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कासिम: बेघर बूढ़ा रिक्शा चालक, जो बचपन में भूख के कारण लोगों की हवस का शिकार हो गया

रिक्शा चालक की प्रतीकात्म तस्वीर

रिक्शा चालक की प्रतीकात्म तस्वीर

है छत जिनके लिए आसमां, बिस्तर है ज़मीं, हर दरवाज़े बंद हैं खबर लेने वाला कोई नहीं।

हमारी सोच से बहुत दूर, हमारे घरों के ठीक बाहर, एक हिंदुस्तान ऐसा भी है जहां सिर्फ बेघरों का बसेरा है। यह लाखों अकेलों की एक भीड़ है। यह वह हिंसक और उन्मादी भीड़ नहीं है जिसे कत्ल करने पर नेताओं द्वारा शाबाशी दी जाती है और अखबार की सूर्खी मिलती है। यह कमज़ोरों और लाचारों का समूह है जिसे केवल तिरस्कार मिलता है। पहचान से महरूम यह लोग किसी का वोट बैंक नहीं हैं और जो किसी का वोट बैंक नहीं है, भला उसका इस देश में कौन है?

शायद इस वजह से इनके न कोई सरपरस्त हैं और न ही कोई नेता हैं, जो इनकी आवाज़ उठाने का काम कर सकें। इस सामाजिक रुप से यतीम भीड़ के लिए हर रोज़ ज़िंदा रहना ही खु़द में एक नई जंग है।

मोहम्मद अब्दुल कासिम अली शेख़ भी इसी भीड़ का हिस्सा हैं

अक्सर इस देश में हर बेघर कासिम को पशुओं समान हांका जाता है। कभी लोग दौड़ाते हैं, कभी पुलिस सताती है तो कभी गुंडे परेशान करते हैं। इसलिए कासिम के साथ उसका पूरा घर-संसार कभी दिल्ली, कभी जयपुर, कभी मुंबई, तो कभी मद्रास में सुकून ढूंढता रहता है। पहचान नहीं होने की दिक्कतें कम नहीं होती होंगी।

आठ साल की बेपरवाह आयु में घर से अलग होकर कासिम बेनाम गलियों मे भटकता रहा। छत के नाम पर आसमान और ज़मीन को बिस्तर समझने वाले इस व्यक्ति का गुनाहगार कौन है? वह एक बेघर बच्चा था, जो सिर्फ उन हाथों के पीछे-पीछे चल पड़ता था, जो उसे दो रोटी देते थे। मासूम की भूख नज़रों की वहशत को नहीं जानती है। वह हवस से अपरिचित होते हैं। कई लोगों ने उसे सालों तक शोषित किया है। कासिम जैसे हज़ारों लोगों का रोज़ इसी तरह यौन शोषण होता है।

कभी कोई अंग निकाल लिया जाता है तो कभी बेच दिया जाता है। कहां रिपोर्ट करेंगे? किससे-किससे लड़ेंगे?

अब वह बच्चा बहुत बड़ा हो चुका है और जानता है कि भूख मिटाने के लिए जो घिन्न उसे झेलना पड़ती थी, वह क्या है। उसे दोहरे ज़ख्म लगे हैं। दिल के ज़ख्म और बेघर शरीर में घर कर चुके एचआईवी एड्स की पीड़ा। कासिम जैसे खानाबदोशों की कोई सरकारी लिस्ट नहीं होती है। पेट पालने के लिए कासिम अब रिक्शा चलाता है। उसे गंदा रहना पसंद है ताकि अब कोई उसके शरीर से खिलवाड़ न कर सके।

बूढ़े कासिम की आंखें अभी भी अपने बचपन को रोज़ जीती हैं क्योंकि गुमनाम सड़कों पर छोटे बच्चों को शिकार होते देख मरती हैं।

कासिम ने आखिरकार अपने जीवन में कुछ स्थिरता पाई है। अब उसे सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज़ की हौसला टीम द्वारा संचालित गीता घाट स्थित रिकवरी शेल्टर में अपने रोग के लिए नियमित चिकित्सा, देखभाल, पोषण और दवाएं मिलती हैं।

कासिम की ज़िंदगी पर बनी फिल्म

जब कारवां-ए-मोहब्बत की मीडिया टीम द्वारा बनाया गया यह वीडियो पहली बार यूट्यूब पर अपलोड हुआ और सोशल मीडिया पर साझा किया गया। तब से कासिम के कई नए दोस्त आगे आए हैं। वर्षों के अलगाव और दुर्व्यवहार के बाद, पहली बार कासिम को कुछ शांति मिली है।

गीता घाट पर सेवा करने वाले रमज़ान हुसैन का कहना है कि कासिम अब त्यौहार मनाने में भाग लेता है। वह अपने जीवन की कई कहानियां भी सुनाता है। गीता घाट पर कासिम को अटेंड करने वाली नर्स टर्सिंग डोलकर भी लिखती हैं कि कासिम अब पहले की तुलना में ज़्यादा खुश नज़र आता है।

शायद ऐसे ही किसी कासिम के रिक्शे पर कभी आप भी बैठे होंगे?

सोचिए जिसके पास न कोई बैंक खाता और न कोई तिजोरी होती होगी वह खुले आसमान के नीचे बिना किसी डर के कैसे रोज़ अपने रिक्शे के लिए पाई-पाई जोड़कर सोता होगा? नोटबंदी क्या थी, शायद इस बात का कासिम सबसे बेहतर जवाब दे पाएगा।

कहीं न कहीं हमें रोज़ किसी मेट्रो के बाहर, पार्क में या सड़क पर भी ऐसे बच्चे मिलते हैं जिनमें कासिम होने की हर संभावना होती है। इन्हें देखते ही समाज में हो रहे हर अपराध का दोषी समझने वाला समाज इन्हें क्या इन्साफ देगा? ऐसे बहुत सारे सवाल हैं, जिनके जवाब न सरकार के पास हैं और न समाज के पास लेकिन कासिम रोज़ पैदा हो रहे हैं। सवाल बढ़ रहे हैं, जवाब बेघर हैं।


नोट: कासिम की पिछले साल एक सड़क दुर्घटना में मृत्यू हो गई। यह कहानी कारवां-ए-मोहब्बत से हुई जो उनकी बातचीत से लेकर लिखी गई थी। कासिम की ज़िंदगी सड़क के तकलीफ भरे संघर्ष को दिखाती है। नए नागरिकता कानून और एन आर सी की वकालत करने वाले कासिम का दर्द नहीं समझ पाएंगे।

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