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टीबी मरीज़ों के बेहतर इलाज के लिए प्राइवेट और सरकारी अस्पतालों में सामंजस्य की कमी

बिहार राज्य में ज़्यादातर मरीज़ प्राइवेट सेक्टर में इलाज कराते हैं। टीबी मरीज़ को प्राइवेट सेक्टर में बेहतर देखभाल देने के लिए मरीज़ की तकलीफों और ज़रूरतों को समझना होगा। टीबी की जांच महंगी होती है, ऊपर से उम्दा क्वालिटी की जांच बिहार के कुछ ही ज़िलों में उपलब्ध है।

जो लोग वहां नहीं रहते है उन्हें जांच कराने के लिए लम्बा सफर करना पड़ता है। जिसमें और पैसे खर्च होते हैं। मरीज़ों को ये शिकायत रहती है की जांच महंगी तो है ही लेकिन साथ ही कई बार उन्हें प्राइवेट अस्पतालों में विलम्बित जांच, गलत जांच या गलत दवाइयां भी दी जाती हैं।

टीबी एक ऐसा संक्रमण है, जो हवा से फैलता है

टीबी का इलाज 6 महीने से ले कर दो साल तक भी चल सकता है। जहां सरकारी क्षेत्र में टीबी की दवाएं मुफ्त में मिलती हैं वहीं प्राइवेट क्षेत्र में ऐसा सिर्फ गिनी चुनी जगहों पर होता है। प्राइवेट सेक्टर में ज़्यादातर मरीज़ को महंगी दवाइयां खुद से खरीदनी पड़ती हैं। इलाज में मरीज़ को कई दवाइयां लेनी होती हैं। वैसे टीबी को हराने के लिए ज़रूरी है कि मरीज़ अपना एक भी डोज़ लेना न भूले।

टीबी के इलाज का पालन करने में मरीज़ की मदद करने के लिए सरकार ने डॉट्स प्रोग्राम चलाया। जहां मरीज़ डॉट्स सेंटर जा कर स्टाफ के सामने अपनी दवाइयां लेता है। प्राइवेट सेक्टर में इलाज का पालन करने में मरीज़ को कोई सहायता नहीं मिलती।

टीबी की दवाईयों के कई दुष्प्रभाव होते हैं, जैसे- आपके लिवर या किडनी पर असर पड़ना, आंखों की रौशनी पर असर पड़ना, सुनने की क्षमता पर असर पड़ना, मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर आदि। इसलिए इलाज के दौरान मरीज़ को दवा के दुष्प्रभावों से बचने के लिए करीबन हर एक या दो महीने कई फ़ॉलो अप जांच करानी पड़ती है। जैसे की खून की जांच, आंखों की जांच इत्यादि। इससे मरीज़ का खर्च और भी बढ़ जाता है।

दुष्प्रभावों से लड़ने के लिए मरीज़ को इलाज के हर कदम पर सहारे और काउंसलिंग की ज़रुरत होती है। जिसके बगैर मरीज़ अक्सर इलाज से परेशान हो कर उसे बीच रस्ते ही छोड़ देते हैं। वैसे जहां सरकारी क्षेत्र में कुछ हद्द तक हेल्थ वर्कर्स मरीज़ को थोड़ा सहारा दे पाते हैं, प्राइवेट सेक्टर के मरीज़ों को यह तक नसीब नहीं।

टीबी मरीज़ों की समस्याओं का निवारण कैसे हो?

हमारा मानना है कि सरकार और प्राइवेट सेक्टर के अस्पतालों को एकजुट होना पड़ेगा। क्योंकि भारत के बाकी राज्यों की तरह बिहार राज्य सिर्फ टीबी से ही नहीं कोरोना से भी लड़ रहा है। ऐसे में दोनों क्षेत्रों को मिलकर समाधान निकालना दोनों के लिए ज़्यादा आसान होगा। प्राइवेट सेक्टर में जो वरिष्ठ अनुभवी डॉक्टर हैं वह सरकार से साथ मिलकर अन्य प्राइवेट डॉक्टर्स की कुशलता बढ़ाने में मदद कर सकते हैं। ताकि मरीज़ को अंतराष्ट्रीय और राष्ट्रीय निर्देश के हिसाब से  सही जांच और सही इलाज मिले।

अगर प्राइवेट सेक्टर डॉक्टर के पास जाने वाला मरीज़ ऐसा हो जिसके पास जांच, इलाज से जुड़े खर्चे और पोषण के खर्चे के लिए पर्याप्त पैसे न हों तो सिर्फ उसे मुफ्त में दवा दिलाना काफी नहीं है। ऐसे मरीज़ों को प्राइवेट सेक्टर में जांच भी मुफ्त में मिलनी चाहिए और इलाज से जुड़े फॉलो-अप जांच भी मुफ्त में मिलनी चाहिए। प्राइवेट सेक्टर के डॉक्टर्स को टीबी के मरीज़ों के लिए बनाई गई सरकारी योजनों जैसे निक्षय पोषण का लाभ उठाने की प्रक्रिया की जानकारी देनी चाहिए।

डॉट्स जैसी इलाज का पालन करने की तकनीकें जिसका उपयोग करना मरीज़ को मंज़ूर हो, प्राइवेट सेक्टर के मरीज़ों को भी उपलब्ध होनी चाहिए। आखिरकार, सरकार को प्राइवेट सेक्टर में टीबी के सारे मरीज़ों को पेशेंट सपोर्ट यानी इलाज के दौरान, हर कदम पर, काउंसलिंग और सहारा प्रदान करना चाहिए। इस महामारी के दौरान यह सपोर्ट डिजिटल माध्यम से प्रदान किया जाना चाहिए ताकि मरीज़ों को अपने घर से न निकलना पड़े।

याद रखें बिहार में मरीज़ ज़्यादातर प्राइवेट स्वास्थ्य सेवाओं का ही इस्तेमाल करते हैं।  ऐसे में अगर टीबी को हराना है तो इसके लिए टीबी के मरीज़ों की ज़रुरत के हिसाब से प्राइवेट सेक्टर की देखभाल में सुधार लाना ज़रूरी है।


नोट: यह लेख आशना अशेष और केयूरी भानुशाली द्वारा लिखा गया है। दोनों लेखिकाएं एम-डी-आर टीबी विजेता हैं और सर्वाइवर्स अगेंस्ट टीबी के साथ जुड़ी हैं।

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