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“आडवाणी, आप खामोश रहकर राजनीति को क्यों छल रहे हैं?”

लाल कृष्ण आडवाणी और नरेन्द्र मोदी

लाल कृष्ण आडवाणी और नरेन्द्र मोदी

लाल कृष्ण आडवाणी का एकांत भारत की राजनीति का एकांत है। हिन्दू वर्ण व्यवस्था के पितृपुरुषों का एकांत ऐसा ही तो होता है, जिस मकान को जीवन भर बनाता है, बन जाने के बाद खुद उस  मकान से बाहर हो जाता है, फिर वो आंगन में नहीं, बल्कि घर की देहरी पर रहता है।

सारा दिन और कई साल तक इस  इंतज़ार में काट देता है कि भीतर से कोई पुकारेगा! बेटा नहीं तो पतोहू पुकारेगी, पतोहू नहीं तो पोता पुकारेगा मगर जब कोई नहीं पुकारता है, तो खुद ही पुकारने लगता है, गला खखारने लगता है। घर के अंदर भी जाता है लेकिन किसी को नहीं पाकर उसी देहरी पर लौट आता है। बीच-बीच में सन्यास लेने और हरिद्वार चले जाने की धमकी भी देता है लेकिन डेरा वहीं जमाए रहता है।

क्यों आडवाणी से मिलना अब आडवाणी हो जाना है

बीते 6 सालों के दौरान जब भी आडवाणी को देखते हैं, वो एक गुनाहगार की तरह नज़र आते हैं। बोलना चाहते हैं मगर किसी अनजान डर से चुप हो जाते हैं, जब भी चैनलों के कैमरों के सामने आए बोलने से नज़रें चुराने लगे!आप आडवाणी के तमाम वीडियो निकाल कर देखिए, ऐसा लगता है उनकी आवाज़ चली गई है। जैसे किसी ने उन्हें शीशे के बक्से में बंद कर दिया है और उसमें धीरे-धीरे पानी भर रहा है, जिससे वो बचाने की अपील भी नहीं कर पा रहे हैं और उनकी चीख बाहर नहीं आ पा रही है। उनके सामने से कैमरा गुज़र जाता है, आडवाणी होकर भी नहीं होते हैं।

आडवाणी का एकांत उस पुरानी कमीज़ की तरह है, जो बहुत दिनों से रस्सी पर सूख रही है मगर कोई उतारने वाला भी नहीं है। बारिश में कभी भीगती है, तो धूप में सिकुड़ जाती है। धीरे-धीरे कमीज़ मैली होने लगती है, रंग खोने लगती है, फिर रस्सी से उतरकर नीचे कहीं गिरी मिलती है। वहां थोड़ी सी धूल जमी होती है, थोड़ा पानी होता है। कमीज़ को पता है कि धोने वाले के पास और भी कमीज़ हैं!

क्या आडवाणी एकांत में रोते-सिसकते होंगे या कमरे में बैठे-बैठे कभी चीखने लगते होंगे? किसी को पुकारने लगते होंगे? बीच-बीच में उठकर अपने कमरे में चलने लगते होंगे या किसी डर की आहट सुनकर वापस कुर्सी पर लौट आते होंगे? बेटी के अलावा दादा को कौन पुकारता होगा? क्या कोई मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री या साधारण नेता उनसे मिलने आता होगा? आज हर मंत्री नहाने से लेकर खाने तक की तस्वीर ट्वीट कर देता है। दूसरे दल के नेताओं की जयंती की तस्वीर भी ट्वीट कर देता है। इन नेता-मंत्री के टाइमलाइन पर सब होंगे मगर आडवाणी नज़र नहीं आएंगे। सबको पता है, अब आडवाणी से मिलने का मतलब आडवाणी हो जाना है।

रोज़ सुबह उठकर वो एकांत में किसकी छवि देखते होंगे, वर्तमान की या धूल पड़े इतिहास की?  क्या वो दिनभर अखबार पढ़ते होंगे या न्यूज़ चैनल देखते होंगे? फोन की घंटियों का इंतज़ार करते होंगे? उनसे मिलने कौन आता होगा? ना तो वो मोदी-मोदी करते हैं, ना ही कोई आडवाणी-आडवाणी करता है। आखिर वो मोदी-मोदी क्यों नहीं करते हैं। अगर यही करना प्रासंगिक होना है, तो इसे करने में क्या दिक्कत है? क्या उनका कोई निजी विरोध है, अगर है तो वो इसे दर्ज़ क्यों नहीं कराते हैं?

भाजपा आज जिस इतिहास को देख रही है, उसमें आडवाणी कहीं भी नहीं हैं

लोकसभा चुनाव 2014 से पहले आडवाणी ने एक ब्लॉग भी बनाया था। दुनिया में कितना कुछ हो रहा है, उस पर तो वो लिख ही सकते हैं। इतने लोग जहां-तहां जाकर लेक्चर दे रहे हैं, वहां आडवाणी भी जा सकते हैं। नेतृत्व और संगठन पर कितना कुछ बोल सकते हैं। कुछ नहीं तो उनके सरकारी आवास में फूल होंगे, पेड़-पौधे होंगे! उनसे ही उनका नाता बन गया होगा, उन पर ही कुछ लिख सकते थे। कुछ नहीं तो  फिल्म की समीक्षा ही लिख सकते हैं। वो आडवाणी के अलावा भी आडवाणी हो सकते थे लेकिन वो होकर भी क्यों नहीं हैं?

आडवाणी ने अपने निवास में प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए बाकायदा एक हॉल बनवाया था, तब वो अपनी प्रासंगिकता को लेकर कितने आश्वस्त रहे होंगे।

उस हॉल में कितने कार्यक्रम हुए हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि वो दिन में एक बार उस हॉल में लौटते होंगे, कैमरे और सवालों के शोर को सुनते होंगे। सुना है कुछ आवाज़ें दीवारों पर अपना घर बना लेती हैं, जहां सदियों तक उनकी आवाज़ गूंजती रहती है।

क्या वो हॉल अब भी होगा वहां? आडवाणी अपने एकांत के वर्तमान में ऐसे बैठे नज़र आते हैं, जैसे उनका कोई इतिहास ना हो। भाजपा आज अपने वर्तमान में शायद एक नया इतिहास देख रही है। आडवाणी उस इतिहास के वर्तमान में नहीं हैं, जैसे वो इतिहास में भी नहीं थे।

वो दिल्ली में नहीं, अंडमान में लगते हैं! जहां समंदर की लहरों की निर्ममता सेल्यूलर जेल की दीवारों से टकराती रहती हैं। दूर-दूर तक कोई किनारा नज़र नहीं आता है। कहीं वो कोई डायरी तो नहीं लिख रहे हैं, दिल्ली के अंडमान की डायरी!

बेशक सत्ता से वज़ूद मिटा काँग्रेस का लेकिन नाम आडवाणी का मिट गया। सोनिया गाँधी से अब भी लोग गाहे-बगाहे मिलने चले जाते हैं। राष्ट्रपति के उम्मीदवार का नाम तय हो जाता है, तो प्रधानमंत्री सोनिया गाँधी को फोन करते हैं, जिनकी पार्टी से वो भारत को मुक्त कराना चाहते हैं। क्या उन्होंने आडवाणी जी को भी फोन किया होगा? आज की भाजपा आडवाणी मुक्त भाजपा है।

उस भाजपा में आज काँग्रेस, सपा, बसपा है सब हैं, बस कोई  नहीं हैं तो संस्थापक आडवाणी! क्या किसी ने ऐसा भी कोई ट्वीट देखा है कि प्रधानमंत्री ने आडवाणी को भी राष्ट्रपति के उम्मीदवार के बारे में बताया है? क्या रामनाथ कोविंद मार्गदर्शक मंडल से भी मिलने जाएंगे? मार्गदर्शक मंडल! जिसका ना कोई दर्शक है और ना ही कोई मार्ग।

चुप रहकर राजनीति को छलते आडवाणी

भारतीय जनता पार्टी का यह संस्थापक विस्थापन की ज़िंदगी जी रहा है। वो ना अब संस्कृति में है और ना ही राष्ट्रवाद के आख्यान में। मुझे आडवाणी पर दया करने वाले पसंद नहीं हैं, ना ही उनका मज़ाक उड़ाने वाले। आडवाणी हम सबकी नियति हैं, हम सबको एक दिन अपने जीवन में आडवाणी ही होना है।

सत्ता, संस्थान और समाज सबसे ही वो अप्रासंगिक हो रहे हैं लेकिन मैं उनकी चुप्पी को अपने भीतर भी पढ़ना चाहता हूं। भारत की राजनीति में सन्यासी होने का दावा करने वाले तो प्रासंगिक हो रहे हैं और सन्यास से बचने वाले आडवाणी अप्रासंगिक हो रहे हैं। आडवाणी एक घटना की तरह घट रहे हैं, जिसे दुर्घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।

जिन लोगों ने यह कहा है कि विपक्ष आडवाणी को अपना उम्मीदवार बना दे, वे आडवाणी के अनुशासित जीवन का अपमान कर रहे हैं। उन्हें यह पता नहीं है कि विपक्ष की हालत भी आडवाणी जैसी है। आडवाणी के साथ क्रूरता उनके साथ सहानुभूति रखने वाले भी कर रहे हैं। आडवाणी का एक दोष है, उन्होंने ज़िंदा होने की एक बुनियादी शर्त का पालन नहीं किया है, वो शर्त है बोलना।

अगर राजनीति में रहते हुए भी वो बोल नहीं रहे हैं, तो वो भी राजनीति के साथ धोखा कर रहे हैं, वब भी तब, जब राजनीति उनके साथ धोखा कर रही है। उन्हें ज़ोर से चीखना चाहिए, रोना चाहिए ताकि आवाज़ बाहर तक आए। अगर बगावत नहीं है, तो वो भी कहना चाहिए। कहना चाहिए कि मैं खुश हूं, मैं डरता नहीं हूं! यह चुप्पी मेरा चुनाव है, ना कि किसी डर की वजह! आडवाणी की चुप्पी हमारे समय की सबसे शानदार पटकथा है।

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