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क्या हिजाब को लेकर असहजता जायज है?

अभी हाल ही में हिजाब या बुर्का को लेकर कई लोगों ने अपने-अपने समझ के हिसाब से बहुत सी बातें की और कहीं और इसे अपने समझ के हिसाब से परिभाषित किया।

आइये सबसे पहले हम हिजाब का मतलब समझते हैं कि आखिर हिजाब होता क्या है? क्योंकि ज़्यादातर आबादी इसको समझना नहीं चाहती या उनकी समझ इसे मुस्लिम महिलाओं का शोषण करने वाला पोशाक समझती हैं, क्या सच में ऐसा है?

तो इसका जवाब है नहीं। कड़े शब्दों में नहीं, बिल्कुल नहीं। हिजाब एक पोशाक है या कपडा है जो सिर्फ ढकने का काम करती है, जिसका काम दिमाग़ी सोच और उड़ने के ख़्यालों पर पाबंदी लगाना बिल्कुल नहीं है। ये मात्र  एक ड्रेस कोड है जिसे आप ड्रेस मात्र ही समझें।

हिजाब को पाबंदी का पर्याय ना समझा जाए

यहां बता दूं कि हिजाब किसी भी सूरत में महिला के सोच समझ या बाकि सहूलियत पर पाबंदी नहीं लगाता इसका उदाहरण- आपने देखा होगा अभी हाल ही में सलमान खान के ‘दस का दम’ में एक हिजाबी महिला शानदार तरीके से सलमान के सवालों का जवाब दे रही थी। इससे पहले फैशन के दुनिया का बाइबिल कहे जाने वाले VOGUE ने भी एक हिजाबी महिला मॉडल को अपने कवर पेज पर छापा था।

हाल ही में USA के एक मशहूर टीवी चैनल पर भी हिजाबी महिला न्यूज़ कास्टर न्यूज़ पढ़ती हुई दिखी थीं, हिजाबी महिलाएं ओलिंपिक में भाग भी ले रही हैं और जीत भी रही हैं। 2016 के  रियो ओलिंपिक में USA की हिजाबी फेंसर इबतिहाज मोहम्मद ने कांस्य पदक जीता था, बार्बी ने एक हिजाबी डॉल भी लांच किया है।

लिस्ट यहीं नहीं रूकती बल्कि हर जगह हिजाबी महिलाएं समाज की सोच से परे जाकर बहुत ही सराहनीय काम कर रही हैं जो बहुत सी नॉन-हिजाबी महिलाओं का भी सपना होता है।

क्या आप इस्लामोफोबिया के शिकार हैं?

हिजाब कट्टरवाद या कट्टरवादी सोच को बढ़ावा बिलकुल नहीं देता और अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आप शायद इस्लामोफोबिया के शिकार हो चुके हैं ?

किसी के लिए प्रेरणा श्रोत होने के लिए ज्यादा ज़रूरी है आपका कार्य तथा आपकी उपलब्धि, ना की आपने क्या पहना है। एक हिजाबी महिला भी लाखो महिलाओं को प्रेरित कर सकती हैं अपनी सोच, दृढ़ निश्चय और पॉजिटिव रवैया से।

आइये अब हिजाब का असली मतलब समझते हैं, हिजाब का मतलब होता है ‘ढकना’ हिजाब का मतलब संकीर्ण सोच, धार्मिक कट्टरता बिल्कुल नहीं होता।

चूंकि इस्लाम में पर्दे का खासा ध्यान रखा गया है, चाहे वो मर्द हो या औरत सभी के लिए पर्दे की बात कही गयी है पर्दा दोनों के लिए है इसी वजह से आप में से बहुतों ने खाड़ी देश के मुसलमान मर्दों को भी एक खास तरह का एहराम बांधते हुवे देखा होगा। वो भी पर्दा का एक हिस्सा ही है।

हिजाब का चलन मुस्लिम समाज के साथ-साथ इसाई और यहूदी धर्म में भी है। ठीक वैसे ही जैसे भारतीय समाज में घूंघट या दूसरे तरह के पर्दाओं का है, हम सभी को एक दुसरे के कल्चर का आदर करना आना चाहिए चाहे वो किसी धर्म जात प्रान्त का मानने अथवा रहने वाला क्यूं ना हो।

किसी एक दो कुरितियो या कुछ मुट्ठी भर लोगों की वजह से पूरे धर्म को निशाना बनाने से बचना चाहिए। हम पढ़े लिखें हैं तो हमें पढ़े लिखे जैसा बर्ताव तथा समझदार भी होना चाहिए।

हिजाब से असहजता क्यों नहीं होनी चाहिए?

इसका जवाब है हिजाब एक पहनावा है और बहुत हद तक एक कल्चर है, जो विश्व के अलग अलग देशों में धीरे धीरे फैला ग्लोबलाइजेशन के बाद इसमें भी तेज़ी आई। अब जब दुनिया एक कल्चरल टेबल बन चुका है, हर देश हर समाज दूसरे समाज के बहुत सारी चीजों को अपना रहे हैं तो ऐसे में अगर मुस्लिम महिलाएं भी एक कल्चर को अपना रही हैं जिसका धार्मिक महत्त्व भी है तो इसमें असहजता बिल्कुल नहीं होनी चाहिए।

याद दिला दूं कि हिजाब शोषण, संकीर्ण मानसिकता या इस प्रकार के किसी भी सोच का प्रदर्शक अथवा प्रतीक बिल्कुल नहीं है। मैं ये मानता हूं कि कुछ महिलाओं को जबरन पहनने को मजबूर किया जाता जोकि गलत है। इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि जो महिलाएं हिजाब पहनती हैं उनकी सोच अथवा विचार संकीर्ण है।

मैं मानता हूं बहुत सारी महिलाएं हिजाब अपनी मर्जी से नहीं पहनती होंगी लेकिन जो अपनी मर्जी से पहनती हैं उनसे असहजता उनसे अभद्रता कहां तक जायज़ है?

एक तरफ जहां हम ग्लोबलाइजेशन से हुये फायदे गिनाते नहीं थकते। वही दूसरी ओर हिजाब का विरोध हम सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि ये एक समुदाय विशेष के लोगों में काफी प्रचलित है और मेरा ये मानना है की हिजाब के बढ़ते पॉपुलैरिटी के पीछे ग्लोबलाइजेशन का बहुत बड़ा हाथ है, हम इस बात को नकार नहीं सकते।

ऐसे में एक अहम् सवाल ये भी उठता है कि कहां गया वो ‘यूनिवर्सल डिक्लेरेशन्स ऑफ़ ह्यूमन राइट्स 1948’ जिसमें फ्रीडम की बात कही गयी है, चाहे वो पहनावे को लेकर हो, धर्म, समाज समुदाय या अन्य किसी भी प्रकार के अधिकारों की बात को लेकर हो?

दुनिया के किसी भी देश में हो रहे मानव अधिकारों की अवहेलना के बारे में हम उतनी बातें नहीं करते अथवा करना पसंद भी नहीं करते किन्तु अगर बात किसी इस्लामिक या मुस्लिम देशों की होती है तो देश को भूल सारे मुस्लिमों को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं?

अगर बुराई समाज में है तो समाज को छोड़ हम किसी ख़ास विशेष धर्म अथवा वर्ग के बारे में बात क्यों करने लगते हैं? समाज में फैली हर बुराई को मज़हब से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिये बल्कि हमें उसे सुधारने के प्रयासों को बढ़ावा देना चाहिये। हमें बिना पढ़े, सुनी सुनाई बातों पर ही विश्वास करने जैसे पूर्वाग्रह वाली सोच से बचना चाहिये।

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