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झारखंड के संथाल परगना में विलुप्ति के कगार पर क्यों हैं पहाड़िया जानजाति?

tribals tripura

संथाल परगना प्रमंडल के आदिम जनजाति पहाड़िया समुदाय का अपना एक विशिष्ट इतिहास है, जिसने हरित पर्वत मालाओं, घने जंगलों, स्वच्छंद नदी-नालों तथा प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए अंग्रेज़ों, ज़मींदारों और महाजनों जैसे शोषक वर्गों से लोहा तक ले लिया था।

इसे भारत की दुर्लभ जनजातियों में से एक माना जाता है। प्रचलित मान्यताओं और उपलब्ध दस्तावेज़ों  के अनुसार, पहाड़िया समुदाय संथाल परगना प्रमण्डल के आदि काल के बाशिंदे हैं। 

302 ई.पूर्व सम्राट चन्द्र गुप्त मौर्य के शासनकाल में पाटलिपुत्र की यात्रा पर आए प्रसिद्ध यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने अपने यात्रा-वृत्तांत में इस क्षेत्र के निवासियों को मल्लि अथवा ‘माली’ शब्द से परिभाषित किया था। मेगास्थनीज के तकरीबन 950 वर्ष बाद हर्षवर्द्धन के शासनकाल (645 ई०) में भारत भ्रमण के दौरान चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में पहाड़िया का उल्लेख करते हुए इन्हें इस क्षेत्र का आदि मानव कहा है।

15वीं व 16वीं शताब्दी में आदिम जनजाति पहाड़िया का इतिहास प्रमाणित रूप से सामने आया। संथाल परगना के राजमहल, मनिहारी, लकड़ागढ़, हंडवा, गिद्धौर, तेलियागढ़ी, महेशपुर राज, पाकुड़ व सनकारा में ज़मींदारियों व स्वतंत्र सत्ता के अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने वाले सरदार रमना आहड़ी, (धसनिया, दुमका) चेंगरू सांवरिया, (तारगाछी पहाड़, राजमहल) पांचगे डोम्बा पहाड़िया, (मातभंगा पहाड़, महराजपुर) नायब सूरजा पहाड़िया, (गढ़ीपहाड़, मिर्जाचैकी) के साथ-साथ सेनानियों की महान उपलब्धियों की स्मृति में पहाड़िया समुदाय द्वारा प्रति वर्ष लोक गीतों के माध्यम से शहीद पर्व का मनाया जाना साक्ष्यों को और भी अधिक पुख्ता और प्रमाणित करता है।

73 वर्षों की आज़ादी के बाद भी पहाड़िया जनजाति हाशिए पर

संथाल परगना प्रमंडल के 1338 वर्ग मील क्षेत्र के विस्तृत भू-भाग में फैले पहाड़ों व जंगलों के मध्य संघर्ष के बलबूते स्वतंत्र राजसत्ता स्थापित करने वाले यही पहाड़िया हैं।

इन कर्णधारों की वर्तमान पीढ़ियों को आज़ादी के 73 वर्षो बाद भी सामाजिक सरोकारों से अलग-थलग रखा गया है। वर्तमान समय में वे जीवन जीने की विषम परिस्थितियों के दौर से गुज़र रहे हैं। इस आदिम जनजाति के उत्थान व क्रमिक विकास के प्रति किसी भी दिशा से कोई गंभीर चिंता नहीं दिख रही है।

पहाड़िया कल्याण योजना के बावजूद भी 95% ग्राम उसी स्थिति में

आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व शैक्षणिक अव्यवस्था के शिकार इस समुदाय की स्थिति लगभग वैसी ही है, जैसी आज़ादी के पहले थी। सूबे की पूर्ववर्ती सरकारों ने पहाड़िया बटालियन की स्थापना कर इस समुदाय को नौकरी प्रदान कर एक भागीदारी का प्रयास किया था लेकिन शहर के संपर्क में कुछ गिने-चुने पहाड़िया ग्रामों को छोड़कर 95 प्रतिशत गाँवों की स्थितियां जस-की-तस बनी हुई हैं।

दिल्ली की गंगोत्राी से निकलने वाली ‘विकास गंगा’ आज तक पहाड़ों के ऊपर और जंगलों के मध्य नहीं पहुंच पाई है। अविभाजित बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह द्वारा वर्ष 1954 में शुरू की गई विशेष ‘पहाड़िया कल्याण योजना’ भी पहाड़िया समाज का कल्याण नहीं कर पाई। यह आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्रता की लड़ाई में जिस जनजाति का हज़ारों वर्ष पुराना इतिहास रहा हो, आज वह हाशिये पर आ पहुंची  है।

संथाल परगना प्रमंजल जिसके अंतर्गत उप राजधानी दुमका सहित देवघर, गोड्डा, पाकुड़, साहेबगंज और जामताड़ा ज़िले आते हैं। इन क्षेत्रों में निवास कर रही आदिम जनजाति पहाड़िया कुल तीन उपजातियों में बंटी हुई है, जिनमें माल पहाड़िया, सांवरिया या सौरिया पहाड़िया और कुमार भाग पहाड़िया आदि शामिल हैं।

अमड़ापाड़ा (पाकुड़) से गुज़रने वाली बांसलोई नदी की पूर्वी दिशा में स्थित दुमका ज़िले के गोपीकान्दर, काठीकुंड, रामगढ़, शिकारीपाड़ा, दुमका, जामा मसलिया, सरैयाहाट तथा जामताड़ा (हाल ही में बना ज़िला) और देवघर के कुछ प्रखंडों में माल पहाड़िया जाति के लोग निवास करते हैं। जबकि राजमहल की उत्तरी दिशा में सांवरिया अथवा सौरिया पहाड़िया और पाकुड़ ज़िले के पाढरकोला व आसपास के इलाकों में कुमार भाग पहाड़िया जाति निवास करती है।

जनजाति आबादी में पहाड़िया जाति का हिस्सा 1.37% ही बचा

विभिन्न सरकारी व गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 1901 ई. की जनगणना के अनुसार आदिम जनजाति पहाड़िया की कुल आबादी 3,54,294 थी, जो वर्ष 1911 ई. में घटकर 2,60,000 के लगभग हो गई। वर्ष 1981 में इनकी जनसंख्या घटकर 1,15,000 आंकी गई। जबकि वर्ष 1991 में यह सिमटकर 1,00,000 हो गई। हालांकि साल 2011 के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।

इनकी आबादी एवं शिक्षा प्रतिशत पर हाल ही में किए गए  एक सर्वेक्षण के तहत यह निष्कर्ष सामने आया है कि माल पहाड़िया समाज की कुल आबादी घटकर मात्र 79,322 रह गई है। इस प्रकार जनजातीय आबादी में इनकी प्रतिशत आबादी मात्र 1.37 प्रतिशत रह गई है। जबकि इनकी साक्षरता दर 7.58 प्रतिशत है।

सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक, सांवरिया अथवा सौरिया पहाड़िया की वर्तमान आबादी 30,269 है। जनजातीय आबादी में इनका प्रतिशत हिस्सा 0.68 प्रतिशत तथा साक्षरता प्रतिशत 6.87 है। वहीं, कुमार भाग पहाड़िया की वर्तमान आबादी का ब्यौरा उपलब्ध नहीं है। हालांकि वर्ष 1961 में इनकी कुल आबादी 7,598 थी।

आदिम जनजाति पहाड़िया की लगातार घट रही आबादी के पीछे मुख्य कारण भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा, पेयजल जैसी आधारभूत सुविधाओं की कमी के साथ-साथ सरकारी सहायता और रोज़गार की कमी है।

पूर्ववर्ती झारखंड सरकार ने पहाड़िया समुदाय को ससम्मान जीवन जीने के लिए पहाड़िया बटालियन की स्थापना की और इन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का काफी हद तक प्रयास भी किया। वर्तमान समय में कई युवक सरकारी नौकरियों का लाभ प्राप्त कर अपनी आर्थिक स्थिति सुधार पाने में कामयाब हुए हैं।

जंगली घास, बांस  एवं पत्तों से निर्मित इनके आवास हुआ करते हैं। कोदो, घंघरा, गरंडी, बाजरा, सुनरी, कुदरूम, बोड़ा, खेसारी और जंगली फल-फूल व कन्द-मूल इनका प्रिय भोज्य पदार्थ है।

चिंताजनक है स्वास्थ्य सुविधाओं के आभाव में बढ़ता बीमारियों का ग्राफ

चिंताजनक स्वास्थ्य व चिकित्सीय अव्यवस्था की वजह से इनकी संख्या में एक बड़ी कमी देखी जा रही है। डायरिया, मलेरिया, ब्रेन मलेरिया, कालाजार, टीबी, कुष्ठ और फाइलेरिया की वजह से इस समुदाय में मृत्यु दर अधिक है। स्वास्थ्य, चिकित्सा एवं परिवार कल्याण विभाग द्वारा इस क्षेत्र में सैंकड़ों कार्यक्रमों को मूर्त रूप प्रदान किया गया लेकिन इसके बावजूद भी  इस समुदाय को कोई खास  लाभ नहीं हुआ है

इस समुदाय की महिलाओं की स्वास्थ्य व चिकित्सा की स्थिति तो ओर भी भयावह एवं चिंताजनक है। प्रसव पूर्व तथा प्रसव के दौरान उचित स्वास्थ्य व्यवस्था की कमी से अजन्मे शिशुओं की मौत भी समुदाय में एक बड़ा कारण है।

अविभाजित बिहार और झारखंड की स्थापना के बाद भी राज्य सरकार ने इस समुदाय की शिक्षा व्यवस्था पर अब तक करोड़ों रुपये खर्च कर दिया है। इसके बावजूद इनमें साक्षरता दर के निराशाजनक आंकड़े सरकार के प्रयासों पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लगाते नज़र आते हैं।

वहीं, इस समुदाय के लिए शुरू किए गए कल्याणकारी योजनाओं जैसे आवास योजना, कृषि संबंधित उपकरण, खाद-बीज, मधुमक्खी व मत्स्य पालन, पेय जलापूर्ति एवं सिंचाई पर भी करोड़ों रुपये खर्च किए जा चुके हैं लेकिन इसके बाद भी इस समुदाय  की स्थिति निराशाजनक ही है। संविधान की धारा 275 के अंतर्गत केन्द्र सरकार भी इनके कल्याणार्थ कई  राशियां आवंटित करती रही हैं।

बहरहाल, दुर्लभ और विलुप्त प्राय पहाड़िया समाज के अस्तित्व की रक्षा वर्तमान समय में एक महत्त्वपूर्ण ज़रूरत बन गई है। यह समुदाय ना केवल हमारी धरोहर हैं, बल्कि जल, जंगल और ज़मीन के सबसे बड़े रक्षकों में से एक हैं। जंगल को जीवनदायनी मानने वाले इस समुदाय की वजह से ही ना केवल जंगल की रक्षा संभव है, बल्कि पर्यावरण संतुलन में भी इनकी भूमिका उल्लेखनीय है।

ऐसे में राज्य और केंद्र सरकार को इस समुदाय की रक्षा और इनके विकास के लिए विशेष कदम उठाने की आवश्यकता है। ताकि इस आधुनिक और वैज्ञानिक युग में भी पहाड़िया जनजाति समाज की महत्ता बरकरार रह सके।


नोट: यह आलेख झारखंड के दुमका से अमरेन्द्र सुमन ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।

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