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“टीबी होने के बाद मुझे आत्महत्या के ख्याल आने लगे थे”

2018 में मैंने अपनी ग्रैजुएशन खत्म करी थी और मैं अपनी एम.एस.सी. डिग्री करने में व्यस्त था। ज़िन्दगी नए लक्ष्यों और बहुत सारे काम से भर गई थी। पढ़ाई के इसी तनाव में मेरी बाजू में बहुत दर्द होने लगा। कुछ दिनों में हाथ सूज गया और कोहनी दर्द से जलने लगी।

मैं घर के पास वाले ऑर्थोपेडिक डॉक्टर से जांच करवाने गया, जि़न्होंने कहा कि मुझे आर्थराइटिस है। मैंने लगभग तीन महीने उसकी दवाइयां ली मगर मेरे स्वास्थ्य में कुछ बदलाव नहीं झलका। मैंने एक निजी अस्पताल से सलाह लेने की सोची। वहां के डॉक्टर ने कहा कि यह केवल आर्थराइटिस नहीं है। उन्होंने मुझे कोलकाता में एस. एस.के.एम. अस्पताल में जांच के लिए भेज दिया।

जब मुझे लगा मुझे टी.बी. है

मेरे पिता जी मुझे वहां लेकर गए। वहां के डॉक्टर्स संवेदनशील थे। उन्हें लगा कि मेरे शरीर में पस है, जिसके कारण मुझे कुछ टेस्ट्स करवाने पड़े और इन्हीं टेस्ट्स के ज़रिये पता चला कि मुझे ‘एक्स्ट्रा पल्मोनरी मल्टी ड्रग रेज़िस्टेंट टी. बी.’ है। मैं एक मेडिकल स्टूडेंट था और साथ ही साथ मेरे चाचा भी एक टी.बी. के मरीज़ रह चुके थे और इसी कारण मुझे टी. बी. क्या है, उसका कुछ अंदाज़ा था।

एम. डी. आर. टी.बी. क्या है, मुझे भी नहीं पता था। मैंने अपने डॉक्टर्स से इसकी और जानकारी लेने की कोशिश की। उन्होंने मुझे बताया कि “एम. डी. आर. टी.बी. थोड़ा अलग होता है, टी.बी. से थोड़ा ज़्यादा खतरनाक मगर तुम चिंतित मत हो। तुम्हें बस अपना इलाज पूरा करना है और तुम ठीक हो जाओगे।

संवेदनशील डॉक्टर्स और मेरी बीमारी

मेरे डॉक्टर्स और अस्पताल के अन्य कर्मी भी सहायक और उपयोगी थे और मुझे उनसे किसी लांछन का सामना नहीं करना पड़ा मगर शायद इसका एक कारण यह भी था कि मुझे एक्स्ट्रा पल्मोनरी टी.बी. था यानि ऐसा टी. बी. जो फैलता नहीं है।

अस्पताल के कर्मी कई बार अन्य टी.बी मरीजों के साथ जिनको पल्मोनरी टी.बी था, भेदभाव करते थे। शुरूआत में मुझे इतना डर नहीं लग रहा था मगर मेरे पिता बहुत डरे हुए थे। मुझे डर तब लगने लगा जब मेरा इलाज शुरू हुआ। वे दवाइयां और इंजेक्शन्स काफी डरावने थे।

मुझे याद है मेरा इलाज 20 जून 2018 के दिन एक सरकारी डॉट्स सेंटर में शुरू हुआ था। मुझे कुछ इंजेक्शंस और लगभग दिन की 13 दवाइयां लेने को कहा गया था। मेरे लिए वे इंजेक्शंस मेरे इलाज के सबसे कठिन हिस्सा थे। मुझे कुल मिलाकर 154 इंजेक्शंस लगवाने थे, जो कि बहुत ही दर्दनाक थे और अपने साथ कई सारे दुष्प्रभाव लाते थे। दवाइयों के दुष्प्रभाव टी.बी. से लड़ी जाने वाली लड़ाई का एक बहुत ही बड़ा और डरावना हिस्सा होते हैं।

मेरी उल्टियां मेरे पूर्ण इलाज के समय यानि पूरे दो साल तक चली। मुझे चीज़ों का स्वाद भी ठीक तरीके से नहीं आता था। मेरे पैरों में बहुत दर्द था और मेरी देखने की शक्ति भी कम होती जा रही थी। मेरे कानों में हर समय एक चुभती हुई आवाज़ सी गूंजती रहती थी। इसकी जांच करवाने के लिए मैं एक ई.एन.टी. के पास गया, जहां उन्होंने मुझे बताया कि यह भी मेरे एक इंजेक्शन का एक दुष्प्रभाव है।

मेरी मानसिक स्थिति और मेरे जीवन की उधेड़बुन

इलाज के दुष्प्रभावों की वजह से मेरी मानसिक स्थिति भी ठीक नहीं थी। मुझे हर रोज़ बुरे ख्याल आते थे और कभी-कभी अपनी जान लेने के बारे में भी सोचता था। मैंने अपने पिताजी को इस बारे में बताया और वो मुझे एक साइकिएट्रिस्ट के पास ले गए। मुझे बताया गया कि मुझे डिप्रेशन है।

मेरे साइकिएट्रिस्ट से मुझे बहुत सहायता मिली। उन्होंने मुझे बताया कि यह भी मेरी एक दवा, साइक्लोसरिन का दुष्प्रभाव था। मैं अक्सर यह भी सोचता था कि कैसे विज्ञान में इतनी तरक्की करने के बाद भी हम टी.बी के लिए एक ऐसी दवा नहीं बना पाए, जिसके कोई दुष्प्रभाव ना हो। मेरे साइकिएट्रिस्ट ने मेरी इस टी.बी की लड़ाई को थोड़ा आसान बना दिया।

मैं बहुत खुशनसीब था कि मेरे परिवार और मेरे दोस्तों ने मेरा पूरी तरह से साथ दिया। मेरे दोस्त मेरा ख्याल रखते थे, मेरी सेहत के बारे में भी पूछते थे और मुझसे अक्सर मिलने भी आते थे। मेरे पिता और मेरा परिवार इस लड़ाई में मेरे सबसे बड़े सहारा थे। इसने मुझे सहायक परिवार और अच्छे दोस्तों के महत्त्व समझाया। कभी-कभी सोचता हूं कि वे लोग जिनके पास ये सहारा ना हों, ऐसी बीमारियों से कैसे जूझते होंगे।

मुझे आत्मविश्वास से भर देने वाले कुछ असरदार तथ्य

एक दिन मैं बस फेसबुक देख रहा था, तभी एक वीडियो नजर आई। उस वीडियो में एक अभिनेत्री अपने जीवन की कठिनाइयों को हरा देने के बारे में बात कर रही थी। इसके बाद मैंने और भी टी बी सर्वाइवर्स के बारे में पढ़ना शुरू कर दिया। तब मुझे एक पेज मिला, ‘सर्वाइवर्स अगेंस्ट टी.बी’, जहां पर कई टी.बी सर्वाइवर्स अपनी ज़िन्दगी और टी.बी पर जीत हासिल करने के बारे में बात कर रहे थे।

उनसे मुझे शक्ति और साहस मिला। उनकी कहानियों से मुझे टी.बी से लड़ते रहने की प्रेरणा मिली। मुझे अब अकेला महसूस नहीं होता था। ऐसा लगता था कि मेरे जैसे कई और लोगों ने यही लड़ाई खुद लड़ी है, टी.बी को हराया है और मैं भी ऐसा ही कुछ करूंगा।

मेरे इलाज के दौरान मैंने कई बार सोचा कि बस अब मैं यह और नहीं कर पाऊंगा। इलाज जारी रखना मुश्किल था और बीच में मैंने उसे छोड़ देने का भी सोचा। ऐसा ख्याल इलाज के आखरी महीने में भी आया। अपने परिवार के दृढ़ संकल्प, आशा से भरे चेहरों और अन्य सर्वाइवर्स की कहानियां सुनने के बाद मुझे और हिम्मत मिलती थी। मैंने अपने परिवार और अपने लिए इस इलाज को पूरा करने का निर्णय लिया।

इलाज के बाद कई अन्य टी.बी के मरीज़ मुझसे सवाल पूछते हैं। इससे याद आता है कि कैसे मैं भी एक दिन वहीं था, जहां वे आज हैं। मैं पूरी कोशिश करता हूं कि मैं उन्हें ताकत दे सकूं, उन्हें इलाज ना छोड़ने की सलाह भी दूं और उन्हें इस बात का विश्वास दिला पाऊं कि वे इस लड़ाई को लड़ने की क्षमता रखते हैं।

अब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि टी बी एक ऐसी परीक्षा है, जो कुछ लोगों को पास करनी ही होती है और मैं दूसरों को भी यही बताता हूं। यह ज़िन्दगी की परीक्षा है और तुम इसे अपने लिए और दूसरे मरीज़ों के लिए पास करते हो। जब एक बार खत्म हो जाए तो पीछे मुड़कर देखने की कोई ज़रूरत नहीं होती, तुम सिर्फ अपने जीवन में आने वाली अच्छी चीज़ों पर ध्यान देते हो।

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