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“स्तरहीन गानों के बीच ज़रूरी हैं मुंबई में का बा जैसे गाने”

वैसे हर प्रकार के गाने का अपना मज़ा है लेकिन आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि पूरे एंटरटेनमेंट सेक्टर में एक तरह के गाने ही बन रहे हैं, बिक रहे हैं और दूसरी तरह के ना के बराबर हैं।

आपको यह तथ्य सोचने पर मजबूर नहीं करता कि क्या एक ही प्रकार के गाने इसलिए बन रहे हैं, क्योकि समाज वैसा है या फिर मार्केट तय कर रहा है कि समाज कैसा हो?

“मुंबई में का बा” अब गानों के इतिहास में एक अलग जगह बना चुका है। भोजपुरी फिल्मों के नंग-धडंगपन ने इस संस्कृति और बोली को एक गाली बना दिया है लेकिन इसी बोली में जब इस समय के सबसे महत्वपूर्ण विषय “लेबर माइग्रेशन” को लेकर गाना बनता है, तो यह आश्चर्यचकित कर देने वाला साहस है।

इस गाने की लोकप्रियता को देख टुच्ची राजनीतिक पार्टियों ने अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश भी कर डाली लेकिन कोई भी इस गाने की गहराई को छू नहीं पाया।

म्यूज़िक इंडस्ट्री का खोखलापन

पूरे देश में बड़ी म्यूज़िक कम्पनियों को उंगलियों पर गिना जा सकता है। वो पुरानी 4-5 गानों वाली फिल्मों का प्रचलन अब खत्म हो चुका है लेकिन उसकी जगह एक बेहुदा प्रचलन ने ले ली है। मेन स्ट्रीम फिल्मों में प्रमोशनल सॉन्ग के नाम पर एक गाना डिस्को ऑडियंस को ध्यान में रखकर डाला जाता है।

ये गाना भी ज़्यादातर रिमिक्स ही होता है। म्यूज़िक इंडस्ट्री को खत्म कर भद्दे सिंगल्स “नाच मेरी लैला” या “नाच मेरी रानी” का दौर लाया गया है।

एक बार सोचिए ये गाने सुनकर हमारे दिमाग पर क्या असर पड़ता है। सबसे कमाल की बात यह है कि हमारी यूथ इतनी इनसेंसिटिव है कि एक तरफ वो तरह तरह की वीमेन फ्रीडम और अधिकारों की बात करेगी लेकिन दूसरी तरफ औरतों को बस एक चीज़ के तौर पर दिखाने वाले गानों पर नाचेगी।

कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस गाने में एक औरत को चीज़ से बढ़कर कुछ समझा ही नहीं जा रहा, उस गाने पर एक औरत ही जमकर नाचे और कहे कि बस मैं एक चीज़ हूं। मुझे फलाने ब्रांड का लहंगा दिला दो और ढिमके ब्रांड की सेंडल दिला दो।

इस सिलसिले में मेरी कई आज़ाद ख्याल लोगों से बात हुई। उनका तर्क यह है कि उनको झूमते वक्त फर्क नहीं पड़ता कि बोल क्या हैं, वे मात्र धुन पर नाचते हैं। अब बताइए विज्ञान के दौर में विज्ञान पढ़ने वाले इतना तुच्छ तर्क देंगे तो कैसे चलेगा। आपके कानों को भले ही सिर्फ लाउड म्यूज़िक सुनाई देता हो लेकिन गाने के बोलों में निहित विचार आपके ज़हन में घर बना लेता है।

ज़रा इसके पीछे की सच्चाई देखिए, नेहा कक्कड़ का उदहारण लेते हैं। कितना स्ट्रगल और मेहनत कर के इन्होने अपना मुकाम बनाया है लेकिन खुद औरत होने के बावजूद आज के समय में उनके ज़्यादातर गाने या तो इश्क मोहब्बत के आसपास होते हैं, जिनमें दुःख बेचा जाता है या फिर औरतों को चीज़ दिखाने वाले बोल बेचे जाते हैं।

जब इस मकाम तक पहुंचकर भी लोग मीडिया के ज़हर के खिलाफ स्टेंड नहीं ले पाते तो सोचिए यह मार्केट अंदर से कितना भयानक होगा।

‘मुंबई में का बा’ जैसे महत्वपूर्ण गीत

किशोर कुमार ने बहुत पहले लिखा था, “परमिट के बिन मरमिट।” आज वही परिस्थिति हमारे सामने आधार कार्ड और नागरिकता कानून के रूप में सामने खड़ी है। गुलज़ार का “गोलमाल” हमें समाज का आर्थिक असुंतलन समझा गया था, फिर भी भारत में अमीर और अमीर और गरीब और गरीब होता गया। जिस तरह सार्थक फिल्मों में वक्त की सामजिक-राजनीतिक परिस्थितियों और मानवीय संबंधों का मेलजोल होना ज़रूरी है, उसी प्रकार गानों में भी।

जावेद अखतर और गुलज़ार जैसे कवियों और शायरों ने समय के साथ चल नई धुनों के साथ खुद की कला को रिइन्वेंट किया है, तभी गुलज़ार लिख पाते हैं कि “मैं आ रिया हूं कि जा रिया हूं” और जावेद साब गली बॉय में रैप धुनों पर संजीदा लिरिक्स लिख पाते हैं। ऐसा ही काम ने इरशाद कामिल ने रॉक स्टार की धुनों पर दिखाया था और अस्तित्ववाद से जुड़े।

कैसे बनते हैं ‘मुंबई में का बा’ जैसे गीत?

एक विषयक गाना बनने के लिए एक संजीदा टीम होना बेहद ज़रूरी है। मनोज बाजपई, अनुभव सिन्हा, अनुभव साइकिया और डॉक्टर सागर ने मिलकर इस काम को अंजाम दिया। सबसे बड़ा इसमें योगदान है तो वो अनुभव सिन्हा का, जिहोंने ऐसे विषय पर सिंगल सॉन्ग बनाने की सोची।

फिर दूसरा सबसे ज़रूरी नाम है ‘मुंबई में का बा’ के गीतकार डॉक्टर सागर का, जिनकी ज़िन्दगी भी किसी बेहतरीन फिल्म या उपन्यास से कम नहीं है। बिहार के छोटे से गाँव ककरी से निकलकर, जेएनयू से साहिर लुधियानवी पर पीएचडी करना, एक हीरो की ज़िन्दगी से कम नहीं है। एक समय था उनके पास चप्पल नहीं होती थी और स्कूल जाने के लिए नाला पार करना होता था।

वो पेड़ को झुकाकर पुल बना लेते थे और पैर के अंगूठों से पकड़कर स्कूल जाया करते थे। पीएचडी के बाद वो देश-विदेश जाकर किसी भी अच्छी जगह एक बढ़िया तनख्वाह वाली नौकरी कर सकते थे लेकिन उन्होंने गीतकार बनने की ठानी। पीएचडी के बाद वो मुंबई आए और ज़ीरो से अपना स्ट्रगल शुरू किया। धीरे-धीरे अपनी जगह बनाई और अब वो वह काम कर आहे हैं, जो हमेशा से करना चाहते थे।

जो सामजिक, आर्थिक, राजनैतिक और भारत के सन्दर्भ में कहूं तो जातीय परिस्थितियां एक संजीदा कलाकार के साथ चलती हैं। वही उसे एक विचार और आकार देने में मददगार साबित होती हैं। आप डॉक्टर सागर के शब्दों का चुनाव और उनकी कविताओं के विषय देखिए और बाकी डिस्को में बजने वाले गानों के गीतकारों का बेकग्राउंड देखिए, आपको अंदाज़ा लग जाएगा कि कौन भारत के ज़्यादा लोगों के करीब है।

लेकिन हमारी सामजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियों से पलायन करने की आदत हमें पॉपकॉर्न सिनेमा और पॉपकॉर्न संगीत की ओर धकेल रही है। असलियत से कहीं दूर मार्केट हमें फिल्टर वाली ज़िन्दगी के सपनों की गाजर दिखा लूट रहा है और हम उसके पीछे भाग रहे हैं।

हमें हमारे कानों को ज़िम्मेदार बनाना होगा!

संजीदा गानों का अनुपात इंडस्ट्री में बहुत ही कम है। इस अनुपात को हमें ही बेहतर करना होगा, घटिया गाने ना सुनकर और अच्छे गाने ढूढ़ ढूंढ के चुनकर ठानना होगा कि भले ही कम्पनियां घटिया गानों पर करोड़ों प्रमोशन में बर्बाद करें लेकिन हमें ये नहीं सुनना है।

मैं जानता हूं यह बहुत मुश्किल है। जिस देश में शायद 40% से भी ज़्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे हों, सरकारें अपनी नाकामी छुपाने के लिए यह स्वीकार भी ना करती हो, जहां 50% से ज़्यादा लोग अकेलेपन से जूझ रहे हों, वहां गानों को इतनी गंभीरता से देखा जाए यह मुश्किल है।

लोग धर्म, खेल, त्यौहार और मीडिया के ज़रिये अपनीअसल  ज़िन्दगी से पलायन के मौके देखते हैं और सच दिखाने वाली चीज़ों से भागकर अपनी-अपनी भांग खोजते हैं। हर हाथ में अब एक मोबाइल फोन है, हर हाथ में अपनी भांग है।

हम हमारी विशेषता को कमज़ोरी के तौर पर देखें या ताकत के तौर पर, यह चुनाव हमेशा हमारे हाथ में रहेगा। इतनी बड़ी जनसंख्या अगर खुद को और खुद से जुड़े मुद्दे को सुनने की ठान ले, तो कोई बड़ी बात नहीं जब हम बेहतरीन बदलाव को अपनी आंखों से देख भी पाएंगे और कानों से सुन भी पाएंगे।

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