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“अर्णब गोस्वामी, आपने अन्वय नाइक से स्टूडियो बनवाकर उन्हें पैसे क्यों नहीं दिए?”

कहने की ज़रूरत नहीं है कि अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी निंदनीय है लेकिन यह एक विचारणीय बिंदु है कि अर्णब गोस्वामी पर आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप दो साल पहले लगता है और गिरफ्तारी दो साल बाद होती है, कयों?

आखिरकार इतने सालों बाद हुई गिरफ्तारी के पीछे का दोष किसे दिया जाना चाहिए, राजनीतिक सुरक्षा को या फिर भारत की धीमी कानून प्रणाली को?

अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी को लेकर उठते सवाल

खैर, गिरफ्तारी में विलम्ब के पीछे की वजह कुछ भी हो लेकिन इस बहाने किसी इंसान के साथ इंसाफ तो हो रहा है और होना भी चाहिए। भारत देश का कानून भी यही कहता है कि दोषियों को सज़ा और निर्दोषों को इंसाफ मिलना चाहिए लेकिन अब ऐसा नहीं है।

दरअसल, अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी को लेकर काफी सवाल उठ रहे हैं। कुछ लोग महाराष्ट्र की सरकार और पुलिस पर सवाल उठा रहे हैं, तो कुछ लोग इस गिरफ्तारी को प्रेस की आज़ादी के पर हमला बता रहे हैं। 

बहरहाल, अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी को लेकर कुछ मीडिया हाउस खामोश हैं, जिस पर मुझे कोई हैरानी भी नहीं है, क्योंकि अर्णब गोस्वामी जैसे मीडिया वाले कोई लोकतंत्र के प्रहरी नहीं हैं। ये बस एक वर्तमान सत्ताधारी सरकार के सरकारी मीडिया एजेंट हैं। वैसे भी लोकतंत्र और पूंजीवाद में मीडिया, खासकर भारतीय मीडिया की भूमिका से अनजान लोग ही हैरान-परेशान हो रहे हैं। 

अर्णब गोस्वामी ने आज तक मोदी सरकार पर बेरोज़गारी, किसान आत्महत्या, मज़दूर पलायन और कोरोना जैसे मुद्दे को लेकर सवाल नहीं उठाया। जिस किसी ने इस मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरा है, उसे वो राष्ट्रद्रोही बताते हुए पता नहीं चिल्ला-चिल्लाकर क्या अनाप-शनाप बोलते हैं।

सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को लेकर अर्णब गोस्वामी ने की पत्रकारिता की ऐसी की तैसी

पिछले कुछ महीनों में सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को लेकर अर्णब गोस्वामी ने पत्रकारिता की जो ऐसी की तैसी की है, उस पर कोर्ट द्वारा कई बार टिप्पणीयां आ चुकी हैं।

उस वक्त किसी सत्ताधारी पार्टी के नेताओं ने नहीं बोला कि कोर्ट बोलने की आज़ादी छीन रहा है या फिर कोर्ट द्वारा प्रेस की आज़ादी को दबाने का काम किया जा रहा है। अब अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर तमाम बीजेपी के नेताओं ने अपने ट्वीट और अन्य माध्यमों से कह दिया कि अर्णब की गिरफ्तारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। 

गोदी मीडिया का एक तबका अपने न्यूज़ शो में यह चला रहा है कि क्या अब पत्रकारिता छोड़ने का समय आ गया है?

कुछ दिनों पहले हुए हाथरस केस में अर्णब गोस्वामी ने योगी सरकार की पुलिस को एक बार भी नहीं ललकारा जैसा कि उन्होंने मुंबई पुलिस को ललकारा था। एक बार भी योगी सरकार के खिलाफ नहीं बोला जैसे महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ बोला था।

बेमतलब चिल्लाकर पत्रकारिता की मर्यादा की धज्जियां उड़ाने वाले अर्णब गोस्वामी यूपी में पत्रकारों के खिलाफ 50 से अधिक केस दर्ज़ होने के बाद भी एक बार योगी सरकार को अपने स्टूडियो से नहीं ललकारा। यहां तक कि गौरी लंकेश की हत्या के मामले में भी अर्णब गोस्वामी ने चुप्पी साधे रखा और सभी गोदी मीडिया की बिल्कुल यही हालत थी।

क्या आपको पता है कि डॉ. कफील खान पर अवैध रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाकर 6 महीनों के लिए जेल में बंद कर दिया गया था, जिस पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी कहा था कि यह अवैध रूप से लगाया गया है। इस नाइंसाफी के खिलाफ मोदी सरकार के एक भी मंत्री ने योगी सरकार को कुछ नहीं कहा। यहां तक कि अर्णब गोस्वामी ने भी कुछ नहीं कहा। वैसे मैं अर्णब गोस्वामी को पत्रकार नहीं मानता और ना ही स्टूडियो से चिल्लाकर बोलने वाला कोई बड़ा पत्रकार बन सकता है।

कहने को तो बहुत कुछ है लेकिन ज़्यादा कहना उचित नहीं लगता। इसलिए एक ही बात कहूंगा कि अब अन्वय नाइक को इंसाफ मिलना चाहिए और अर्णब गोस्वामी को यह बताना चाहिए कि उन्होंने अन्वय नाइक से स्टूडियो बनवाकर पैसे क्यों नहीं दिए, जिसके कारण उसे आत्महत्या करनी पड़ी।

सूत्रों के मुताबिक अन्वय नाइक द्वारा 80 लाख से उपर का काम किया गया था। कानून की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए निष्पक्षता से जांच किया जाना चाहिए और बिना किसी राजनीतिक दबाव के अन्वय नाइक को न्याय मिलना चाहिए।

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