकता है कई बार जाति-व्यवस्था को लेकर अत्यंत आग्रही होता है। इसके पीछे उसका अपने धर्म मे अंधविश्वास ही मुख्य कारक है।

जाति-प्रथा को समाप्त करने के लिए सबसे पहले अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देना आवश्यक है। इससे विभिन्न विरोधी गुटों के बीच शत्रुता की भावना में स्वतः ही कमी आने लगेगी। 

क्योंकि व्यक्ति अपने बाद सबसे पहले परिवार को महत्व देता है और कई बार तो खुद से पहले भी। यह मानवीय प्रवृत्ति है कि वह खून के रिश्तों को सबसे ज़्यादा अहमियत देता है और अंतर्जातीय विवाह से रिश्ते की भावना पैदा होगी। जब तक सजातीयता के विचार को सर्वोच्च स्थान नहीं दिया जाता तब तक जाति-व्यवस्था द्वारा उत्पन्न की गयी पृथकता और पर-अपमान की भावना समाप्त नहीं होगी। 

हिंदुओं मे विवाह की यह प्रथा सामाजिक जीवन मे निश्चित रूप से महान शक्ति का एक कारक सिद्ध होगा। जैसा कि कारणों में हमने देखा कि सजातीय विवाह ने अलग-अलग कुंबों का निर्माण कर दिया गया है। इसका पालन भी काफी कठोरता से होता है, तो इसे तोड़ना कोई सरल कार्य नहीं होगा।

अंतर्जातीय विवाह को सफल बनाना एक टेढ़ी खीर होगी क्योंकि यह सीधे हिंदुओं के धार्मिक विश्वासों से टक्कर लेगा। आधुनिक होते समाज में हम कभी-कभी उत्साही युवाओं द्वारा अंतर्जातीय विवाह को अपनाते हुए देखते हैं। बहरहाल अधिकांश मामलों मे आगे चलकर उन्हे ज़बर्दस्त कठिनाई का सामना करना पड़ता है। कई बार उन्हें परिवार से निष्काषित कर दिया जाता है और समाज तो उन्हें एक अपराधी की नज़रों से देखने लगता है। 

आए दिन हमें अपने आस-पास ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं जिसम़ प्रेमी-प्रेमिकाओं की हत्या भी कर दी जाती है। यह भारतीय हिन्दू समाज के लिए एक अभिशाप के ही समान है कि इन रूढ़िवादी परम्पराओं को प्राचीन पुस्तकों के माध्यम से एक आधार भी मिल जाता है।

अगर विचार किया जाए तो हम यह भी देख पाएंगे कि अधिसंख्य हिन्दू रोटी-बेटी के संबंध को जिन आस्थाओं के बुनियाद पर सही मानते हैं, वह आस्थाएं भी हिंदुओं के अन्य धर्म सिद्धान्त के प्रतिकूल हैं। अब वक्त आ गया है कि चर्चाओं के साथ-साथ इसे व्यावहारिकता के धरातल पर उतारा जाये तभी इस अभिशाप से मुक्ति मिल सकती है जिससे भारत सदियों से पीड़ित है।

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