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“शाकिब, काश आप पूजा में शामिल होने के बाद माफी नहीं मांगते”

समाज में रहने वाला इंसान आखिर क्यों भूलता है कि वह सिर्फ मनुष्य मात्र है। धार्मिक मूल्य हो या आध्यात्मिक मूल्य, हमको एक ताकत की ज़रूरत पड़ती है। ऐसा कोई संपर्क तो है, जो हमको प्रकृति के साथ जोड़े रखता है। कोई तो ऐसी शक्ति है, जिसकी छांव में हम अपना जीवन गुज़ार देते हैं।

भले ही हम उसको ईश्वर, अल्लाह या भगवान का नाम दे देते हों। कोई भी कभी भी किसी को भी पुकार सकता है। किसी से भी अपनी अर्ज़ी लगा सकता है। ऐसे में हमारा कोई अधिकार नहीं है किसी को भी अपनी धार्मिक भावनाओं का इज़हार करने से रोकने का।

पूजा किसी की भी हो, है तो पूजा ही

तो आइए देखते हैं हाल-फिलहाल का मामला। बंग्लादेश में खेल जगत का एक महत्वपूर्ण चेहरा माने जाने वाले शाकिब अल हसन ने हाल ही में कोलकाता में काली पूजा में शामिल होने के लिए सोशल मीडिया पर माफी मांगी है। उनकी माफी के पीछे समाज में फैला कट्टरपंथ है।

मुसलमान और हिन्दू, ये वे दो शब्द हैं जिनका वास्तव में कोई अर्थ नहीं है। इस्लाम और आर्य ये दो मूल शब्द हैं, जिनका वास्तव में अर्थ निकलता है। शाकिब के साथ कुछ ऐसा ही घटित हुआ, मुसलमानों में खलबली मच गई।

कोई भी पोशाक धर्म को नहीं दर्शाती

मुझे यह बात समझ नहीं आती और मेरे दायरे से बहुत दूर की बात है कि अगर कोई सिर पर टोपी लगा ले तो वो मुसलमान कहलाने लगेगा और अगर मूर्ति के सामने हाथ जोड़ लिए तो वो हिन्दू बन जाएगा।

यह एक कोरी और घिनौनी विचारधारा है, जिसका शिकार हर भारतीय है। मन को पवित्र रखें और भाईचारे का संदेश भेजें।

धर्मांध में डूबा हुआ समाज असली धर्म को भूलता जा रहा है

शाकिब ने जो किया वह उनका व्यक्तिगत मामला हो सकता है। उन्होंने जो किया उस बात के लिए लोगों ने उनको जान से मारने की धमकी दे डाली। ऐसा शाकिब के काली माता के सामने हाथ जोड़ने से नहीं हुआ, बल्कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि धमकी देने वाले के दिमाग में कचड़ा भरा हुआ है।

इसे धर्मांध बोलते हैं। जो धर्म के नाम पर अंधा हो जाता है। मैं मानता हूं कि इस्लाम में मूर्ति पूजा का खंडन किया गया है मगर हाथ जोड़कर मन की शांति प्राप्त करना और आध्यात्म की दृष्टि से शांति महसूस करना कहीं भी मना नहीं किया गया है। ऐसे सवालों को उठाने वाले लोग मुसलमान ज़रूर होंगे मगर इस्लामिक नहीं हो सकते हैं।

शाकिब ने वहां जो किया उस समय उनको वो करना ठीक लगा मगर इसके बाद मारने की धमकी से डरकर अपना स्टेटमेंट देना भी उचित नहीं है। उनको माफी मांगने के बजाए अपना पक्ष रखना चाहिए था और उस पक्ष से यह उम्मीद लगाने की ज़रूरत नहीं थी कि समाज क्या सोचेगा?

भारत विश्व में कई प्रकार की संस्कृति के लिए जाना जाता है

आप एक ऐसे देश में रहते हैं जो पूरे विश्व में कई प्रकार की संस्कृति के लिए जाना जाता है। आपको तो खुश होना चाहिए कि आपके लिए मंदिरों की घंटी के साथ-साथ अज़ान भी है। आपके पास गुरबानी है तो साथ ही साथ चर्च के फादर की स्पीच और प्रेयर भी। कभी गौर से सोचें तो यह समागम कितना सुलभ और सुगम है।

आपके पास होली के अनेक रंगों के साथ-साथ ईद की सेवईयां भी हैं। यहां तो ना मूर्ति का ध्यान रहता है और ना किसी टोपी या मस्जिद का। लोगों ने रंगों को भी धर्म से जोड़ दिया है। जबकि पूरी धरती हरे रंग से सराबोर है। वहीं, केसरिया रंग आसमान की चादर। सूरज जब निकलता और डूबता है, तो केसरिया रंग की छटा बिखेरकर जाता है। जब प्रकृति को इस विभाजन का अर्थ नहीं पता, तो मनुष्य क्यों खुद को अलग कर लेते हैं?

मेरे खुद के विचार और मेरा समाज

मैं अगर अपनी खुद की बात करूं तो मैं मुस्लिम से पहले इस्लामिक हूं, जो एकता और भाईचारे का संदेश देता है। चार धाम की यात्राओं में मैंने वास्तव में ईश्वर को महसूस किया है। मैंने प्रकृति से बात करते हुए खुद को मन्त्रमुग्ध होते महसूस किया है।

मैंने केदारनाथ में शिव मंदिर में हाथ जोड़े और बद्रीनाथ की घंटियों से सुकून पाया है। वहीं, मैंने मुम्बई के हाजी अली दरगाह से भी बहुत कुछ हासिल किया है। हरिद्वार में गंगा को चूमा है और लखनऊ के इमामबाड़े से सफलता हासिल की है। इसी बीच वाराणसी की गंगा आरती को कौन भूल सकता है। डलहौज़ी के चमेरा लेक से सटा भलई माता के मंदिर के नवरात्रों में पकवान, जिसे मैं आज तक नहीं भूला। वहां के चावल और पारंपरिक खाना ‘मदरा’ जो राजमा से बनता है।

मैंने उपरोक्त सारी बातें तो बताई मगर इनके पीछे के बवाल को इंगित नहीं किया, क्योंकि मुझे उनके सवालों से ज़्यादा ईश्वर की भक्ति में विश्वास है। चाहे वो किसी भी धर्म के लोगों द्वारा माने जाते हों, ईश्वर तो हर जगह विराजमान हैं। आप कहीं भी उनको ढूंढ सकते हैं। मंदिर और मस्जिद या गिरजाघर कहीं भी!

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