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क्या छठ पर्व पर भी हावी हो रहा है बाज़ारवाद?

दीपावली के ठीक बाद देश में बिहार और पूर्वी राज्यों में मनाया जाने वाला पर्व प्रवासी उत्तर-भारतीयों के कारण सारे देशभर में फैला हुआ है। वही प्रवासी उत्तर-भारतीय, जो कोरोना लॉकडाउन के दौरान संसाधनो के अभाव में  पैदल ही उम्र से लंबी सड़कों पर अपने गृह प्रवास के लिए निकल पड़े थे।

इस बार छठ पूजा कोविड-19 से उत्पन्न हालात के कारण नई परिस्थितियों में मनाया जा रहा है, जो आज से पहले कभी उत्पन्न नहीं हुई थी। कमोबेश हर राज्य सरकार ने सावधानी बरतने के लिए सार्वजनिक स्थलों पर छठ मनाने के लिए कोई- ना-कोई दिशा-निर्देश जारी किए हैं।

लोक आस्था का पर्व है छठ

उत्तर भारतीय समाज में छठ पर्व लोक आस्था में आज नई-नई सामाजिक हकीकत से दो चार होकर पुर्नपरिभाषित हो रहा है। आसान शब्दों में कहा जाए तो लोक आस्था के पारंपरिक उत्सव में आधुनिकता और नए मूल्यों ने कब्ज़ा जमा लिया है। जबकि शुरुआत में लोक मिथकों के अनुसार यह महिलाओं का अपना एक स्वायत्त दायरे का उपक्रम था, जो प्रकृत्ति पूजा और पर्यावरण पर्व के रूप में स्थापित था।

‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ का सहज व निश्चल भाव प्रकृत्ति को समर्पित था जिसने अन्न दिया, जल दिया और दिवाकर का ताप दिया।

मेरी स्मृत्ति में छठ पूजा दिवाली के बाद मनाया जाने वाला छठ घर की महिलाओं के स्वायत्त दायरे का वह लोक उत्सव था, जिसमें पुरुषों की ज़िम्मेदारी बाज़ार से संसाधनों को जुटाकर उनकी सफाई करके बांस के डाले में माथे पर रखकर जल स्रोत तक पहुंचना भर होता था। आस-पड़ोस की महिलाएं लोक गीतों के साथ इस लोक उत्सव को संपन्न करती थीं। 

कमाल यह है कि ना ही कोई मंत्रोउच्चार, ना ही कोई पूजा-पाठ का विधि-विधान, ना ही हवन, ना ही किसी मंदिर या प्रतिमा की पूजा। यहां तक कि ना ही पंडितों को दान-दक्षिणा की कोई रिवायत थी।

लोक आस्था में यह पर्व कब किसी के मन्नत-मनौति या पुत्र कामना या घर के सदस्यों की सुरक्षा के मनौति का पर्व बन गया, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं है। संतान इच्छा और मन्नत-मन्नौति की इच्छा पूर्त्ति के कारण इस पर्व का फैलाव धीरे-धीरे हर धार्मिक समुदाय विशेष में मनाया जाने लगा।

अपनी बाल-स्मृत्ति में मैंने मुस्लिम और सिख परिवारों में महिलाओं को स्वयं या दूसरी छठ करने वाली महिलाओं को सहयोग से करते देखा। कई छठ करने वाली महिलाएं अपने परिवार के साथ दूसरे परिवार के मन्नत का डाला-डगरा भी उठाती हैं। 

महिलाओं के अंदर पारंपरिक मूल्य और लोक मान्यताओं में भरोसे-विश्वास के कारण जीवित है छठ पर्व

यह पर्व महिलाओं के मध्य अपनी सामाजिक समायोजन के भाव में मदरहुड या सिस्टरहुड भी भावना के विस्तार के तरह का है। स्वयं मेरे घर में भी जान-पहचान की एक महिला जो छठ स्वयं करती थी, उनके माध्यम से ही पर्व संपन्न होता था। इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यह महापर्व बस महिलाओं के अंदर पारंपरिक मूल्य और लोक मान्यताओं में भरोसे-विश्वास के कारण जीवित ही नहीं है, बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तातंरित भी हो रहा है।

आधुनिकता और कहीं ना कहीं अपसंस्कृत्ति के गीतों के दौर में आतिशबाज़ी, घाटों की दिखावटी सफाई, नेतागिरी, गंदगी, प्रकृत्ति का नाश करने वाली चीज़ों का इस्तेमाल, बाज़ारवाद और धर्मविशेष से जोड़ने की ज़िद्द ने इस  महापर्व का राजनीतिकरण भी धीरे-धीरे शुरू कर दिया है, जिसके अंदर छठ पूजा की पारंपरिक औपचारिकता पूरा करने में कोई मर्म नहीं है।

हर साल छठ पर देशभर की जल निधियों को मिल-जुलकर साफ करने का और देशभर के जल निधियों को संरक्षित करने का अगर संकल्प लिया जाना चाहिए। छठ पूजा महिलाओं की लोक आस्था, लोक परंपरा एवं मान्यताओं में विश्वास के पर्व के साथ-साथ प्रकृत्ति पूजा और पर्यावरण का पर्व है। इन तमाम संकल्पों में जल-निधियों के संरक्षण के संकल्प को जोड़ दिया जाए। तब आधुनिकता के दौर में छठ पूजा के असली प्रताप और प्रभाव को देखा जा सकता है।

छठ पूजा के दौरान 36 घंटे जिस जल स्त्रोत या घाटों को साफ-सुथरा-स्वच्छ रखा जाता है, उसको शेष दिन भी गंदगी के जमावाड़े से दूर रखें, तब प्रकृत्ति के साथ-साथ मानवीय जीवन को नव-मानवीय मूल्य भी दे सकेंगे।

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