हम उस उस सदी में जी रहे हैं जहां दिन-रात जैसा कोई फर्क नहीं है मगर मेरा शहर यानी कि मध्यप्रदेश का गैरतगंज रात के साथ ही थम जाता है, ठहर जाता है।
मेरे शहर में रात का मतलब ही घर लौट आना है। मेरे शहर या कहिए भारत के अधिकतर कस्बानुमा शहरों में करने जैसा कुछ भी नहीं होता है।
ना ही यहां फैक्ट्रियां हैं और ना ही बाहरी कम्पनियां। शायद यही वजह है कि लोग छोटे शहरों से भाग जाना चाहते हैं।
सुरक्षा का आखिर मानक क्या है?
दरअसल, हम यदि गौर करें तो पाएंगे कि सुरक्षा का कोई मानक है ही नहीं! मैं एक शिक्षिका की भूमिका निभाती हूं, तब समय की पाबंदी अपने आप मेरे साथ चल देती है लेकिन हर किसी को इतनी सहूलियत नहीं होती।
मुझे याद आता है, मेरी एक मित्र का साझा किया अनुभव जो बताता है कि आपकी यात्राएं लम्बी हो सकती हैं। असल में वह किसी प्राइवेट संस्थान में कार्ययत थीं और किसी दिन ऑफिस के काम से निकली और बस ना मिलने के कारण घर लौटने में देरी हो गई।
लगभग 11 बजे वह बस में सवार होकर घर को निकली थी। उस दिन उसे लगा मानो उसके जीवन की अब तक की यह सबसे लंबी यात्रा थी। उसने बताया कि मुझे बहुत देर हो चुकी थी फोन लगभग हर दो मिनट में बज रहे थे, बस मिली क्या? तुम निकली क्या?
रात में अनजान लोगों के बीच बस के सफर का अनुभव
उसने मुझे कहा, “तब मुझे जैसे ही बस मिली मैं लपककर उसमें चढ़ गई। इतना सोचा ही नहीं कि उसके अंदर कौन बैठा है, कौन नहीं? कुछ दूर निकलने पर ध्यान आया वे सारे लोग जो मेरे आसपास बैठे थे अधिकतर सभी उस बस के कर्मचारी थे और वे सभी मुझे लक्ष्य करके अभद्र बातें किए जा रहे थे।”
दोस्त ने आगे बताया, “जो मेरे क्या किसी के भी सुनने लायक नहीं थीं। मैं बेहद सिमटी सी खुद में ही बैठी थी। मैं चाहकर भी अपना ध्यान कहीं और नहीं बांट पा रही थी। मुश्किल यह थी कि वे मुझसे सीधा कुछ ना कहते हुए भी सब मुझसे कह रहे थे।”
एक घंटे का सफर मानो एक सदी का रहा हो
उसने आगे बताया, “रात ज़्यादा थी बस के सभी यात्री सो चुके थे। मैं अपने लिए कोई और जगह भी नहीं तलाश सकती थी। रास्ते में बहुत अंधियारा था और कानों को उनकी हंसी बहुत चुभ रही थी। एक घंटे का सफर था लेकिन लगा एक सदी को पार कर घर पहुंची हूं।”
उसने बताया कि उसके बाद कभी रात का सफर उसने तय ही नहीं किया और वो किसी बड़े शहर में जाकर रहने लगी जहां उसे इन यात्राओं से ना जूझना पड़े।
बहरहाल, सोचिए हम इस तरह की घटनाओं को किस श्रेणी में रखेंगे? क्या ये उत्पीड़न नहीं है? क्या यात्राएं इतनी कड़वी होनी चाहिए जो कि आपके अनुभव को कसैला कर दें?
जहां कोई काम होगा ही नहीं वहां पलायन की प्रवृत्ति बढ़ेगी ही, क्योंकि काम ही आपको सुरक्षा दे सकता है ओर जब यह माहौल बन नहीं पाता तब लोग सुरक्षा की तलाश में दूर निकल जाते हैं। वह भी इतनी दूर कि फिर वापस लौटने का कोई रास्ता नहीं बचता है।