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“सोशल मीडिया पर डिप्रेशन के बारे में लिखने पर लोगों ने मेरा मज़ाक उड़ाया”

Depressed man

भारत में लोग मेंटल स्ट्रैस (तनाव) यानि अवसाद को लेकर कितना  समझते हैं? वे इसे लेकर कितने सीरियस हैं? यह जानने के लिए मैंने खुद को केंद्र में रखकर एक प्रयोग किया। मेरा यह  प्रयोग लोगों के लिए बेहूदा हो सकता है लेकिन मैंने इसे करना ज़रूरी समझा।

इस प्रयोग में मेरी यह जानने की कोशिश रही कि मेरे आसपास यानि कम-से-कम मुझसे जुड़े लोग डिप्रेशन को लेकर कितने सजग हैं? यदि उनके बीच का कोई शख्स तनावग्रस्त है, तो उसको लेकर वे क्या रुख अपनाएंगे? वगैरह-वगैरह।

इस प्रयोग के लिए मैंने पब्लिक स्पेस यानि फेसबुक और व्हाट्सएप्प को चुना और इसी के चलते दो पोस्ट कर दिए।

पहले में लिखा- मेरी ज़िंदगी में करीबियों का अकाल पड़ गया है। ऐसा आज ही नहीं  है, बल्कि कई महीनों से यही हाल है। अब मोबाइल  हाथ में लिए सोचना पड़ता है कि किसे कॉल करूं? कोई याद नहीं आता! कॉल करने  के पहले  एक बार नहीं, सौ बार सोचना पड़ता है कि किसे कॉल करूं? जिन्हें बहुत करीबी माना था, वे भी अब कॉल नहीं उठाते। फिर सामने से तो किसी का कॉल आने की कोई बात है ही नहीं।

वहीं दूसरे पोस्ट में गायक मो. रफी साहब के गाने की एक लाइन लिख दी- सबके रहते लगता है जैसे कोई नहीं है मेरा, कोई नहीं है मेरा! इसके बाद इन पोस्ट्स पर अगले पांच  दिन तक लोगों के रिएक्शन का इंतज़ार किया। ज़्यादा नहीं 23-24 लोगों ने इन पर  प्रतिक्रिया दी और सभी में मिले-जुले भाव थे। प्रतिक्रिया के बाद आते हैं कमेन्टस पर। 8-10 लोगों ने कमेन्ट्स किए थे और ज़्यादातर ने मज़ाक उड़ाने के लहज़े में। एक-दो लोगों ने हमदर्दी भी जताई, वहीं कुछ एक लोगों ने नसीहतें भी दीं।

इसके अलावा व्हाट्सएप्प पर करीब 60 लोगों ने वो स्टेटस देखा, जिनमें 4 या 5 लोगों ने ‘क्या हुआ’ वाले भाव से रिएक्ट किया। वहीं, जैसी मुझे उम्मीद थी करीब 5-6  लोगों ने उत्सुकता से मुझे कॉल किया। 1-2 ने मेरे बजाय मेरे घरवालों को खबर कर दी। खबर करने का मतलब था लोगों को यह बताना कि बस मेरा खेल खत्म है।

कुल मिलाकर कहा जाए तो इस पूरे मामले को लोगों ने मज़ाक और ध्यान ना देने लायक समझा। जैसे मेरे एक दोस्त ने कमेंट किया, “क्या नाम है लड़की का जिसने भाई का दिल तोड़ दिया है?” इस कमेंट पर एक शख्स ने हंसने का रिएक्शन दिया जबकि यह मुद्दा गंभीर था।

वहीं, मेरे सहकर्मियों और साथियों ने इस मामले को लेकर तीन-चार दिन तक न्यूज़रूम में चुटकियां लीं कि भाई ज़रूरत पड़े तो हमसे बात कर लिया करो, नहीं तो तुम फिर स्टेटस लगाओगे कि मेरा कोई नहीं है।

यदि मेरी जगह कोई और व्यक्ति होता और सच में ही तनावग्रस्त होता तो ऐसी परस्थिति में उसका तनाव और बढ़ जाता।  ऐसी स्थिति में वो कोई गलत कदम उठाने पर भी मजबूर हो सकता था।

कोई भी तनावग्रस्त व्यक्ति आत्महत्या करने जैसी स्थिति में एकदम नहीं पहुंचता है। वो चाहता है कि वो अपना हाल अपने  करीबियों के साथ बांटे और वे लोग उसे उसकी मनोस्थिति को समझें और उसका साथ दें लेकिन ऐसा नहीं होता है।

हालांकि मेरे पब्लिक स्पेस पर यह सब लिखने के तुरंत बाद एक परिचित ने मुझसे संपर्क किया और बात करने की कोशिश की, क्योंकि उन्हे मामला सीरियस लगा था। फिर ऑफिस में उनसे मुलाकात भी हुई, जब उन्हें सब ठीक लगा तो उन्होंने यह मुद्दा खत्म कर लिया था।

डिप्रेशन मज़ाक नहीं, मुद्दा होना चाहिए

लेकिन इस मुद्दे पर लोगों के रवैये से समझा जा सकता है कि मानसिक तनाव को लोग मज़ाक और दिल बहलाने की चीज़ मानते हैं। जबकि मानसिक तनाव या डिप्रेशन एक रोग होता है मगर यदि हम डिप्रेशन को बीमारी ही नहीं मानेंगे तो उसे सीरियस भी नहीं लिया जाएगा। लोगों को इसे लेकर अपनी सोच और समझ दोनों बदलनी होगी। तभी ऐसे मामलों में सही रुख अपनाया जा सकता है और अनिष्ट से बचा जा सकता है।

किसी के डिप्रेशन में होने या  खुदकुशी कर लेने पर अमूमन लोग ऐसे ही रिऐक्ट करते हैं, जैसा मेरे मामले में हुआ। कोई हैरान होता है तो कोई पॉज़िटिव सोचने की सलाह देता है। असल में समझने की ज़रूरत है कि डिप्रेशन या मानसिक रोगों का शोहरत, पैसा और कामयाबी आदि से कोई लेना-देना नहीं है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक  रिपोर्ट के मुताबिक, “हर चार में से एक इंसान किसी ना किसी तरह की मानसिक समस्या से गुज़र रहा होता है। हर 40 सेकेंड में एक व्यक्ति आत्महत्या कर रहा होता है। इसके बावजूद भी हमारे समाज में मेंटल हेल्थ को लेकर जागरुकता नहीं है। लोगों को लगता है कि एक कामयाब या पैसे वाले इंसान को मानसिक रोग भला कैसे हो सकता है? यही सब एक्टर सुशांत सिंह राजपूत के मामले में भी देखने को मिला।

केस स्टडी से समझें इसकी जटिलता

आइए इसे बेहतर समझने के लिए एक केस स्टडी की मदद लेते हैं। पांच साल तक डिप्रेशन और बायपोलर डिसऑर्डर का दर्द झेलने वाली जानी-मानी एक्ट्रेस शमा सिकंदर का कहना है कि डिप्रेशन बहुत ही जटिल बीमारी है। लोग कहते हैं कि किसी ने धोखा दिया या दिल टूट गया है, तो डिप्रेशन हो गया लेकिन मामला इतना आसान नहीं है। यह आपके बचपन के किसी ज़ख्म, मोलेस्टेशन, परवरिश, ज़िंदगी के प्रति कोई नज़रिया किसी भी वजह से हो सकता है।

शमा अपने अनुभवों पर बात करते हुए बताती हैं, “मैं रातों में घंटों रोती रहती थी, सो नहीं पाती थी। किसी से बात करने का मन नहीं करता था। हालांकि मेरे पास इसका कोई कारण नहीं था। मैं स्टार थी, मेरे पास सब कुछ था मगर सुकून नहीं था। मैं किसी को भी यह सब बता नहीं सकती थी, क्योंकि घर में मैं सबसे बड़ी हूं और सबके हिसाब से बहुत स्ट्रॉन्ग भी, तो मेरे साथ ऐसा कुछ कैसे हो सकता है?

वहीं अपनी तकलीफ किसी से साझा करने के बाद उन्हें जो सुनने को मिलता, वो कुछ यूं होता है, “कोई फिल्म देख लो या बाहर चली जाओ, मूड ठीक हो जाएगा।” शमा आगे कहती हैं, “लोग यह समझ नहीं पाते कि इसकी वजह हमारे दिमाग की नसों में केमिकल इमबैलेन्स होता है, जो दवा से ही दूर होगा, मन बहलाने से नहीं।”

शमा बताती हैं कि डिप्रेशन में उन्होंने आत्महत्या करने की भी कोशिश की लेकिन उन्हें घरवालों ने बचा लिया। हालांकि इसके बाद घरवालों का शमा से कहना था, “तुम ऐसा कैसे कर सकती हो? तुम तो इतनी स्ट्रॉन्ग हो।”

शमा अपना दर्द साझा करते हुए आगे कहती है, “आप यह नहीं सोचते कि कोई ऐसा क्यों करेगा? कुछ तो तकलीफ होगी। डिप्रेशन या बायपोलर आपको अंदर से हिला देता है। आपमें जीने की इच्छा ही नहीं रहती। जब आप यह समझेंगे, खुद पर ध्यान देंगे, इलाज कराएंगे, तभी इससे निकल पाएंगे।

भारत में  एक लाख की आबादी पर 0.3 मनोचिकित्सक

असल में मेंटल हेल्थ को लेकर हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था भी उतनी बेहतर नहीं जितनी होनी चाहिए। भारत के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने इस बात को माना है कि जितनी गंभीर यह समस्या है, उसके मुताबिक भारत में मनोचिकित्सकों का अभाव है लेकिन इस दिशा में काम हो रहा है।

दिल्ली स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेज़ (IHBAS) के निदेशक डॉक्टर निमीश देसाई के अनुसार, अमेरिका में जहां 60-70 हज़ार मनोचिकित्सक हैं, वहीं भारत में ये संख्या चार हज़ार से भी कम है, यहां इस वक्त 15 से 20 हज़ार मनोचिकित्सकों की ज़रूरत है।

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